योग साधना में विघ्न बाधक तत्व |योग साधना में साधक तत्व | Yog Sadhna Me Badhak tatv
योग साधना में विघ्न (बाधक तत्व)
योग साधना में विघ्न (बाधक तत्व)
- पातंजल योग सूत्र के साधन पाद में, योग प्राप्ति के विभिन्न साधन बताए हैं। समाधि पाद के अंतर्गत वर्णित अभ्यास उत्तम कोटि के योगियों के लिए उपयुक्त है, जबकि मध्यम व साधारण साधक उन अभ्यासों को करने में सक्ष्म नहीं हैं। मध्यम कोटि के साधकों के लिए क्रियायोग ही सर्वोत्तम है, जिसमें तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश है, और निम्न कोटि के साधकों के लिए अष्टांग योग बेहतर है।
- इस आर्टिकल में आप यह समझ सकेंगे कि समाधि तक पहुँचने के लिए योग साधना में विभिन्न विघ्न आते हैं जिनकी निवृत्ति के पश्चात् ही साधक अपनी साधना पूर्ण करने में सफल हो पाता है । इस यूनिट में हम योग साधना में आने वाले विघ्नों पर चर्चा करेंगे।
योग साधना में विघ्न (बाधक तत्व)
- योग आनन्दमय जीवन जाने की एक कला है। वास्तव में योग का परम लक्ष्य है- समाधि । समाधि तक पहुँचने के लिए साधना की आवश्यकता होती है और योग साधना में जो तत्व बाधा उत्पन्न करते हैं, वे बाधक तत्व कहलाते हैं, जो छः हैं । इन्हें षड्रिपु भी कहा जाता है। हठयोग प्रदीपिका में साधक व बाधक तत्वों के बारे में बताया गया है। साधकतत्व वे हैं जो, योगसाधना में सहायक होते हैं । किन्तु वे तत्व जो योग में प्रगति के लिये बाधक होते हैं वे बाधक तत्व कहलाते हैं। हठयोग प्रदीपिका में प्रथम उपदेश के 15वें व 16वें श्लोक में साधक और बाधक तत्वों का वर्णन मिलता है ।
अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः ।।
जनसंगश्च लौल्यं च षड्भिर्योगो विनश्यति ।।
अत्याहार - अधिक भोजन का सेवन योग साधना में बाधक है ।
प्रयासश्च – अधिक श्रम- बल से अधिक मेहनत करने से योग साधना संभव नहीं है।
प्रजल्पो- अधिक बोलना- जरूरत से ज्यादा वार्तालाप करना भी योग साधना में विघ्न उत्पन्न करता है। अतः साधक को सोच समझ कर, कम शब्दों में वार्ता करनी चाहिए।
नियमाग्रह– नियमपालन में आग्रह- नियमों की अवहेलना करना ।
जनसंगश्च - अधिक लोक
संपर्क -अधिक लोगों से मिलना-जुलना योग साधना में
लौल्यं - मन की चंचलता
यदि मन चंचल है, स्थिर नहीं है तो
योग साधना संभव नहीं है । ये छ: योगसाधना में बाधक तत्व माने गये है । इन्हें
षड्रिपु अर्थात् योग प्रगति मार्ग के दुश्मन कहा गया है।
योग साधना में साधक तत्व
आइए अब यह जानें कि, योग साधना में बाधक
तत्वों की तरह क्या कुछ ऐसे तत्व भी हैं, जो सहायक के रूप में भी कार्य करते हैं? जी हाँ हठ प्रदीपिका में
छः साधक तत्वों का वर्णन मिलता है-
उत्साहसाहसधैर्य तत्त्वज्ञानाश्चनिश्चयः ।
जनसंगपरित्यागे षद्भिर्योगेप्रसिद्धयति ।।
अर्थात्, उत्साह, साहस, धैर्य तत्वज्ञान, दृढ़निश्चय, जनसंग का परित्याग ये छ: तत्व योग साधना में सहायक है इसलिए साधक तत्व कहे जाते हैं। पातंजल योग दर्शन में भी चार साधक तत्वों का वर्णन मिलता है।
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुखपुण्यापुण्यांविपयाणां भवनातश्चित्तप्रसादनम्
अर्थात् सुखी लोगों के
साथ मैत्री, दुखी लोगों के
साथ करुणा, पुण्य आत्मा के
साथ मुदता तथा अपुण्यात्माओं की उपेक्षा करने से चित्त स्थिर तथा शान्त होता है, जो समाधि की ओर अग्रसर
करता है।
पंचक्लेश क्या होते हैं उनका वर्णन
- पंचक्लेश पातंजल योग दर्शन के साधनपाद में वर्णित है। पंचक्लेश का शाब्दिक अर्थ है पंच + क्लेश पंच अर्थात् पाँच क्लेश अर्थात् दुःख देने वाले पातंजल योग दर्शन के अन्तर्गत साधन पाद में मध्यम अधिकारियों को योग के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन बताये गये हैं।
- जिस प्रकार समाधि पाद में उत्तम अधिकारियों के लिये चित्त की पाँच वृत्तियाँ प्रमाण, विकल्प विपर्यय, निद्रा, स्मृति बतायी गयी हैं । उसी प्रकार साधनपाद में इन्हें पंचक्लेश कहा गया है यह चित्त को दूषित करते हैं, जिससे समाधि की सिद्धि नहीं हो पाती, इनको दूर करने के उपाय के साथ ही इस पाद का आरंभ किया गया है।
क्रियायोग - तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान क्रियायोग है । क्रियायोग क्लेशों की तीव्रता को कम करने के लिये बताया गया है।
