स्वामी दयानन्द सरस्वती का शिक्षा-दर्शन | गुरूकुल एवं दयानन्द - एंग्लो-वेदिक (डी०ए०वी०) विद्यालय| Dayananda Saraswati Education Philosophy
स्वामी दयानन्द सरस्वती का शिक्षा-दर्शन (Dayananda Saraswati Education Philosophy)
स्वामी दयानन्द सरस्वती का शिक्षा-दर्शन
- स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान समाज-सुधारक थे । तर्कशक्ति और सत्य पर उनकी अटूट निष्ठा उन्हें संसार के महान शिक्षाविदों की श्रेणी में ला खड़ा करता है। जो प्रश्नाकुलता किसी को महानता के मार्ग पर ले जाती हैं वह दयानन्द में प्रारम्भ से ही विद्यमान थी। वही उन्हें निरन्तर बने-बनाये मार्ग को त्यागने और न्याय की खोज के लिए उकसाती रही। वही सच्चे शिव और सत्य की तलाश में आगे और आगे धकेलती रही। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा लेकिन साथ ही अतीत में जो शुभ, सुन्दर और गतिमय था उसी को आधार बनाकर नये और समृद्ध भविष्य का निर्माण किया। उन्होंने बताना चाहा कि अपनी धरती से विच्छिन्न होकर हम कहीं नहीं पहुँच सकते, वैसे ही जैसे जड़ अपनी मिट्टी अपनी हवा से अपने को काट लेगी तो वृक्ष पनप ही नहीं सकेगा।
- इस प्रकार दयानन्द सरस्वती ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को अपनी जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया। वे वैदिक शिक्षा के श्रेष्ठ तत्वों को स्वीकार करते थे। लेकिन वे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को भी महत्वपूर्ण मानते थे। ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे भारतीयों का कहीं भी जाने का स्वागत करते थे पर साथ ही इन शब्दों में सावधान करते थे "भाई! किसी विद्या के ग्रहण करने के लिए जाओ परन्तु अपनी अच्छी-अच्छी प्रथाओं को मत छोड़ो।"
- स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार शिक्षा वही है जो मानव को ज्ञान या विद्या - पिपासु बनाये। उनके अनुसार ब्रह्म, जीवात्मा और पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जानना विद्या है और न जानना अज्ञान है। विद्या को स्वामी जी ने मानव कल्याण का साधन माना जिससे केवल व्यक्ति का ही नहीं वरन् समष्टि का कल्याण हो ।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती अत्यन्त ही प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उनका मानना था कि चाहे आध्यात्मिक शिक्षा हो या लौकिक शिक्षा उसे प्राप्त करने का अधिकार मानव मात्र को है। वे कहते हैं "जो ईश्वर का अभिप्राय द्विजों ही के ग्रहण करने का होता तो मनुष्य मात्र को उनके पढ़ने का अधिकार कभी न देता ।... वेदाधिकार जैसे ब्राह्मण वर्ग के लिए है वैसा ही क्षत्रिय, आर्य, वैश्य, शूद्र, भृत्य और अतिशुद्र के लिए बराबर है क्योंकि वेद ईश्वर प्रकाशित है। जो विद्या का पुस्तक है, वह सबका हितकारक है..... इसलिए उनका जानना सब मनुष्य को उचित है।" स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिक्षा के अत्यन्त ही व्यापक उद्देश्य निश्चित किए ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भारतीय धर्म और संस्कृति द्वारा समर्थित चारो पुरूषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के महत्व को स्वीकार किया है। इन पुरुषार्थों के उचित समन्वय एवं सम्यक प्राप्ति हेतु उन्होंने शिक्षा को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य है
1. चरित्र का निर्माण-
स्वामी दयानन्द प्राचीन आर्यों की ही तरह भारतीयों को उच्च चारित्रिक शक्ति से सम्पन्न देखना चाहते थे। उनका मानना था कि श्रेष्ठ चरित्र का व्यक्ति अन्य उद्देश्यों को आसानी से प्राप्त कर सकता है। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया घर से प्रारम्भ हो जाती है और शिक्षालयों में अध्यापकों की भूमिका इस संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण हो जाती है।
