योगसाधना में विक्षेप विघ्न | विक्षेप विघ्न को दूर करने के उपाय | Yog Sadhna Me Badhayen
योगसाधना में विक्षेप
योगसाधना में विक्षेप
भारतीय षड्दर्शनों में योगदर्शन व सांख्यदर्शन अति प्राचीन माने गये हैं। योगदर्शन महर्षि पतंजलि कृत है। जिसमें समाधिपाद में चित्त की शुद्धि के उपाय बताये गये हैं। चित्त की शुद्धि होने पर ही समाधि की स्थिति प्राप्त करने के लिये योग साधक योग्य होता है। इसके लिये समाधिपाद में अभ्यास व वैराग्य नामक दो उपाय बताये गये हैं, किन्तु इनके अलावा ईश्वर प्रणिधान अर्थात् ईश्वर के भजन कीर्तन तथा अन्य छह साधनों के द्वारा भी समाधि की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। किन्तु साधनकाल में अनेक विघ्न आते हैं जो साधक के लक्ष्य प्राप्ति में बाधक होते हैं। ये विक्षेप कहलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र में 14 प्रकार के विघ्नों का वर्णन किया है और इससे छूटने के उपाय के उपाय भी बताए हैं
व्याधिस्त्यान संशय प्रमादालस्याविरति भ्रान्ति दर्शनालब्धभूमिकत्वान वस्थितत्वानि चित्त विक्षेपस्तेऽन्तरायाः । पा.यो. द. 30/ ।
व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व- ये नौ (जो कि) चित्त के विक्षेप हैं, वे ही विघ्न है।
1. व्याधि - शरीर व इन्द्रियों में रोग का उत्पन्न होना व्याधि है ।
2. स्त्यान – कार्य करने में इच्छा न होना स्त्यान कहलाता है।
3. संशय- अपनी शक्ति में या योग के फल में संदेह होना संशय कहलाता है।
4. प्रमाद - योग साधना में लापरवाही बरतना प्रमाद कहलाता है।
5. आलस्य - चित्त और शरीर में तमोगुण की अधिकता के कारण कार्य करने की इच्छा ना होना आलस्य है।
6. अविरति - चित्त में वैराग्य का अभाव अविरति कहलाता है।
7. भ्रान्तिदर्शन – योग के साधनों को उनके फलों के विपरीत समझना अर्थात् उनके विषय में मिथ्याज्ञान होना भ्रान्तिदर्शन कहलाता है।
8. अलब्धभूमिकत्व- जब साधक साधना करता है फिर भी उसे योग की स्थिति प्राप्त नहीं होती है तब ऐसी स्थिति को अलब्धभूमिकत्व कहते है। इससे योगसाधक का उत्साह कम हो जाता है।
9. अनवस्थितत्व–योगसाधन से चित्त की स्थिरता होने पर भी उसका उस स्थान पर नहीं ठहरना अनवस्थितत्व कहलाता है।
इस प्रकार उपरोक्त विघ्नों के कारण योगसाधना सफल नहीं हो पाती है।
इन्हीं विघ्नों के साथ-साथ दूसरे विघ्न भी होते हैं, जो सहभुव कहलाते हैं। ये पांच हैं :
दुखदौर्मनस्यअंगमेजयत्व श्वासप्रश्वासाविक्षेप सहभुवः ।।31 ।। पा.यो.सू. 31
1. दुःख दुःख तीन प्रकार के होते हैं। -
आध्यात्मिक दुःख -
जैसे काम-क्रोधादि मानसिक कारणों से, रोग आदि के कारण व इन्द्रियों में विकलता होने पर मन इन्द्रिय व शरीर में पीड़ा होती है उसको आध्यात्मिक दुःख कहते हैं
आधिभौतिक दुःख–
जो दूसरे प्राणियों के कारण होती है। मनुष्य, पशु, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, मच्छर और अन्य जीवों के कारण होने वाली पीड़ा का नाम आधिभौतिक है
आधिदैविक दुःख-
दैवीय प्रकोप, सर्दी, गर्मी, धूप, बारिश, बाढ़, ज्वार-भाटा, भूकम्प आदि कारणों से होने वाली पीड़ा आधिदैविक कहलाती है।
2. दौर्मनस्य -
- किसी चीज की इच्छा की पूर्ति न होने पर मन में जो क्षोभ होता है, उसे दौर्मनस्य कहते हैं।
3. अङगमेजयत्व-
- शरीर के अंगों में कम्पन होना अङ्गमेजयत्व कहलाता है।
4. श्वास -
- बिना इच्छा के बाहर की वायु का भीतर प्रवेश कर जाना श्वास नामक विक्षेप है।
5. प्रश्वास -
- बिना इच्छा के भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास नामक विक्षेप है। ये पाँचों भी योगसाधना में रूकावट करते हैं। साधना को पूरा नहीं होने देते हैं और विघ्नों के साथ-साथ चलते हैं ।
योगसाधना में विक्षेप विघ्न को दूर करने के उपाय
इस प्रकार ये चौदह प्रकार के विघ्न होते हैं। यदि साधक अपनी साधना के दौरान इस प्रकार के विघ्नों का अनुभव करता हो, तो उसे तुरंत इनको दूर करने के उपाय करने चाहिए। इनको दूर करने के लिए महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद के अंतर्गत सूत्र संख्या 32-39 तक 8 प्रकार के उपाय बताये हैं जो की इस प्रकार हैं:-
1. तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाऽभ्यासः ।।32 // अर्थात्
योग के उपरोक्त विघ्नों के नाश के लिए एक तत्त्व इश्वर का ही अभ्यास करना चाहिए।
ॐ नाम के जप करने से ये विघ्न शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।
2. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् | 133 ||
अर्थात् सुखी जनों से मित्रता, दुःखी लोगों पर दया, पुण्यात्माओं में हर्ष और पापियों की उपेक्षा की भावना से चित्त स्वच्छ हो जाता है और विघ्न शांत होते हैं।
3. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ।।34।।
अर्थात् श्वास को बार-बार बाहर निकालकर रोकने से उपरोक्त विघ्न शांत होते हैं। इसी प्रकार श्वास भीतर रोकने से भी विघ्न शांत होते हैं.
4. विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ।।35 11
अर्थात् दिव्य विषयों के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न नष्ट होते हैं।
5. विशोका वा ज्योतिष्मती । 13611
अर्थात् हृदय कमल में ध्यान करने से या आत्मा के प्रकाश का ध्यान करने से भी उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।
6. वीतरागविषयं वा चित्तम् 137 ।।
अर्थात् रागद्वेष रहित संतों, योगियों, महात्माओं के शुभ चरित्र का ध्यान करने से भी मन शांत होता है और विघ्न नष्ट होते हैं।
7. स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा । 138 1/
स्वप्न और निद्रा के ज्ञान का अवलंबन करने से, अर्थात योगनिद्रा के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।
8. यथाभिमतध्यानाद्वा ||39 ।।
अर्थात् उपरोक्त में से किसी भी एक साधन का या शास्त्र सम्मत अपनी पसंद के विषयों (जैसे मंत्र, श्लोक, भगवान के सगुण रूप आदि) में ध्यान करने से भी विघ्न नष्ट होते हैं ।
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