महात्मा गाँधी का शिक्षा-दर्शन |Education Philosophy of Mahatma Gandhi
महात्मा गाँधी का शिक्षा-दर्शनEducation Philosophy of Mahatma Gandhi
महात्मा गाँधी औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था को भारत के लिए हानिकारक मानते थे। गाँधी जी ने अंग्रेजों द्वारा विकसित शिक्षा पद्धति की तीन महत्वपूर्ण कमियाँ बताई-
(i) यह विदेशी संस्कृति पर आधारित थी, जिसने स्थानीय संस्कृति लगभग समाप्त कर दी थी।
(ii) यह हृदय और हाथ की संस्कृति की उपेक्षा कर पूर्णतः दिमाग तक ही सीमित रहता है।
(iii) विदेशी भाषा के माध्यम से सही शिक्षा संभव नहीं है ।
गाँधी जी ने अंग्रेजी शिक्षा को मानसिक गुलामी का कारण बताया। वे कहते है "अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े है ।" (हिन्द स्वराज ) |
अतः गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी शैक्षिक संस्थाओ के बहिष्कार का आहवान किया। औपनिवेशिक शिक्षा की जगह उन्होंने एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास का प्रयास किया जो मानव श्रम को उसका उचित स्थान देते हुए संवेदनशील हृदय तथा मस्तिष्क का समन्वित विकास कर सके.
गाँधी के अनुसार शिक्षा से अभिप्राय
- महात्मा गाँधी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा "शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य में निहित शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक श्रेष्ठतम शक्तियों का अधिकतम विकास है।" गाँधी जी भारतीय जीवन को - सम्पन्न बनाना चाहते थे। वे व्यक्ति, समाज और देश की राजनैतिक, सुखी-स आर्थिक एवं सामाजिक दासता का विरोध कर स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बन के आकांक्षी थे। अतः शिक्षा को वे सार्वभौमिक रूप में प्रसारित करना चाहते थे । उनका मंतव्य था कि साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है न प्रारम्भ । यह मात्र एक साधन है, जिसके द्वारा स्त्री एवं पुरूष को शिक्षित किया जा सकता है।
- महात्मा गाँधी सच्ची शिक्षा उसे मानते थे जो बालक की आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तियों को विकसित करती है। वे चाहते थे कि शिक्षा द्वारा मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क, हृदय तथा आत्मा की सारी शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो। इन शक्तियों के विकास में समग्र एवं संतुलन की दृष्टि होनी चाहिए। नए भारत का निर्माण श्रम के प्रति निष्ठा एवं संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्तियों से ही हो सकता है।
- गाँधी जी ने शारीरिक श्रम की नैतिकता पर आधारित शिक्षा दर्शन का विकास किया। इसे उपनिवेशवाद के आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभुत्ववादी शोषण के विकल्प के रूप में विकसित किया गया। गाँधी जी स्वतः स्फूर्त संवेदी तरीको से श्रमिकों की मानसिक दुनिया से जुड़े हुए थे। उन्होंने अपना शिक्षा दर्शन ग्रामीण समाज में श्रमिकों के बच्चों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की लय के साथ विकसित किया। शारीरिक श्रम पर उनका जोर अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि श्रमिकों के पास यही एक पूंजी होती है । औद्योगीकरण की प्रक्रिया में श्रम को विमानवीय किया जाता है और उसे खरीद बिक्री की वस्तु बना दिया जाता है। गाँधी जी की दृष्टि में आधुनिक मशीनी सभ्यता अनैतिक थी और अन्ततः विनाश की ओर ले जाएगी। विनाश की इस प्रक्रिया को जड़ से समाप्त करने के एवं भारत के नवनिर्माण हेतु उन्होंने बुनियादी शिक्षा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। यह जनता के स्वराज हासिल करने के लिए जनता की शिक्षा का राष्ट्रीय कार्यक्रम था.
