गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन शिक्षा के उद्देश्य | Education Philosophy of Gurudev Rabindranath Tagore

 गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन शिक्षा के उद्देश्य | Education Philosophy of Gurudev Rabindranath Tagore


 

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन 

अनेक विद्वान रवीन्द्रनाथ टैगोर को एक क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्री के रूप में देखते हैं। उनका शिक्षा दर्शन और शिक्षा विधि इतना अर्थपूर्ण और उपयोगी है कि उन्हें अलग से भी देखा जाये तो उनका महत्व कम नहीं होता है।

 

शिक्षा संबंधी गुरूदेव के मूल विचार उनके प्रसिद्ध लेख 'तपोवन' (1909) में देखे जा सकते हैं। उनके शिक्षा दर्शन का निर्माण मूलतः भारतीय दार्शनिक परम्परा विशेषतः उपनिषदों द्वारा हुआ था गुरूदेव पर प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धति का गहरा प्रभाव था उनके विचारों की झलक ‘तपोवन', 'तपस्या', 'आश्रम', 'संगम', 'ब्रह्मचर्यजैसे महत्वपूर्ण शब्दों के प्रयोग में मिलती है। इस दृष्टि से रवीन्द्रनाथ टैगोर निश्चित रूप से आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री कहे जा सकते हैं। उनका मानना था कि ईश्वर ने अपनी योजना के तहत ही बच्चे को नैसर्गिक प्रतिभा प्रदान कर धरती पर भेजा है। टैगोर बालकों में उदात्त भावनाओं को जागृत कर उन्हें आध्यात्मिक भूमि पर लाना चाहते थे।

 

टैगोर को कुछ विद्वान प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्री मानते हैं पर टैगोर का प्रकृतिवाद पश्चिम के प्रकृतिवाद से बिल्कुल भिन्न है। गुरूदेव के शैक्षिक सिद्धान्त का सार मनुष्य और प्रकृति के बीच अध्यात्मिक एकता है। टैगोर की दृष्टि में बच्चों का विकास नैसर्गिक रूप से प्रकृति की गोद में होना चाहिए । टैगोर पर रूसो एवं अंग्रेजी रूमानी कवियोंजैसे शेली और वर्ड्सवर्थ का प्रभाव देखा जा सकता है। वे कहा करते थे कि "शिक्षा फैक्टरी में काम करने की दक्षता हासिल करने के लिए नहीं हैऔर न ही विद्यालयों और महाविद्यालयों में परीक्षा में पास करने के लिए है। सच्ची शिक्षा तपोवन में प्रकृति के साथ एकरूप हो तपस्या के माध्यम से शुद्ध होकर ही प्राप्त की जा सकती है।"

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार बच्चे की स्वतंत्रता 

गुरूदेव के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी लक्ष्य प्राप्ति के लिए होता है। प्रत्येक बालक अपनी लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में बढ़ सकेइसके लिए उसे योग्य बनाना शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने अपनी दो कविताओं पॉवर ऑफ अफेक्सन तथा बंगमाता में इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि हर बच्चे का अपना व्यक्तित्व होता हैजिसके विकास को किसी भी संस्था द्वारा बाधित नहीं किया जाना चाहिए। यह आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त को दर्शाता है। माँ को बच्चे को अपने गर्भ के कैद से मुक्त करने के उपरांत अपने स्नेह के कारागार में बंद न कर स्वतंत्र रूप से विकसित होने का अवसर देना चाहिए। उनकी दृष्टि में हर बच्चा स्वंय कावसुधा का तथा सार्वभौम सत्ता (ईश्वर) का है। हर व्यक्ति को मानव होने का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए।

 

गुरूदेव टैगोर के अनुसार शिक्षा केवल वही नहीं है जिसे विद्यालय में दी जाती है- न ही कुछ इस तरह की चीज है जिसे प्रत्येक सप्ताह कुछ ही घंटो में दे दी जा सकती है। शिक्षा को व्यक्तित्व के अन्य पक्षों से अलग वस्तु मानना गलत है।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर- भारतीय शैक्षिक परम्परा के पक्षधर 

अपने व्यक्तिगत अनुभव से रवीन्द्रनाथ ने अनुभव किया कि पश्चिमी / अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य औपनिवेशिक शासन हेतु कर्क तैयार करना था और जहाँ तक संभव हो तथाकथित शिक्षित भारतीयों में भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रति हीनता की भावना पैदा करना था। 

