महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी| | Dayananda Saraswati Biography in Hindi
महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी
स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन थे
आधुनिक भारत के
निर्माताओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती को प्रमुख स्थान प्राप्त है। जिस समय हमारे
देश में आध्यात्मिक अंधकार छाया हुआ था, जब हमारी बहुत सी सामाजिक मर्यादायें टूट रहीं थी, जब हम रूढ़िवाद और
अंधविश्वास के शिकार थे, यह महान आत्मा
सत्य में दृढ़ आस्था, सामाजिक समानता
की भावना और उत्साह लिए मैदान में उतरी और हमारे देश की धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
मुक्ति के लिए काम किया । उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की ऐसी अलख जगायी कि उससे प्रभावित
होकर देश में अनेक समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाज सेवी और अध्यापक
तैयार हुए। आज भी दयानन्द सरस्वती की शिक्षा हमारे राष्ट्रीय जीवन को प्रेरणा और
बल प्रदान करती है।
महर्षि दयानंद सरस्वती की जीवनी- स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-वृत्त
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था। उनका जन्म सन् 1824 में गुजरात प्रांत के काठियावाड़ सम्भाग में मोरवी राज्य (अब जिला राजकोट) के एक छोटे-से गाँव टंकारा के एक समृद्ध सनातनी परिवार हुआ था। पिता का नाम करसन लाल जी तिवारी था। वे शैवमत के कट्टर में अनुयायी थे। बालक मूलशंकर कभी स्कूल नहीं गये। पिता की देख-रेख में उन्होंने संस्कृत और धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया । पाँचवे वर्ष में उन्होंने देवनागरी अक्षर पढ़ना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे धर्म शास्त्रों एवं सूत्रों के श्लोकों को भी याद कराया जाने लगा। आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। गायत्री, सन्ध्या सिखायी गई। यजुर्वेद संहिता का अध्ययन कराया गया। संस्कृत व्याकरण सिखाया गया तथा वेद पाठ भी आरम्भ हो गया। चौदहवें वर्ष तक वे यजुर्वेद की सम्पूर्ण संहिता एवं अन्य वेद भी पढ़ चुके थे।
- चौदह वर्ष की अवस्था में (1837 ई0 में) एक ऐसी घटना घटी जिसने बालक मूलशंकर के मानस को ही बदल दिया। शिवरात्रि के त्योहार पर उपवास का व्रत किए लोग रात्रि जागरण कर रहे थे। मूलशंकर भी उनमें से एक था। रात बीतती गई- अन्य भक्तों के साथ उनके पिता भी सो गए। तभी एक घटना घटी। एक छोटी-सी चुहिया शिव जी की मूर्ति पर चढ़ कर प्रसाद खाने लगी। किशोर मूलशंकर के मन में प्रश्न उठा क्या यही सर्वशक्तिमान शंकर है? अगर ये शंकर है तो इन पर चुहिया कैसे चढ़ सकती है? उसकी आस्था डगमगा गई। उसने निश्चय किया कि इस बलहीन, प्राणहीन मूर्ति की जगह वह सच्चे शिव का दर्शन करेगा। कालान्तर में यही किशोर उन्नीसवीं सदी के एक प्रखर और जुझारू समाज-सुधारक के रूप में विख्यात हुआ । चारों ओर फैले पाखण्ड, दम्भ और अन्धविश्वासों पर चोट करता हुआ उसने भारत को वैज्ञानिक युग में ले जाने की राह दिखाया ।
- जिस समय मूलशंकर के हृदय में प्रश्नाकुलता उमड़-घुमड़ रही थी भारत पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो चुका था । विदेशी शासकों के साथ उनकी सभ्यता एवं संस्कृति भी आई थी। वे भारतीयों को 'असभ्य' मानते थे तथा इन्हें 'सभ्य' बनाने हेतु उन्होंने दो मार्ग अपनाए- एक था, ईसाई धर्म की श्रेष्ठता दिखाने के लिए हिन्दू धर्म पर उसकी कुरीतियों का प्रदर्शन करके सीधा आक्रमण। दूसरे, यहाँ की भाषा और व्यवहार सीख कर धीरे-धीरे अपनी धर्म पुस्तकों का प्रसार करना ।