महात्मा गाँधी का बुनियादी शिक्षा या नई तालीम का सिद्धान्त
महात्मा गाँधी ने अपने शिक्षा- सिद्धान्त का विकास दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान किया। सर्वोदय के सिद्धान्त के अनुरूप उन्होंने भारतीयों के सहयोगपूर्ण जीवन के लिए टाल्स्टॉय आश्रम की स्थापना की। बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था गाँधी जी ने स्वयं की। वे आत्मकथा में लिखते है कि अक्षर ज्ञान के लिए अधिक से अधिक तीन घंटे रखे गए। उनका मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा देने का आग्रह था। वे शारीरिक श्रम के महत्व पर प्रकाश डालते हुए टाल्स्टॉय आश्रम की शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ मे कहते हैं,
" हमलोगों ने यह सुनिश्चित किया है कि सबको कोई न कोई धंधा सिखाया जाए। इसके लिए मि० केलनबैक चप्पल बनाना सीख आए, उनसे मैंने सीखकर बालको को सिखाया। आश्रम में बढ़ई का काम जानने वाला एक साथी था इसलिए यह काम भी कुछ हद तक बच्चों को सिखाया जाता था । रसोई का काम तो लगभग सभी बालक सीख गए थे।"
- 1937 से जब प्रान्तों मे कांग्रेस की सरकार बनी तो शिक्षा का भार गाँधी जी एवं उनके शिष्यों के कंधो पर आया । मद्य निषेध पर गाँधी जी का जोर होने के कारण शिक्षा के लिए पर्याप्त पैसे जुटाने में कांग्रेसी सरकार असफल हो रही थी। टाल्स्टॉय आश्रम के अनुभव के आधार पर महात्मा गाँधी ने शिक्षा को स्वावलंबी बनाने का विकल्प सामने रखा।
महात्मा गाँधी के द्वारा प्रतिपादित बुनियादी शिक्षण की प्रमुख विशेषताएं थी -
1. 6 से 14 वर्ष तक के उम्र के सभी बच्चों एवं बच्चियों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा |
2. पूरी शिक्षण व्यवस्था के केन्द्र मे कोई शिल्प या हस्त उद्योग हो ।
3. शिक्षण का माध्यम बच्चे की मातृभाषा हो ।
4. शिक्षा स्वावलंबी हो- यानि खर्च का वहन अध्यापकों एवं छात्रों द्वारा किए गए उत्पादन कार्यों से किया जाए।
5. हिन्दी या हिन्दुस्तानी की शिक्षा पूरे भारतवर्ष में अनिवार्य हो ।
स्पष्टतः गाँधी जी लाभ प्रदान करने वाले उत्पादक कार्य के जरिए शिक्षा देना चाहते थे। उनके अनुसार मुख्य प्रश्न आत्म-संतुष्टि का था । शारीरिक परिश्रम के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा शारीरिक कार्य के प्रशिक्षण का उद्देश्य विद्यालय म्युजियम के लिए वस्तुए बनाना या खिलौने बनाना नहीं होगा, जिसका कोई मूल्य न हो। इसका उद्देश्य ऐसी वस्तुए बनाना होना चाहिए जो बेची जा सकें। बच्चे इसे फैक्टरी की शुरूआती दिनों की तरह नहीं करेंगे, जब वे चाबुक के डर से काम करते थे। वे इसलिए काम करेंगे क्योंकि इससे उनका मनोरंजन होता है और बौद्धिक प्रेरणा मिलती है।"
महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
1921 में यंग इंडिया मे लिखे गए एक लेख मे वे अपनी कल्पना की शिक्षा के संदर्भ में कहते है
"ऐसी शिक्षा तीन उद्देश्य पूरा करेगी, शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाना, बच्चे के शरीर एवं दिमाग दोनों का ही विकास करना और विदेशी धागे और कपड़ों के बहिष्कार का रास्ता खोलना, इस प्रकार बच्चों को आत्मनिर्भर एवं स्वतंत्र बनने के लिए तैयार करना।"
