शंकराचार्य द्वारा मठों की स्थापना|शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों की जानकारी |Adi Shankara Dwara Sthapit Math
शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों की जानकारी
शंकराचार्य द्वारा मठों की स्थापना
आद्यगुरू शंकराचार्य ने भारत की सांस्कृतिक-धार्मिक एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु भारत की चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। हर भारतीय की इच्छा इन धामों के दर्शन की होती है- ये मठ भारत की एकता को अनन्त काल तक सुदृढ़ बनाये रखने का महत्वपूर्ण अभिकरण हैं। ये मठ जन सामान्य की शिक्षा के केन्द्र रहे हैं। शंकराचार्य के द्वारा रचित 'मठाम्नाय' ग्रंथ में इन मठों का विस्तृत वर्णन है, ये मठ हैं-
(i) ज्योतिर्मठ -
यह मठ उत्तर भारत में बदरीनाथ में अवस्थित है। इस मठ के अन्तर्गत वर्तमान दिल्ली, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि प्रांत आते हैं। इस मठ का आदर्श वृहदारण्यक का वाक्य "अयमात्मा ब्रह्म ।" यानि 'यह आत्मा ब्रह्म है ।'
(ii) श्रृंगेरी मठ -
यह मठ दक्षिण में स्थित है। आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल आदि प्रांत इसके अन्तर्गत आते हैं। इसका आदर्श वृहदारण्यक का ही वाक्य है "अहं ब्रह्मास्मि।” अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ।'
(iii) गोवर्धन मठ -
पूरब में वर्तमान उड़ीसा प्रांत के जगन्नाथ पुरी में यह मठ स्थापित किया गया । उड़ीसा, बंगाल, झारखंड इसके प्रभाव - क्षेत्र में आते हैं । इस मठ का आदर्श ऐतरेय उपनिषद् का वाक्य है "प्रज्ञानं ब्रह्म ।" अर्थात् 'ब्रह्म ज्ञान - स्वरूप है।'
(iv) शारदा मठ -
यह मठ पश्चिम भारत में द्वारिकापुरी में स्थित है। इसके अन्तर्गत सिन्धु, गुजरात, महाराष्ट्र आदि क्षेत्र आते हैं। इस मठ का आदर्श छान्दोग्य उपनिषद् का महावाक्य है "तत्वमसि।” अर्थात् 'वह तू ही है।'
क्या शंकराचार्य स्वंय किसी पीठ के अधिपति थे ?
शंकराचार्य स्वंय किसी पीठ के अधिपति नहीं बने। उन्होंने अपने चार प्रिय शिष्यों- तोटक, सुरेश्वराचार्य, पद्मपाद, एवं हस्तमालक को क्रमशः ज्योतिर्मठ, श्रृंगेरी मठ, गोवर्धन मठ और शारदा मठ में अधिपति के रूप में आसीन कर दिया। इन पीठों में परम्परा से एक - एक पीठाधीश होता है जिन्हें हम शंकराचार्य के नाम से पुकारते हैं।
आदिगुरू शंकराचार्य ने पीठाधीश की योग्यता
आदिगुरू शंकराचार्य ने पीठाधीश को योग्यता को निर्धारित करते हुए कहा था "पवित्र, इन्द्रियों को जीतने वाला, वेद और वेदांग का विद्वान, योग्य तथा सब शास्त्रों को जानने वाला व्यक्ति ही मेरे स्थान को प्राप्त करे ।" अयोग्य व्यक्ति अगर इस पद पर आरूढ़ हो जाता है तो विद्वानों को चाहिए कि वे उसे पद से हटा दें । शंकराचार्य ने इन पीठाधीशों को निर्देश दिया था कि वे एक स्थल पर वास न कर निर्धारित क्षेत्र में लगातार भ्रमण करते रहें तथा धर्म, संस्कृति और ज्ञान के संरक्षण और विकास को सुनिश्चित करें। आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित ये मठ आज भी अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहे हैं ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि शंकराचार्य अलौकिक मेधासम्पन्न पुरूष थे । अलौकिक विद्वता एवं असाधारण तर्कपटुता के कारण उनके समक्ष विरोधी भी नतमस्तक हो जाते थे । बत्तीस वर्ष की अल्पायु में ही आचार्य ने जो वैदिक धर्म के उद्धार एवं प्रतिष्ठा का महान कार्य किया वह अद्वितीय है । इसीलिए इन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है।
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