2. धर्म पर आधारित आचरण-
स्वामी दयानन्द के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य धर्माचरण है । बालक-बालिका को नैतिक आचार-विचार, खान-पान तथा वेश-भूषा की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। उनका मन, वचन और कर्म धर्म के अनुकूल होना चाहिए। उन्होंने देव-यज्ञ का विधान किया और ब्रह्मचर्य पर जोर दिया।
3. वैदिक संस्कृति का पुनरूत्थान -
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य वैदिक संस्कृति का पुनरूत्थान माना । उन्होंने वेद की ओर लौटने का नारा दिया। शिक्षा के द्वारा वे वैदिक ग्रंथों की प्रतिष्ठा एवं पुराण, तांत्रिक ग्रंथों की असत्यता सिद्ध करने को दृढ़ प्रतिज्ञ थे।
4. शारीरिक विकास -
स्वामी दयानन्द ने धर्म का साधन स्वस्थ शरीर को माना । अतः उन्होंने शारीरिक विकास को शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य माना। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मचर्य पालन, योग, खेल-कूद और व्यायाम पर जोर दिया। उन्होंने ब्रह्मचर्य को न केवल एक शारीरिक क्रिया माना वरन् इसे एक मानसिक स्थिति भी माना ।
5. यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति-
स्वामी दयानन्द सरस्वती भौतिक जगत को भी वास्तविक मानते थे। इसका सही ज्ञान प्राप्त करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था ।
6. सत्य और शिव की प्राप्ति
स्वामी दयानन्द शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य सत्य और सच्चे शिव की प्राप्ति मानते थे। उनका कहना था "मनुष्य को स्वमत के विषय में सहज ही दुराग्रह उत्पन्न होता है। यह मनुष्य का स्वभाव है । परन्तु सुविज्ञ पुरूषों को उचित है कि दुराग्रह को परे फेंक सत्य की परीक्षा करें। यही उनका भूषण है।
7. व्यष्टि और समष्टि का कल्याण-
स्वामी दयानन्द सरस्वती शिक्षा का उद्देश्य न केवल व्यक्ति का कल्याण चाहते थे वरन् साथ ही साथ सम्पूर्ण समाज का कल्याण चाहते थे। वस्तुतः उनकी शिक्षा का उद्देश्य था "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत।" यानि सभी सुखी हों, सभी नीरोग हों, सबों का कल्याण हो, किसी को दुख न हो।'
8. समाज-सुधार हेतु शिक्षा-
स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान समाज-सुधारक थे और उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धति का एक प्रमुख उद्देश्य समाज-सुधार रखा। वे धार्मिक अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, निरर्थक कर्मकांड, जातिवाद, सम्प्रदायिकता, बालविवाह आदि सामाजिक बुराइयों के घोर विरोधी थे और जीवन भर इन बुराइयों से समाज को मुक्त करने के लिए संघर्ष करते रहे।
9. राष्ट्रप्रेम की भावना -
दयानन्द सरस्वती भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक पराभव से अत्यंत ही दुखी थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम 'स्वराज्य' एवं 'स्वदेशी' जैसे शब्दों का प्रयोग किया। उनकी राष्ट्रप्रेम की शिक्षा ने वस्तुतः स्वतंत्रता सेनानियों की लम्बी श्रृंखला खड़ी कर दी।
10. हिन्दी भाषा का उत्थान-
स्वामी दयानन्द ने हिन्दी का सीखना सबों के लिए अनिवार्य कर दिया था। वे हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने चाहते थे। वे इसे राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक मानते थे । प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के शब्दों में "भारत की एकता के प्रति उनकी ममता इतनी गहरी थी कि उन्होंने अपने ग्रन्थों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद करवाने का प्रस्ताव इसलिए अस्वीकार कर दिया था कि वे तो उस दिन को देखना चाहते थे जबकि आर्यभाषा हिन्दी ही भारत की सर्वमान्य भाषा होगी और इसी राष्ट्रभाषा के माध् यम से देश के लोग अपने विचारों का आदान-प्रदान करेंगे।"