क्लेशों के प्रकार
पंच क्लेश निम्न हैं, इन्हें समाधिपाद के सूत्र -3 में बताया गया है।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ।।
अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश ये पंचक्लेश हैं
।
ये क्लेश इसलिए कहलाते
हैं क्योंकि ये ही जीवमात्र को सांसारिक बंधनों के कुचक्र में फंसाते हैं व
दुःखकारक हैं। इप पाँचों क्लेशों को ही मिथ्याज्ञान माना है अर्थात् जीवमात्र जो
जगत में देख रहा है उसे ही सत् या विद्यमान मान लेता है किन्तु ये सभी नश्वर हैं।
इस प्रकार प्रथम क्लेश जो सब दुखों का कारण है वह अविद्या है। क्रियाशीलता की
दृष्टि से क्लेशों की चार अवस्थायें बताई गई हैं :-
अविद्याक्षेत्रमुत्तरेषांप्रसुप्ततनुविच्छन्नोदाराणाम्
।।
1. प्रसुप्त- चित्त में
विद्यमान रहते हुए भी जो क्रियाशील नहीं है वे प्रसुप्त कहलाते हैं।
2. तनु - योग के साधनों के
अभ्यास से जब क्लेशों की शक्ति कम हो जाती है तब इन्हें तनु कहा जाता है।
3. विच्छिन्न – जब कोई क्लेश
उदार रहता है तब दूसरा क्लेश दबा रहता है तो उस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं।
4. उदार - जिस समय जो क्लेश
अपना कार्य पूर्णतया कर रहा होता है तब उसे उदार कहते हैं।
उपरोक्त चारों अवस्थायें सिर्फ अस्मिता, रोग, द्वेष तथा अभि निवेश की ही होती हैं। अविद्या की नहीं होती हैं क्योंकि यह इन सबका मूल कारण है।
अब हम
अविद्या के स्वरूप को समझेंगे कि-
1. अविद्या क्या है।
अविद्या का स्वरूप :
अनित्याशुचिदुः खानात्मसु
नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।।
अर्थात् - अनित्य, अपवित्र, दुःख, अनात्म में नित्य, पवित्र, सुख और आत्मभाव की अनुभुति अविद्या है।
इस सूत्र में बताये गये अर्थ को इस प्रकार समझा जा सकता है। जैसे- प्राणीमात्र इस हांड़मांस के शरीर को ही आत्मा समझ लेता है, किन्तु आत्मा तो इससे भिन्न है । इसी प्रकार इस नश्वर संसार में भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति कर सुख का अनुभव करता है, किन्तु वास्तव में ये वस्तुएं नश्वर हैं। अतः हम दुःख को सुख समझते हैं यही अविद्या है।
अब अस्मिता का स्वरूप समझेंगे-
2. अस्मिता -
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मते वास्मिता ।।
- दृक शक्ति और दर्शनशक्ति इन दोनों का एक रूप सा हो जाना अस्मिता है ।
- दृक्शक्ति अर्थात् द्रष्टा- दर्शनशक्ति अर्थात् बुद्धि
- द्रष्टा चेतन है और बुद्धि जड़ है । इनकी एकता हो ही नहीं सकती है, किन्तु अविद्या के कारण ये एकरूप लगते हैं। यह अस्मिता नामक क्लेश है ।
- अविद्या के नाश होने पर अस्मिता का नाश होता है।
अब हम राग के स्वरूप को
समझेंगे, जो तीसरा क्लेश
है।
3. राग - सुखानुशयी रागः ।।
सुख की प्रतीत के पीछे
रहने वाला क्लेश राग है। जब प्राणीमात्र को किसी पदार्थ में सुख व आनंद महसूस होता
है तब उसे उस पदार्थ में में आसक्ति हो जाती है। इस आसक्ति को ही राग कहते हैं ।
4. द्वेष- दुखानुशयी द्वेषः ।।
दुःख की प्रतीत के पीछे
रहने वाला क्लेश द्वेष है। प्रतिकूल परिस्थितियों में जिन पदार्थों द्वारा दुःख की
प्राप्ति होती है उनसे द्वेष होता है। यह द्वेष भी क्लेश कहलाता है।
5. अभिनिवेश
- अब अभिनिवेश नामक क्लेश के स्वरूप को समझते हैं। 'मृत्यु का भय अभिनिवेश कहलाता है।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा
रूढोऽभिनिवेशः ।।
अर्थात् जो परम्परागत रूप
से सामान्य मनुष्यों की तरह विद्वानों में भी विद्यमान है वह मृत्यु का डर
अभिनिवेश है।
सभी प्राणियों में मृत्यु का डर होता है यह पाँचवा क्लेश है। जो अविद्या के कारण ही है, क्योंकि यदि हम आत्मा के स्वरूप को समझते हैं तब देह के नाश का भय खत्म हो जाता है। क्योंकि आत्मा नित्य है किन्तु अविद्या के कारण हम देह को ही सब कुछ मान लेते हैं, अर्थात् देह को ही आत्मा समझ लेने से देह नष्ट होने के भय से आक्रान्त रहते हैं इस प्रकार हर समय प्राणीमात्र को मृत्यु का भय बना रहा है। यह अविद्या के कारण ही होता है।
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