- ऐसी अवस्था में जहाँ एक ओर भारतीयों के ज्ञानचक्षु खुले वहीं दूसरी ओर उनके आक्रमण का जवाब देने के लिए यहाँ के बुद्धिजीवियों ने आत्म-मंथन भी शुरू किया। उन लोगों ने अनुभव किया कि भारत के अतीत में जो कुछ शुभ और सुन्दर था उसे भूलकर हम रूढ़ियों, कुरीतियों और पाखण्डों में फँस गये हैं। छूआछूत, बाल-विवाह, बहु-विवाह, कन्या - वध, सती-प्रथा, ऊँच-नीच, आदि बुराईयाँ सामाजिक जीवन का हिस्सा बन गई हैं। इन दुष्कर्मों से मुक्त हुए बिना पश्चिम का उत्तर नहीं दिया जा सकता था ।
- सबसे पहले बंगाल में विचार - क्रांति का जन्म हुआ। उसके उपरांत भारत के अन्य भागों में सुधार के प्रयास तेज हुए। मूलशंकर के मन में भी जिस दिन सच्चे शिव की तलाश का संकल्प जागा वह निरन्तर अध्ययन और स्वतंत्र चिन्तन में लीन रहने लगा। उसने उस किसी भी बात को मानने से इंकार कर दिया जो केवल इसलिए माना जाता है क्योंकि वह परम्परा से चली आ रही है या किसी घर के बड़े का उसे मानने का आदेश है। उनका विद्रोही मन देश और समाज के लिए रचनात्मक कार्य करने हेतु आतुर हो उठता।
- छोटी बहन एवं धर्मात्मा विद्वान चाचा की मृत्यु ने मूलशंकर को वैराग्य की दशा में पहुँचा दिया। माता-पिता मूलशंकर को विवाह के बन्धन में बाँधना चाहते थे पर मूलशंकर 1846 ई0 में एक दिन संध्या के समय घर छोड़कर चले गए - पुनः कभी नहीं लौटने के लिए। अब सम्पूर्ण भारत उनका घर था और सभी भारतीय उनके बन्धु-बान्धव । सन् 1946 से 1860 तक के पन्द्रह वर्षों में वह नाना रूप कटु और मधुर अनुभवों से गुजरते हुए आगे और आगे बढ़ते गए। प्रसिद्ध संत और विद्वान पूर्णानन्द सरस्वती ने मूलशंकर को सन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम दयानन्द सरस्वती रखा। इस बीच दयानन्द सरस्वती योग, निघण्टू, निरूक्त, वेद, पूर्व मीमांसा आदि के प्रकाण्ड विद्वान बन चुके थे।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती का सम्पूर्ण व्यक्तित्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण था। नाड़ीचक्र से सम्बन्धित उन्होंने कई पुस्तकें हिमालय यात्रा के दौरान पढ़ी थीं। उन्होंने इस पुस्तकीय ज्ञान का वास्तविक परीक्षण किया। वे आत्मकथा में लिखते हैं "एक दिन संयोग से एक शव मुझे नदी में बहते मिला । तब समुचित अवसर प्राप्त हुआ कि मैं उसकी परीक्षा करता और उन पुस्तकों के संदर्भ में निर्णय करता । सो उन पुस्तकों को समीप ही एक ओर रखकर मैं नदी के भीतर गया और शव को पकड़ तट पर आया। मैंने तीक्ष्ण चाकू से उसे काटना आरम्भ किया और हृदय को उसमें से निकाल लिया और ध्यान पूर्वक देख परीक्षा की। अब पुस्तकोल्लिखित वर्णन की उससे तुलना करने लगा । ऐसे ही शर और ग्रीवा के अंगो को काटकर सामने रखा। यह पाकर कि दोनों पुस्तक और शव लेशमात्र भी परस्पर नहीं मिलते, मैंने पुस्तकों को फाड़कर उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले और शव के साथ ही पुस्तकों के टुकड़ों को भी नदी में फेंक दिया। उसी समय से शनैः-शनैः मैं यह परिणाम निकालता गया कि वेदों, उपनिषद्, पातंजल और सांख्य-शास्त्र के अतिरिक्त अन्य पुस्तकें, जो विज्ञान और विद्या पर लिखी गई हैं, मिथ्या और अशुद्ध हैं।"