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार पाठ्यक्रम
- स्वामी दयानन्द बच्चे की शिक्षा की शुरूआत माता के गर्भ से ही मानते हैं। उनका मानना था कि जब शिशु गर्भ में हो तो माता को सात्विक विचारों और कार्यों में लीन होना चाहिए ताकि शिशु का शारीरिक एवं मानसिक विकास उचित ढंग से हो सके और स्थिर चित्त की नींव रखी जा सके।
- एक से पाँच वर्ष तक की उम्र के बच्चों के लिए स्वामी जी ने माता को सर्वाधिक उपयुक्त अध्यापक माना है। इस काल में बच्चों में स्वस्थ आदतों का विकास, सद्- आचरण की शिक्षा और भाषा के विकास पर जोर देना चाहिए। देवनागरी अक्षरों का अभ्यास कराया जाना चाहिए तथा अन्य भाषाओं के अक्षरों का भी शिक्षण करना चाहिए।
- पाँच से आठ वर्ष तक की उम्र के बच्चों की शिक्षा में पिता की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यह 'शिक्षारम्भ' की अवधि है अतः बच्चों को शुद्ध उच्चारण, मान्य आचरण, महत्वपूर्ण श्लोकों को कंठस्थ करने की शिक्षा देनी चाहिए।
- जब बालक-बालिका आठ वर्ष के हो जायें तब उन्हें शिक्षा हेतु विद्यालय भेजा जाये ।
- विद्यालयी शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्वामी जी ने शुद्ध उच्चारण पर काफी जोर दिया। अतः प्रथम विषय के रूप में उन्होंने पाणिनी के ध्वनि सिद्धान्त को मान्यता दी। इसके उपरांत संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देनी चाहिए। व्याकरण में अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, अनादि कोष और महाभाष्य को रखा गया । 11 वर्ष की आयु पूरी करने के उपरांत यास्क के निघुंट और निरुक्त की शिक्षा देने का प्रावधान किया गया। इसी समय पिंगलाचार्य द्वारा लिखे छन्द ग्रन्थ को पढ़ाया जाये तथा विद्यार्थियों को छन्दों का ज्ञान और श्लोक रचना की विधि सिखाई जाये। साथ ही मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, विदुर नीति और महाभारत के चुने हुए अंशों की शिक्षा देने की व्यवस्था की जाये। तेरह से पन्द्रह वर्ष की आयु के बीच षट्दर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त) की शिक्षा दी जाये । वेदान्त के अध्यापन के पूर्व प्रमुख उपनिषदों को पढ़ा जाना चाहिए।
- पन्द्रह से बीस - इक्कीस वर्ष के मध्य वेदों का अध्ययन किया जाना चाहिए। वेदों के अध्ययन के उपरांत उपवेद पढ़ाने का प्रावधान था । उपवेद के अध्ययन के उपरांत भौतिक दृष्टि से उपयोगी बीजगणित, रेखागणित, भूगोल, भूतत्व विद्या, खगोल विद्या आदि का अध्ययन कराया जाये। साथ ही राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विधि, भूगोल, शिल्पकला, गायन आदि की भी शिक्षा होनी चाहिए।
- इस तरह से स्वामी जी ने एक विस्तृत पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार की। वे आर्यभाषा हिन्दी की शिक्षा सबों को अनिवार्य रूप से देने के हिमायती थे। साथ ही वे देश-विदेश में उपलब्ध हर प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने की सलाह देते थे पर उनका यह स्पष्ट आग्रह था कि हम अपनी संस्कृति की अच्छाइयों को विस्मृत न करें।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार शिक्षण विधि
- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिक्षण विधि में प्रायः वैदिक विधियों की ही संस्तुति की है। उपदेश या व्याख्यान, प्रवचन, स्वाध्याय, शब्दार्थ, व्युत्पत्ति, व्याकरण, अनुवाद को स्वामी जी ने महत्वपूर्ण माना। वे वैदिक काल की ही तरह ज्ञान प्राप्त करने के तीनों सोपानों को महत्वपूर्ण मानते है। ये हैं: श्रवण, मनन, निदिध्यासन । ये तीन स्तर पूरी शिक्षा व्यवस्था को वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने शिक्षा एवं ज्ञान के प्रसार में जिस विधि का सर्वाधिक प्रयोग किया वह है तर्क विधि या वाद-विवाद विधि । पर उन्होंने तर्क या वाद-विवाद विधि का प्रयोग किसी को पराजित करने के उद्देश्य से न कर सत्य के उद्घाटन हेतु किया। वे स्वयं कहते हैं "वाद-विवाद को प्रयोजन सत्यानवेषण है न कि किसी मत या धर्म को पराजित करने का भाव।" वे ज्ञान एवं धर्म के प्रचार-प्रसार में दुराग्रह के विरूद्ध थे। उनका दृढ़ मत था "हमें स्वमत के आग्रह को छोड़कर सत्य जिज्ञासा के भाव से ही विचार में प्रवृत्त होना चाहिए।" इस प्रकार स्वामी दयानन्द में तर्क, जिज्ञासा एवं सत्य तक पहुँचने की प्रबल इच्छा स्पष्टतः दिखती है।
- दयानन्द सरस्वती भौतिक जगत को प्रत्यक्षानुभव विधि से समझने पर जोर देते थे। वे इन्द्रिय, मन और आत्मा को एक दूसरे से सम्बन्धित मानते थे। अतः उनका यह अवलोकन एवं परीक्षण द्वारा भौतिक जगत को समझना उपयोगी है।
- दयानन्द स्वयं एक योगी थे इसलिए वे शिक्षा में व्यावहारिक विधि के महत्व को अच्छी तरह समझते थे। उनका यह मानना था कि आचरण, व्यायाम, खेल-कूद, संगीत, आयुर्वेद, शिल्पों आदि की शिक्षा व्यावहारिक या प्रायोगिक विधि द्वारा ही दी जा सकती है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार शिक्षा का माध्यम: देशी भाषायें-
स्वामी दयानन्द सरस्वती अंग्रेजी सीखने के विरूद्ध नहीं थे पर उनका मानना था कि बच्चों की शिक्षा भारतीय भाषा के माध्यम से ही होनी चाहिए। वे हिन्दी की शिक्षा पूरे भारत में अनिवार्य करना चाहते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रयासों के फलस्वरूप ही उच्च शिक्षा तक का माध्यम देशी भाषायें बन सकीं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के कारण ही सबसे पहले आर्यसमाज ने यह आवाज उठायी कि शिक्षा का माध्यम देशी भाषाएँ होनी चाहिए। स्वामी दयानन्द के योग्य शिष्य महात्मा मुंशी राम ने इस सम्बन्ध में गुरूकुल कांगड़ी के माध्यम से अनेक क्रियात्मक परीक्षण किये। यहाँ के स्नातकों ने वैज्ञानिक विषयों पर भौतिक ग्रन्थ लिखे । पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया। यहीं पर सबसे पहले हिन्दी के माध्यम द्वारा वैज्ञानिक विषयों की उच्च शिक्षा देना प्रारम्भ किया गया और हिन्दी में विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों के आभाव को भी दूर करने का सफल प्रयत्न किया। रसायन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, विद्युत शास्त्र, भौतिक और रसायन विज्ञान जैसे विषयों की पाठ्य पुस्तकें तैयार की। विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में अनुवादों द्वारा हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले विद्वानों में भी गुरूकुल के स्नातक प्रमुख रहे हैं। दयानन्द के शिष्यों ने यह प्रमाणित करके कि हिन्दी के माध्यम से किसी भी विषय में उच्च से उच्च शिक्षा दी जा सकती है, बड़े-बड़े अधिकारियों को चकित कर दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने कहा "मातृभाषा द्वारा उच्च शिक्षा देने के परीक्षण में गुरूकुल को अभूतपूर्व सफलता मिली।"
यही सब देखकर महात्मा गाँधी ने महामना पं0 मदन मोहन मालवीय से कहा था:
"गंगा के किनारे, हरिद्वार के जंगलों में गुरूकुल खोलकर जब स्वामी श्रद्धानन्द हिन्दी के माध्यम से उच्च शिक्षा दे सकते हैं तो वाराणसी की गंगा के किनारे बैठकर आप इन बच्चों को टेम्स का पानी क्यों पिला रहे हैं?"
