स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-दर्शन (जीवन-दृष्टि) | Dayananda Saraswati Life Philosophy

स्वामी दयानन्द सरस्वती का  जीवन-दर्शन (जीवन-दृष्टि)

स्वामी दयानन्द सरस्वती का  जीवन-दर्शन (जीवन-दृष्टि) | Dayananda Saraswati Life Philosophy


स्वामी दयानन्द सरस्वती का  जीवन-दर्शन (जीवन-दृष्टि)

  • दयानन्द सरस्वती ब्रह्म को निराकारसर्वव्यापकसर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ मानते हैं। साथ ही वे जीवात्माओं एवं पदार्थों के स्वतंत्र अस्तित्व को भी स्वीकार करते है। उनके अनुसार ब्रह्म या ईश्वर इस ब्रह्माण्ड का कर्ता हैपदार्थ जन्य इसके उपादान का कारण है और जीवात्माएँ इसके सामान्य कारण। अर्थात् पदार्थ जन्म जगत भी वास्तविक हैयर्थाथ है। दयानन्द मूर्तिपूजा के घोर विरोधी तथा एकेश्वरवाद के कट्टर समर्थक थे । वे परमात्मा और जीवात्मा को दो अलग तत्व मानते हैं। इनके अनुसार परमात्मा सर्वव्यापक और आत्मा सीमित है। परमात्मा ही विश्व का सृजनपोषण और नियमन करता है। जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोगता है। कर्म-भोग के अंत को ही ये मुक्ति मानते हैं। कर्म भोग से मुक्ति के उपरांत आत्मा पुनः परमात्मा में मिल जाती है।

 

  • स्वामी दयानन्द सरस्वती वस्तु जगत और आध्यात्मिक जगत दोनों ही तरह के ज्ञान को महत्त्व प्रदान करते हैं। वे वस्तु जगत के ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते है और आध्यात्मिक जगत के ज्ञान को सद्ज्ञान कहते हैं। दयानन्द सद्ज्ञान को सर्वोच्च ज्ञान मानते हैंजो वैदिक ग्रंथों में निहित है। पर हर ज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसना दयानन्द की विशेषता थी । 


दयानन्द ने ज्ञान और कर्म को मुक्ति का साधन माना । दयानन्द की आचार-संहिता अत्यन्त ही स्पष्ट थी। उन्होंने अशुद्ध ज्ञान एवं अकरणीय कार्य को 'आठ गप्पकहा। ये हैं:

 

1. मनुष्यकृत पुराणादि ग्रन्थ 

2. पाषाणादि पूजन 

3. वैष्णवादि सम्प्रदाय

4. तन्त्र ग्रन्थों में वर्णित वाम मार्ग 

5. भाँग आदि नशे 

6. पर स्त्री गमन 

7. चोरी 

8. कपटछल एवं अभिमान ।

 

सद्ज्ञान एवं करने योग्य कार्य को स्वामी दयानन्द ने 'आठ सत्यके नाम से पुकारा । ये हैं:

 

1. ईश्वर रचित वेदादि 21 शास्त्र 

2. ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके गुरूसेवा और अध्ययन 

3. वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए संध्यावन्दन करना 

4. पंच महायज्ञ करते हुए श्रौत स्मार्तादि द्वारा निश्चित आचार का पालन करना 

5. शम दम नियम आदि का पालन करते हुए वानप्रस्थ आश्रम का ग्रहण 

6. विचारविवेकवैराग्यपराविज्ञा का अभ्याससन्यास ग्रहण 

7. ज्ञान - विज्ञान द्वारा जन्म-मरण शोक - हर्षकामक्रोध आदि सब दोषों का त्याग 

8. तम-रज का त्यागसतोगुण का ग्रहण

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती  आर्यसमाज के नियम 

इन आठ सत्यों के ही आधार पर ही स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज के नियम एवं उद्देश्य निश्चित किए। ये हैं:

 

1. सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है । 

2. ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप निराकारसर्वशक्तिमानन्यायकारीदयालुअजन्माअनन्तनिर्विकार

अनादिअनुपमअजरअमर, अभयनित्यपवित्र और सृष्टिकर्ता हैउसी की उपासना करनी चाहिए । 

3. वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। 

4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये । 

5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करना चाहिये । 

6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है- अर्थात् शारीरिकआत्मिक और सामाजिक उन्नति करना । 

7. सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये । 8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये । 

9. प्रत्येक को अपनी उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहियेकिन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये । 

10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम का अवश्य पालन करना चाहिये ।

 

स्वामी दयानन्द का  तर्क को महत्त्व 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धर्म में भी तर्क को महत्व प्रदान किया। वे कहते हैं "कुछ लोग नदियोंगंगा इत्यादि की पूजा करते हैंकुछ सितारों कीकुछ लोग मिट्टी और पत्थर की मूर्तियां पूजते हैं लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति का परमात्मा उसके हृदय मेंउसकी अपनी आत्मा में वास करता है। परमात्मा को मानव अस्तित्व की गूढ़तम गहराइयों में पाया जा सकता है। उन्होंने तर्क के नियम पर बल दिया और बताया कि श्रद्धा के आधार पर कुछ भी स्वीकार न करोबल्कि जांचोपरखो और निष्कर्ष पर पहुँचो ।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती - पुरूष - नारी समानता के पक्षधर

 

दयानन्द सरस्वती ने स्त्री और पुरूष समानता के नियम की व्याख्या की। उन्होंने कहा "ईश्वर के समीप स्त्री-पुरूष दोनों बराबर है क्योंकि वह न्यायकारी है। उसमें पक्षपात का लेश नहीं है। जब पुरुष को पुनर्विवाह की आज्ञा दी जाए तो स्त्रियों को दूसरे विवाह से क्यों रोका जाये।.. पुरूष अपनी इच्छानुसार जितनी चाहे उतनी स्त्रियाँ रख सकता है। देशकालपात्र और शास्त्र का कोई बन्धन नहीं रहा। क्या यह अन्याय नहीं हैक्या यह अधर्म नहीं है?"

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार सामाजिक समानता के समर्थक 

स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान समाज सुधारक थे। उनमें जेहाद का जोश थाप्रखर बुद्धि थी और जब वह सामाजिक अन्याय देखते तो उनके हृदय में आग जल उठती थी। वे बार-बार कहते थे- "अगर आप आस्तिक हैं तो सभी आस्तिक भगवान के एक परिवार के सदस्य हैं। अगर आपका परमात्मा में विश्वास है तो प्रत्येक मनुष्य उसी परमात्मा की एक चिनगारी है। इसलिए आप प्रत्येक मानव-प्राणी को अवसर दीजिए कि वह अपने को पूर्ण बना सके। "

 

इस प्रकार दयानन्द मानव-मानव में कोई भेद नहीं मानते थे चाहे वह जाति के आधार पर हो या धर्म के आधार पर ।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार  राष्ट्रीयता के पोषक 

  • देश के प्रति उनके मन में अगाध ममता थी। सत्य की तलाश में नगरवनपर्वत सभी कहीं घूमते-घूमते उन्होंने जनता की दुर्दशा और जड़ता को देखा था । भारत राष्ट्र की दुर्दशा से स्वामी जी अत्यधिक आहत थे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने में लगा दिया। वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थेगुजराती उनकी मातृभाषा थी पर राष्ट्र की एकता को मजबूत करने हेतु उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से ही अपना उपदेश देना प्रारम्भ किया और इसी भाषा में अपनी पुस्तकें लिखी । हिन्दी भाषा के प्रति ऐसी अटूट निष्ठा किसी दूसरे भारतीय मनीषी या नेता में मिलना कठिन है। स्वामी जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी और स्वराज्य जैसे शब्दों का प्रयोग किया। दादाभाई नरौजी ने स्पष्ट कहा है कि उन्होंने स्वराज्य शब्द दयानन्द सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश से सीखा है । दयानन्द सरस्वती से श्यामजी कृष्ण वर्मालाला लाजपत रायस्वामी श्रद्धानन्दडॉ० सत्यपालरामप्रसाद बिस्मिलभगत सिंह आदि ने प्रेरणा पाई और वे भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राण तक उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो गए। 

  • अतएव एक भगवान की पूजाजातिरंग और धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर मनुष्य की सेवा तथा स्वदेशी भावना का विकास - तीन बुनियादी सिद्धान्त थे जिनकी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने स्थापना की। न सिर्फ स्थापना की बल्कि देश भर में उनका प्रचार भी किया। आर्यसमाज अनेक ऐसी संस्थायें चलाती हैं जो इन सिद्धान्तों को कार्यान्वित करती हैं।

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