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत की गरीबी और पश्चिमी देशों की समृद्धि देखी थी। उन्होंने महसूस किया कि भारत इन देशों से बहुत कुछ सीख सकता है। इसके बावजूद उनकी जड़ें भारतीय संस्कृति और परम्परा में जमी रहीं। शिक्षा और संस्कृति (1935) में उन्होंने लिखा-

 "जब भारत की संस्कृति अपने सर्वोच्च अवस्था में थी वह कभी धन की कमी के कारण हतोत्साहित या शर्मिन्दा नहीं हुई। इसका कारण यह था कि उस संस्कृति का उद्देश्य आत्मिक जीवन का विकास करना थाभौतिक सम्पदा का संग्रहण नहीं। शिक्षा का उद्देश्य इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होना चाहिए. इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर विभिन्न विषयों का शिक्षण किया जाना चाहिए। वह इसलिए कि मानव का स्तर या सम्मान व्यवहारिकता तथा सामाजिक कल्याण के समन्वय पर निर्भर करता है।"

 

आधुनिक शिक्षा की मशीनों पर निर्भरता के कविवर विरोधी थे। वे इसे शिक्षा के लिए हानिप्रद मानते थे। उनका कहना था कि जीवित पांच किसी भी वाहन से अधिक महत्वपूर्ण है शिक्षा ऐसी हो जो पांव यानि मानव को मजबूत बनाये मशीन को नहीं ।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना 

गुरूदेव में अर्न्तराष्ट्रीयता की भावना कुट-कूट कर भरी थी । यूरोप की अच्छाईयों को ग्रहण करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी। वे कहते है हमलोग यह कहने के लिए व्यग्र हो जाते है कि हम सबकुछ जानते है।" जबकि हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहना चाहिए कि "हम सब कुछ कर सकते है । आज यूरोप का यही धर्म बन गया है। उनके आत्मसम्मान की कोई सीमा नहीं है। उन्होंने जलधरती और आकाश सब पर विजय प्राप्त कर लिया है। दूसरी ओर हमलोग ईश्वर से प्रार्थना भर करते रहे। फलतः देवताओं ने भी हमे धोखा दिया। लेकिन वे यूरोपीय सभ्यता के अंधभक्त भी नहीं थे। उनका माना था कि सभी आधुनिक भौतिक साधनों के बावजूद बिना सांस्कृतिक चेतना के मानव जीवन व्यर्थ है।

 

परम्परागत विद्यालयों में ईश्वर की योजना एवं बच्चे के व्यक्तित्व की विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना वर्कशाप की तरह सभी बच्चों को एक सा बनाने का प्रयास किया जाता है अगर कहीं से विरोध होता है तो अनुशासन के नाम पर उस आवाज को दबा दी जाती है। कविवर के अनुसार जीवन इस तरह से सीधी रेखा में नहीं चलता। रवीन्द्रनाथ के अनुसार विद्यालय शिक्षा देने की विशेष संस्था है। यह प्रौढ़ों के लिए तो उपयुक्त हो सकता है पर बच्चों के लिए नहीं बच्चे तपस्वी नहीं हैं जो पाठशाला रूपी मठ में प्रवेश लेकर तत्काल शिक्षा ग्रहण करने लगे ।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार सूचना शिक्षा नहीं 

गुरुदेव शिक्षा में सूचनाओं को इकट्ठा करने की प्रवृत्ति के विरोधी थे। उनका कहना था कि "हमलोग पृथ्वी पर इस दुनिया को स्वीकार करने आये हैकेवल जानने के लिए नहीं। हम ज्ञान के द्वारा शक्तिशाली बन सकते है पर सहानुभूति के द्वारा हम सम्पूर्णता को प्राप्त कर सकते है सर्वोच्च शिक्षा यह है जो हमें केवल सूचनांए ही नहीं देता है वरन् हमारे जीवन को सम्पूर्ण वसुधा से जोड़ता है पर हम पाते है कि वर्तमान शिक्षा सहानुभूति की न केवल लगातार योजनाबद्ध ढंग से उपेक्षा करती है वरन् दबाती भी है। प्रारंभ से ही बच्चे को प्रकृति से अलग कर दिया जाता है। बच्चे से हम उसकी पृथ्वी छिन लेते हैं भूगोल पढ़ाने के लिए वाणी छिन लेते है व्याकरण पढ़ाने के लिए उसकी भूख महाकाव्यों की कथाओं की है पर हम उसे ऐतिहासिक तथ्यों की सारणी एवं तिथियां परोसते है। वह मानव जगत में पैदा हुआ पर उसे हम मशीनों की दुनिया में देशनिकाला देते है। बच्चे की प्रकृति इसके विरूद्ध सहने की अपनी पूरी ताकत के साथ विरोध करती है। पर अंत में उसे दण्ड के द्वारा शान्त कर दिया जाता है।" आज शिक्षालय के स्तर को मापने का आधार विद्यालय भवन की भव्यतापुस्तकों की संख्या तथा शैक्षिक उपकरणों की उपलब्धता है जबकि रवीन्द्रनाथ ने शिक्षा के वास्तविक पक्ष पर ध्यान दिया । इन भौतिक सम्पदाओं से लालच एवं स्वार्थ तो फल-फूल सकता है पर सामाजिक मूल्य नहींजो कि सही शिक्षा का लक्ष्य है।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार  शिक्षा के उद्देश्य