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1882 ई० में जगह-जगह पर संचालित आर्यसमाज की शाखाओं से आग्रह किया कि वे भारतीय शिक्षा आयोग ( हन्टर आयोग) के समक्ष पाठशालाओं में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के पक्ष में आवेदन पत्र जमा करें। आर्यसमाज के सद्प्रयासों से ही स्कूलों और कचहरियों में देवनागरी लिपि में लिखी जा रही हिन्दी भाषा को स्थान मिल पाया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्त्री शिक्षा
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक काल की विदुषी आर्य नारियों का उदाहरण देते हुए कहा कि पुरुषों की तरह नारियों को भी हर प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। लड़कियाँ स्वतंत्र रूप से, लड़कों की ही तरह, शिक्षा प्राप्त कर सकें इसके लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। उनके इन सद्प्रयासों की सराहना करते हुए विरादरे हिन्द ( 1 जुलाई, 1877 ) में लिखा गया :
" यद्यपि उन्होंने संस्कृत साहित्य के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का साहित्य नहीं पढ़ा है तथापि उन्होंने अपने विचारों को इतना परिमार्जित और विकसित कर लिया है कि वे अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों के विचारों से भी उत्तम विचार रखते हैं। केवल धार्मिक सुधार पर ही नहीं वरन् बाल-विवाह आदि सब बुराइयों पर भी उनकी दृष्टि है। स्त्रियों की स्वतंत्रता और शिक्षा के वे विशेष इच्छुक हैं। अविद्या, हठ, दुराग्रह को दूर करना, विद्या का प्रचार करना, जाति में एकता उत्पन्न करना- इनका अंतिम ध्येय है।"
स्वामी दयानन्द सरस्वती बालक-बालिका को समान शिक्षा देने के पक्षधर थे पर वे सहशिक्षा के पक्ष में नहीं थे। उनका कहना था कि आठ वर्ष के उपरांत लड़के-लड़कियों को अलग-अलग विद्यालयों में पढ़ाया जाना चाहिए। लड़कियों के विद्यालय में सभी अध्यापक महिलायें हो और लड़कों के स्कूल में पुरूष । लड़के और लड़कियों की पाठशालाओं में वे न्यूनतम दो कोस की दूरी चाहते थे। लड़के-लड़कियाँ वाचा - मनसा एवं कर्मणा ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें इसलिए उन्होंने सहशिक्षा का विरोध किया ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार अध्यापकों का दायित्व
- स्वामी दयानन्द सरस्वती नैतिक रूप से चरित्रवान एवं वैदिक जीवन पद्धति पर चलने वाले व्यक्ति को ही अध्यापक के रूप में देखना चाहते थे। ताकि अध्यापक छात्रों को यज्ञ, सन्ध्योपासन, प्राणायाम आदि की शिक्षा एवं प्रशिक्षण उचित ढंग से दे सके। वे संस्कृत - विद्वान सन्यासी को अध्यापक बनाने के पक्ष में थे, ताकि वह अपने दायित्वों का कुशलता पूर्वक निर्वहन कर सकें।
- स्वामी जी का मानना था कि अध्यापक ही शिक्षा के लिए उचित वातावरण का निर्माण करता है और वही शिक्षा के सारे उद्देश्यों को पूरा करने का माध्यम है अतः अध्यापकों को सर्वगुण सम्पन्न एवं निष्काम भाव से कार्य करने वाला होना चाहिए। उसे अपने विद्यार्थियों के सामने अपने आचरण से ऐसे आदर्श उपस्थित करने चाहिए कि विद्यार्थी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकें। स्वामी दयानन्द कहते थे कि अध्यापक जो आदर्श शिष्यों के समक्ष रखता है. उसे पहले अपने जीवन में उतारें। शिक्षक को सद्आचरण करने वाला होना चाहिए ताकि वह विद्यार्थी, अभिभावक एवं समाज के सम्मान का पात्र बन सके। स्वामी दयानन्द गुरु के पद को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि बिना गुरु के सही ज्ञान मिल नहीं सकता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार विद्यार्थियों के कर्तव्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विद्यार्थियों को अहंकार शून्य होकर, गुरू के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का निर्देश दिया। गुरु के प्रति शिष्यों में पूज्य भाव का होना आवश्यक है। शिष्य गुरू से तभी सीख सकता है जब वह जिज्ञासु हो, सत्य और शुद्ध आचरण करने वाला हो तथा एकाग्र चित्त से अध्ययन करे। ये तैत्तिरीय उपनिषद में समावर्तन संस्कार के समय दिये जाने वाले उपदेश का पालन करने की छात्रों को सीख देते हैं। "सत्यं वद । धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा प्रमदा।... मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । आचार्य देवो भव । " अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में प्रमाद न करो, माता, पिता, और गुरू देवताओं की तरह पूज्य हैं।
प्राचीन काल की ही तरह स्वामी दयानन्द सरस्वती गुरू-शिष्य के मध्य पिता-पुत्र जैसा घनिष्ट सम्बन्ध के पक्षधर थे। वे सत्य, शिव एवं ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरू-शिष्य सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आवश्यक मानते थे। गुरू का यह कर्तव्य है कि वह छात्रों के शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास को सुनिश्चित करें तथा गुरूकुल में आने वाले विद्यार्थियों का भी कर्तव्य है कि गुरूकुल में गुरु के उपदेशों एवं आज्ञाओं का पालन करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्जन करें ।
गुरूकुल एवं दयानन्द - एंग्लो-वेदिक (डी०ए०वी०) विद्यालय
स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा। दयानन्द के समर्थकों ने दो तरह की शिक्षा संस्थायें स्थापित की - गुरुकुल और दयानन्द एंग्लो वेदिक विद्यालय एवं महाविद्यालय ।
गुरुकुल व्यवस्था दयानन्द सरस्वती के मूल विचारों पर आधारित है। पहला गुरूकुल दिल्ली के समीप सिकन्दराबाद में खोला गया। बाद में वृन्दावन में यमुना के किनारे इसे स्थानान्तरित कर दिया गया। यह वृन्दावन गुरूकुल के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
सर्वाधिक प्रसिद्धि हरिद्वार के समीप स्थित गुरूकुल कांगड़ी को प्राप्त है। इसकी स्थापना स्वामी दयानन्द के योग्य शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। यहाँ पर भारतीय भाषा हिन्दी के माध्यम से उच्चतम एवं नवीनतम ज्ञान देने की शुरूआत की गई। और इस कार्य में इस विश्वविद्यालय ने अभूतपूर्व सफलता पाई। कन्याओं के लिए देहरादून, बड़ौदा और सासनी (अलीगढ़) के गुरूकुल बड़े प्रसिद्ध हैं । इन गुरुकुलों में वैदिक ज्ञान-विज्ञान, संस्कृत भाषा और साहित्य पर विशेष जोर दिया जाता है। ये गुरूकुल वैदिक काल की मर्यादाओं को जीवन्त करते हैं ।
आर्यसमाज के ही एक दूसरे पक्ष ने लाल हंसराज के नेतृत्व में दयानन्द एंग्लो ओरिएन्टल विद्यालयों का सम्पूर्ण देश में जाल बिछा दिया। ये दयानन्द के विचारों को स्वीकार करते हुए अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्राचीन एवं नवीन दोनों ही तरह का ज्ञान देते थे। डी०ए०वी० संस्थायें राष्ट्रभक्ति की शिक्षा देती थी। अंग्रेजी शासन के दौर में गुरूकुलों एवं डी०ए०वी० संस्थाओं को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था। स्वतंत्र भारत में भी ये दोनों तरह की संस्थायें अपनी-अपनी भूमिका निभा रही हैं।
Post a Comment