- 1857 से 1860 के बीच दयानन्द सरस्वती कहाँ रहें इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। स्पष्टतः वे 1857 की क्रांति से सम्बद्ध रहे थे अतः उनके जीवन का यह काल-खंड आज भी रहस्य बना हुआ है। सन् 1860 में वे गुरु विरजानन्द के पास पहुँचते हैं। उनके निर्देशन में ढाई वर्ष के अल्पकाल में उन्होंने महाभाष्य, ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, वेद-वेदांग इन सबका अध्ययन किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरू विरजानन्द को वचन दिया कि वे आर्य ग्रन्थों की महिमा स्थापित करेंगे, अनार्ष ग्रन्थों का खंडन करेंगे और वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा में अपने प्राण तक अर्पित कर देंगे ।
- 1867 ई0 में हरिद्वार में कुम्भ था। वहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वस्त्र फाड़कर एक पताका तैयार की और उस पर लिखा 'पाखंड खंडनी, उसे अपनी कुटिया पर फहराकर अधर्म, अनाचार और धार्मिक शोषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। उनका यह धर्म युद्ध 1883 में उनके देहावसान के बाद ही समाप्त हुआ। उन्होंने काशी पण्डितों को मूर्तिपूजा के संदर्भ में हुए शास्त्रार्थ में निरूत्तर कर दिया। कलकत्ते में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजनारायण वसु, डब्लू० सी० बनर्जी, भूदेव मुखर्जी, केशवचन्द्र सेन आदि विद्वानों ने उनका भव्य स्वागत किया और उनके विचारों से लाभान्वित हुए । केशवचन्द्र सेन के सुझाव पर दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी भाषा अपना ली तथा कोपीन के स्थान पर धोती-कुरता धारण करने लगे। 1875 में बम्बई में इन्होंने 'आर्यसमाज' की स्थापना की। हिन्दी के विकास और राष्ट्र - प्रेम की भावना जागृत करने में इस संस्था की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसी वर्ष सत्यार्थ प्रकाश का प्रकाशन हुआ। विष्णु प्रभाकर (2006: 51) के शब्दों में वह (सत्यार्थ प्रकाश) आर्यसमाज की बाईबिल है और हिन्दी का प्रचार और प्रसार करने में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उसका योगदान अपूर्व है।" महाराष्ट्र में महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल हरि देशमुख, ज्योतिबा फुले जैसे सुधारक दयानन्द के प्रशंसकों में से थे।
थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लैवेट्स्की ने दयानन्द सरस्वती के संदर्भ में कहाः
"शंकराचार्य के बाद में भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामीजी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे बड़ा तेजस्वी वक्ता तथा कुरीतियों पर आक्रमण करने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो।"
- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राजस्थान के देशी रियासतों में सुधार आन्दोलन चला रखा था। अतः अनेक प्रभावशाली लोग उनके विरोधी हो गये। जोधपुर राज्य के राजमहल में वे षड़यंत्र के शिकार हुए। उन्हें दूध में जहर और पिसा हुआ काँच दिया गया था। 1883 ई0 में दीपावली के दिन इनका देहावसान हो गया।
- स्वामी जी चले गये परन्तु भारत के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनकी मान्यताओं और सिद्धान्तों ने हीन भाव से ग्रस्त भारतीयों में अपूर्व उत्साह का संचार किया । अन्धविश्वास और कुरीतियों के जाल से मुक्त होकर उन्होंने जिस प्रगतिशील मार्ग को अपनाया था, जिस वैचारिक क्रांति को जन्म दिया था वही मार्ग आज हमें वैज्ञानिक युग में ले आया |
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