 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर बच्चों के सर्वांगीण विकास को शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते थे। टैगोर थोपी हुई शिक्षा के विपरीतप्रकृति के मुक्त वातावरण में बच्चों की इच्छा के अनुरूप शिक्षा देने के पक्षधर थे। 

गुरुदेव मानव के विभिन्न पक्षों का समन्वित विकास चाहते थे। शिक्षा का उद्देश्य मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करना नहीं वरन् बेहतर मानव का निर्माण करना है। इसके लिए मस्तिष्क के साथ-साथ भावात्मक एवं शारीरिक पक्ष के समन्धित विकास का लक्ष्य रखा गया । 

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा एवं प्रशिक्षण के द्वारा भारतीय ग्राम्य संस्कृति को पुनः जीवित कर शक्तिशाली बनाना चाहते थे इसके लिए उन्होंने कृषिग्रामोद्योग आदि की शिक्षा पर काफी बल दिया । रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा के द्वारा मानव और प्रकृति के आदि सम्बन्ध को और मजबूत करना चाहते थे । वे मानव को शिक्षा के द्वारा प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते थे । 

गुरूदेव आत्म अनुशासन पर बल देते थे। वे हिंसा के द्वारा बच्चों पर अनुशासन थोपने के खिलाफ थे। शान्तिनिकेतन में बच्चों को स्वतंत्रता देने के पीछे इसी स्वअनुशासन का सिद्धान्त काम करता था ।

 

गुरुदेव शिक्षा द्वारा प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृतियों में सहयोग चाहते थे। प्राच्य जगत पश्चिम का विज्ञान एवं तकनीक ग्रहण करे तथा पाश्चात्य जगत को अपनी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक वैभव प्रदान करे ।

 

गुरूदेव शिक्षा के द्वारा बालकों एवं युवकों का नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास चाहते थे। वे इसके लिए युवकों को तपस्या एवं भक्ति के मार्ग का अवलम्बन करने का सुझाव देते हैं। नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास ही मानव को सच्चे अर्थों में स्वतंत्र कर सकता है।

 

युद्धरत मानव समाज में सहयोग एवं सामन्जस्य का भाव विकसित करने के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर छात्रों एवं अध्यापकों में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना चाहते थे।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम 

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पाठ्यक्रम के संदर्भ में व्यवस्थित विचार नहीं दिए पर उनकी रचनाओं एवं कार्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने के पक्षधर थे ताकि जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सके। वे मानवीय एवं सांस्कृतिक विषयों को महत्वपूर्ण स्थान देते है । विश्वभारती में इतिहासभूगोलविज्ञानसाहित्यप्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती हैसाथ ही अभिनयक्षेत्रीय अध्ययनभ्रमणड्राइंगमौलिक रचनासंगीतनृत्य आदि की भी शिक्षा दी जाती है।

 

विश्वभारती में प्राच्य संस्कृतियों के अध्ययन पर विशेष जोर दिया गया। चीन की शिक्षा का अलग पाठ्यक्रम है। विभिन्न भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था है। रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा को पुस्तक केन्द्रित बनाने के विरोधी थे वे अनुभव केन्द्रित एवं क्रिया प्रधान शिक्षा पर बल देते थे। छोटे बच्चों पर पाठ्य पुस्तकों के बोझ को वे डालना नहीं चाहते थे। उनके अनुसार प्रकृति से बच्चा जीवन की सही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। ऊँची कक्षाओं में पाठ्य पुस्तकों का प्रयोग किया जा सकता है।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार  शिक्षा के तीन केन्द्र

