श्रीमद भागवत गीता के अनुसार प्रमुख योग मार्ग-ज्ञानयोग | Yoga According Shrimad Bhagvat Geeta
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रमुख योग मार्ग (Yoga According Shrimad Bhagvat Geeta)
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रमुख योग मार्ग
आप योग का अर्थ, परिभाषा व संक्षिप्त
इतिहास पिछली यूनिट-योगः एक परिचय में पढ़ चुके हैं । अब आप समझ गए होंगे कि योग
हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है और किस प्रकार सर्वांगीण विकास करता है। योग
के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण स्वास्थ्य से लेकर मोक्ष तक प्राप्त कर सकता है। इसके
लिए विभिन्न योग साधन पद्धतियों की आवश्यकता होती है। जिनके माध्यम से मनुष्य
कैवल्य की अवस्था तक पहुंच सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में
बहुत ही सुन्दर ढंग से ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग की चर्चा की गई है। इस आर्टिकल में हम
श्रीमद्भगवद्गीता के आलोक में वर्णित ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग पर चर्चा करेंगे।
श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवर्ती भारत
अभ्युत्थानमर्थमस्य तदाऽऽत्मनं सृजाम्यहम् ।।
श्रीमद्भगवद्गीता एक
संपूर्ण योगशास्त्र है, इसको योग उपनिषद
भी कहा गया है। इसमें मनुष्य की दिनचर्या से लेकर आहार- विहार, ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग का
वर्णन किया गया है। यहां पर हम ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग को समझने का प्रयास करेंगे।
ज्ञानयोग क्या है? ज्ञानयोग विशेषताएँ ?
श्रीमद्भगवद्गीता- ज्ञान योग
- ज्ञानयोग ऐसा योग है जिसमें मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 13 श्लोक संख्या 2 एवं 13 के अनुसार क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) को तत्व से जानना ज्ञान है ।
- दृश्यमात्र संपूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध बोद्य स्वरूप सच्चिदानंदधन परमात्मा का ही सनातन अंश है। इस प्रकार समझकर संपूर्ण मौलिक पदार्थों में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके परमपुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको 'तत्व से जानना है' और यह ज्ञान है।
- ज्ञान प्राप्ति के साधन को और भी विस्तार से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 13 के 7वें श्लोक से 11वें श्लोक में वर्णन आता है, कि श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा भक्तिसहित गुरू की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्तःकरण की स्थिरता और मन इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह तथा इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुख और दोषों का बार-बार विचार करना तथा पुत्र - स्त्री- घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना और मुक्त परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (बिना किसी शर्त के स्वभाविक प्रगाढ़ प्रेम, स्नेह के वशीभूत होकर) तथा एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना। अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना यह सब ज्ञान है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान है।
ज्ञानयोग की निम्न विशेषताएं श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती हैं :
1. श्रेष्ठ. -
द्रव्यमय
(आहुति देकर किये जाने वाले) यज्ञ से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है - 'श्रेयान्द्रव्यम
याद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः (4:33)
कारण कि द्रव्यमय
यज्ञ में पदार्थों और क्रियाओं की मुख्यता रहती है, जबकि ज्ञानयज्ञ में विवेक-विचार की मुख्यता
रहती है। विवेक-विचार में मनुष्य की जितनी स्वतंत्रता है, उतनी स्वतंत्रता पदार्थों
और क्रियाओं में नहीं है।
2. सुगम –
- ज्ञानयोगी साधक
परमात्व तत्व का ध्यान करते-करते संपूर्ण पापों से रहित होकर सुखपूर्वक परमात्मा
को प्राप्त हो जाता है। - 'सुखेन
ब्रह्मसंस्पर्श' (6:28)
3. शीघ्रसिद्धि –
- श्रद्धावान ज्ञानयोगी ज्ञान को प्राप्त होकर शीघ्र ही परम गति को प्राप्त हो जाता है- 'ज्ञानं लब्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति (4:39) कारण कि वह इन्द्रियों को वश में किये हुए होता है।
4. पापों का नाश -
- पापी से पापी भी ज्ञानरूपी नौका से संपूर्ण पापों से तर जाता है 'सर्वज्ञानप्लवेनैव (4:36 ) । ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण पापों को भस्म कर देती है 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेः (4:37) कारण कि स्वरूप का बोध होने से शरीर संसार से संबंधविच्छेद हो जाता है।
5. संतुष्टि -
- अपने स्वरूप का ध्यान करने वाला ज्ञानयोगी अपने आप में संतुष्ट हो जाता है – 'श्यन्नात्मनि तुष्यति' (6:20) । कारण कि उसकी जड़ता अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि आदि के साथ संबंध नहीं रहता।