 

गुरूदेव के शिक्षा सिद्धान्त एवं शिक्षा सम्बंधी कार्यों का गहन विश्लेषण किया जाये तो हम पाते है कि उनके अनुसार मानव के तीन जीवन केन्द्र या शिक्षा केन्द्र है- 

(अ) मानव स्वयंदूसरे सभी से भिन्न एवं विलग

(ब) समुदायजिसमें मानव दूसरों के साथ सहयोग से रहता हैतथा 

(स) प्रकृति या वसुधा - जिसमें कभी मानव स्वंय में रहता है तो कभी दूसरों के साथ जिनमें प्रकृति के समस्त तत्व एवं शक्तियां है- सजीव-निर्जीवगुरू- लघुभैतिक या अध्यात्मिक । 


इन तीनों के मध्य का सम्बन्ध प्रत्येक क्षण परिवर्तित रहने के बावजूद स्थायी होता है। इन तीनों के मध्य का सम्बन्ध जब टूटता है तो व्यक्ति और समाज के जीवन में विकृति आती है। आज प्रकृति और मानव के मध्य सहयोग की जगह संघर्ष एवं शोषण का सम्बन्ध बन गया है। अतः मानव जितना ही अधिक पाता है उतना ही अधिक लालची बन जाता है। गुरूदेव की दृष्टि में शिक्षा के तीनों केन्द्रों में सहयोग रहने पर ही मानव एवं समाज का कल्याण संभव है ।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार सरलता एवं निर्धनता

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार सरल जीवन रचनात्मक जीवन होता है। किसी वस्तु का निर्माण कर के जो आनन्द प्राप्त होता हैउसे बिना परिश्रम किए प्राप्त कर लेने में नहीं। जीने की शैली ऐसी होनी चाहिए कि वह स्वय में शिक्षा बन जाये । उनका यह मानना था कि वास्तविक शिक्षा समृद्धि एवं विलासिता के वातावरण में नहीं मिल सकती हैन ही इसे बिना कठिन परिश्रम के प्राप्त किया जा सकता है। सही शिक्षा स्वंय स्वीकृत निर्धनता से ही आती है।

 

'माई स्कूल (1916) में रवीन्द्रनाथ ने निर्धनता को ऐसी पाठशाला बताया जिसमें बच्चा जीवन का प्रथम पाठ पढ़ता है तथा सर्वोत्तम प्रशिक्षण पाता । सम्पन्न व्यक्ति के बच्चों को भी निर्धनतम माता-पिता के बच्चों की तरह चलना सीखना होता है। निर्धनता हमें जीवन तथा संसार के सम्पूर्ण संपर्क मे लाता है। टैगोर अध्यापकों को दी जाने वाली अत्यंत ही अल्प सुविधाओं के संबंध में कहते है "मैं अपने विद्यालय के महान अध्यापकों को न्यूनतम सुविधायें ही प्रदान करता हूँ इसलिए नही कि यह गरीबी है- वरन् इसलिए कि यह व्यक्ति को विश्व का बेहतर अनुभव प्रदान करता है।" इन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखकर शान्तिनिकेतन का जीवन आरामदायक नहीं बनाया गया।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार  शिक्षा का माध्यम

 

गुरूदेव ने शिक्षा के तीन महत्वपूर्ण माध्यम बताये। ये हैं: मातृभाषासृजन एवं प्रकृति । 

1 मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा 

गुरूदेव ने प्रारम्भ से ही यह महसूस किया कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ने शिक्षित भारतीयों और जनसामान्य के बीच की खाई गहरी कर दी है। साथ ही वे अंग्रेजों द्वारा भारत की परम्परागत शिक्षा को समाप्त करने की दुखद प्रक्रिया से परिचित थे। उनका मानना था कि जब भारतीय मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते थे तो उनका मस्तिष्क चैतन्य एवं क्रियाशील रहता था। अतः उन्होंने मातृभाषा के बजाए माध्यम के रूप में अंग्रेजी के प्रयोग की आलोचना की। कवि एवं अध्यापक रवीन्द्रनाथ भावविह्वल होकर मातृभाषा का समर्थन करते है। वे लिखते है "शिक्षाय मातृभाषा मातृदुग्ध ।" शिक्षा में मातृभाषा माता के दुध के समान है (शिक्षाः 236) । वे तो शिक्षा के उच्चतम चरण तक मातृभाषा लागू करने के पक्ष में थे । यहाँ तक कि वे मातृभाषा की माध्यम से ही अंग्रेजी पढ़ाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने एक प्राइमर इंग्राजी सोपान" लिखा। उनके विचार में औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली गहन अंधेरे में से गुजरती ट्रेन के प्रकाशित डिब्बे के समान थी । कुछ विशेष लोग ही पढ़ पा रहे थे और भारी संख्या में जनता पीछे छूटती जा रही थी (शिक्षा: 216 ) । उनकी दृष्टि में जब तक मातृभाषा माध्यम न बने तब तक शिक्षा का प्रसार नही हो सकता ।

 

गुरूदेव मानते थे कि सफल आत्म प्रकाशन केवल अपनी भाषा के माध् यम से ही हो सकती है। यह समाज के विकास एवं सुप्रबन्ध के लिए आवश्यक है। रवीन्द्रनाथ के अनुसार भारत को मातृभाषा को अपने पुनर्जागरण का प्रतीक बनाना चाहिए। मातृभाषा को उसका उचित स्थान देनागुरूदेव की दृष्टि में अपने आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास को पुनर्स्थापित करना है।

 

सृजन: शिक्षा का श्रेष्ठ माध्यम

 

मानव के जीवन में पूर्णता की हेतु रवीन्द्रनाथ ने शिक्षा में रचनात्मक कार्यों पर अत्यधिक जोर दिया। व्यक्ति एवं प्रकृति के मध्य की एकता को सुदृढ़ करने के अतिरिक्त कलासंगीत एवं साहित्य मानव की असामाजिक व विध्वंसात्मक प्रवृतियों को उचित दिशा प्रदान करती है। कला व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों का विकास कर उसे पूर्ति एवं परितोष का भाव प्रदान करता है। व्यक्तित्व के विकास में लय एवं लालित्य का गुरूदेव ने बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान माना । कला व्यक्ति को प्रकृति के समीप ले जाकर उसमें सौन्दर्यानुभूति बढ़ाती है। रवीन्द्रनाथ शरीरमस्तिष्क तथा हृदय का समन्वित विकास चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कला को शिक्षा का प्रभावशाली माध्यम माना । शिक्षा का एक उद्देश्य आत्म प्रकाशन है। आत्म प्रकाशन हेतु शब्दों के अतिरिक्त रेखाओं एवं रंगोध्वनि एवं लय की भाषा को भी जानना जरूरी है।

 

गुरूदेव ने कला का फाईन आर्ट्स (ललित कला) एवं अप्लायड आर्टस ( प्रयुक्त कला) में विभाजन को गलत माना। वे बौद्धिक पक्ष को अधिक महत्व देने तथा संवेदनात्मक पक्ष की उपेक्षा के विरोधी थे। वे सृजनशील कलाकार को दार्शनिक की तुलना में कम महत्वपूर्ण माने जाने के विरोधी थे।

 

3 प्रकृति शिक्षा का प्रभावशाली माध्यम

 

गुरूदेव के मन में प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा थी । यह श्रद्धा उनके कवि या कलाकार हाने के नाते कम और एक संवेदनशील मानव होने के नाते अधिक थी। मानव के पास इस बात का विकल्प रहता है कि वह पृथ्वी पर रचनात्मक जीवन जिये या विध्वंसात्मक । वह एक बेहतर जीवन शैली का विकास कर सकता है। जिसमें प्रकृति माता है और अन्य सभी जीवों के साथ समन्वय एवं सहानुभूति का व्यवहार करते हुए जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। पर अगर वह अपने को प्रकृति का स्वामी मानता है और उसका शोषण करता है तो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए विनाश का कारण बन सकता है। अतः वे चाहते थे कि मानव प्रकृति के सौन्दर्य एवं दयालुता के प्रति चैतन्य रहे। इस कार्य के लिए प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। शान्तिनिकेतन की स्थानीय नदी कोपाईलाल बालू से ढकी समतल भूमि तथा विस्तृत क्षितिज बच्चों के लिए आर्कषण का केन्द्र था । बच्चा वृक्षोंपशुओंझाड़ियों के मध्य दौड़नाखेलनाकूदना चाहता है। शहर के विद्यालयों की चाहरदीवारी के अन्दर उसे कैद रखना वस्तुतः उसे अशिक्षित बनाए रखना है। ऐसी शिक्षा गुरूदेव की दृष्टि में आत्मा या जीवन रहित होती है. 

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