6. शान्ति की प्राप्ति -
- ज्ञानयोगी, परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम ...... ( 4:39 ) कारण कि वह तत्व को जान जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।
7. समता की प्राप्ति -
- जो संपूर्ण प्राणियों में अपने का और अपने में संपूर्ण प्राणियों को देखता है, वह समदर्शी हो जाता है अर्थात उसे समता की प्राप्ति हो जाती है - 'सर्वल समदर्शनः (6:29) । वह सुख-दुःख में सम हो जाता है- 'समदुखसुखः (14/24) कारण कि उसकी तत्व से अभिन्नता हो जाती है।
8. ज्ञान की प्राप्ति -
- क्षेत्र (शरीर ) अलग है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) अलग है - ऐसा विवेक होने पर ज्ञानयोगी को स्वरूप का बोध अर्थात् परमतत्व की प्राप्ति हो जाती है- यान्ति ते परम (13 जाता है। / 34 ) कारण कि उसका प्रकृति और उसके कार्य से संबंध-विच्छेद हो
9. प्रसन्नता ( स्वच्छता) की प्राप्ति -
- ज्ञानयोगी अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है - 'ब्रह्ममुतः प्रसन्नात्मा' (118:54) । भगवान उपदेश करते है; जिसे संतों ने भी बारम्बार अनुभव किया है कि सच्चिदानंदधन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाववाला योगी मेरी परमभक्ति को प्राप्त हो जाता है।
ज्ञानयोग के अधिकारी -
- जैसे भक्ति के सभी अधिकारी हैं, ऐसे ही ज्ञान के सभी अधिकारी हैं। भगवान ने गीता में बताया है कि जिस ज्ञान को मनुष्य श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरू की सेवा करके उनके अनुकूल बनकर, जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करके प्राप्त करता है और जिस ज्ञान को प्राप्त करके फिर कभी मोह हो ही नहीं सकता तथा जिस ज्ञान से साधक पहले संपूर्ण प्राणियों को अपने में और फिर परमात्मा में देखता है, वही ज्ञान (तीव्र जिज्ञासा होने पर) अत्यन्त पापी को भी प्राप्त हो सकता है (4:34-36 ) ।
- भगवान कहते हैं कि जगत का सबसे बड़ा पापी भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसंदेह संपूर्ण पाप समुद्र से भलीभांति तर जायेगा; जैसे प्रदीप्त अग्नि लकड़ियों के ढेर को जलाकर भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण पापों को सर्वथा भस्म कर देती है (4:36-37 ) जब पापी से पापी को भी ज्ञान हो सकता है तब जो श्रद्धावान है, अपनी साधना में तत्पर है और जितेन्द्रिय है, उसको ज्ञान प्राप्त हो जाय - इसमें तो कहना ही क्या है (4:39)।
- कई तो ध्यानयोग के द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा
और कई कर्मयोग के द्वारा अपने आप में उस परमात्मतत्व का अनुभव करते हैं (13:24) परन्तु जो इन साधनों को
नहीं जानते वे मनुष्य | केवल तत्वज्ञ
महापुरुषों से सुनकर उनकी आज्ञा के अनुसार चलकर ही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। (13:25)
- तात्पर्य है कि मनुष्य चाहे श्रद्धावान साधक हो, चाहे पापी से पापी हो, चाहे अनजान से अनजान हो अगर वह ज्ञान चाहता है तो उसे ज्ञान हो सकता है।
ज्ञानयोग की व्यापकता
- हमारे देखने, सुनने और समझने में जो कुछ दृश्य आता है, वह सब अदृश्यता में परिवर्तित हो रहा है। इन्द्रियों और अन्तःकरण के जितने विषय हैं, वे सब के सब पहले नहीं थे और फिर आगे नहीं रहेंगे तथा अभी वर्तमान में भी प्रतिक्षण उनका ह्रास चला जा रहा है। किन्तु विषय तथा उसके अभाव को जानने वाला तत्व सदा ज्यों का त्यों ही रहता है। उस तत्व का कभी अभाव पूर्वकाल में हुआ नहीं, न अभी वर्तमान में अभाव है, न आगे अभाव होगा और हो सकता भी नहीं। उसी तत्व से मैं - मेरा, तू - तेरा, यह इसका और वह-उसका ये चारों प्रकाशित होते हैं। वह तत्व (प्रकाश) इन सबमें ज्यों का त्यों परिपूर्ण है। जैसे प्रज्वलित अग्नि काठ को भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को, पापों को भस्म कर देती है (4:37)। अर्थात् उस ज्ञानरूपी अग्नि में, मैं - मेरा, तू - तेरा, यह इसका और वह उसका- ये सभी लीन हो जाते हैं।
- जिनका बाह्य पदार्थों का संबंधजन्य सुख मिट गया है, जिसको केवल परमात्मतत्व में ही सुख मिलता है, जो परमात्मतत्व में ही रमता जाता है, ऐसा ब्रह्मभूत साधक निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है। जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनकी द्विविधा मिट गयी है और जो संपूर्ण प्राणियों के हित में रहते हैं, वे निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। जो काम क्रोध से रहित हो चुके हैं, जिनका मन अपने अधीन है और जो तत्व को जान गये हैं (अर्थात् जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो चुका है) - ऐसे साधकों को जीते-जी और मरने के बाद शान्त ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ऐसे ज्ञानी महात्माओं के लिए शान्त परब्रह्म परमात्मा सभी ओर परिपूर्ण हैं । (5:24-26)
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