वे कहते थे कि, ऐसी शालाओं मे बच्चों का खेल हल जोतना होगा। ग्रामीण हस्तशिल्प के जरिए विद्यार्थियों को शिक्षित कर वे उन्हें दूरगामी अहिंसक सामाजिक क्रांति का वाहक बनाना चाहते थे।
गाँधी जी ने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निश्चित किये। इन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
- वैयक्तिक उद्देश्य एवं
- सामाजिक उद्देश्य।
1. गाँधी के अनुसार शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य
(अ) चरित्र निर्माण -
महात्मा गाँधी ने चरित्र निर्माण को शिक्षा का उच्चतम लक्ष्य माना। उनके अनुसार अगर विद्यार्थियों के चरित्र की नींव मजबूत पड़ जाए तो अन्य सब बातें स्वतः सीखी जा सकती है।
(ब) सर्वांगीण विकास -
महात्मा गाँधी केवल बौद्धिक विकास को विकलांगता मानते थे। उन्होंने सर्वांगीण विकास के लिए तीन एच' की शिक्षा देना आवश्यक माना- हेड (मस्तिष्क), हैण्ड (हाथ) और हार्ट (हृदय) । इन तीनों की समन्वित शिक्षा ही व्यक्ति को उच्चतम विकास तक ले जा सकती है ।
2. गाँधी के अनुसार शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य
(अ) स्वावलंबी नागरिक का निर्माण
महात्मा गाँधी देश के हर व्यक्ति को शारीरिक श्रम द्वारा उत्पादन कार्य करते हुए देखना चाहते थे। मानव श्रम की शिक्षा देकर वे कुशल नागरिकों का निर्माण करना चाहते थे ।
(ब) सर्वोदय समाज का विकास-
गाँधी जी समाज के सभी व्यक्तियों को विकास का अवसर देने की वकालत करते थे । समाज के निर्धनतम व्यक्ति का विकास ही महात्मा गाँधी का सपना था। वे इस क्रांतिकारी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा को शक्तिशाली साधन मानते थे ।
(स) ग्राम स्वराज की स्थापना-
गाँधी जी केवल अंग्रेजी दासता से ही मुक्ति नहीं चाहते थे वरन् वे मानव का मानव के द्वारा शोषण की हर संभावना को समाप्त करना चाहते थे। इसके लिए वे ग्राम स्वराज की स्थापना करना चाहते थे।
इस प्रकार महात्मा गाँधी शिक्षा के द्वारा न केवल व्यक्ति वरन् समाज एवं राष्ट्र की समस्त बुराईयों को समाप्त करना चाहते थे।
गाँधी के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम
अपने शिक्षा - सिद्धान्त के अनुरूप ही महात्मा गाँधी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्माण किया। बच्चे, समाज और देश के आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने क्रियाशील पाठ्यक्रम का निर्माण किया। अपने द्वारा प्रस्तावित नयी तालीम या बुनियादी शिक्षा के लिए उन्होंने निम्नलिखित विषयों को अपनी पाठ्यचर्चा मे स्थान दिया-
1. शिल्प या हस्त उद्योग (कताई-बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठ कला, चर्मकार्य, मिट्टी का काम आदि में से कोई एक )
2. मातृभाषा
3. हिन्दी या हिन्दुस्तानी
4. व्यवहारिक गणित ( अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, नापतौल आदि)
5. सामाजिक विषय (समाज का अध्ययन, नागरिक शास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि )
6. सामान्य विज्ञान (बागवानी या वनस्पति विज्ञान, प्राणि विज्ञान, रसायन एवं भौतिक विज्ञान)
7. संगीत एवं चित्रकला
8. स्वास्थ्य विज्ञान (सफाई, व्यायाम एवं खेलकूद )
9. आचरण शिक्षा (नैतिक शिक्षा, समाज सेवा आदि) यहाँ यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि गाँधी जी के पाठ्यक्रम में क्राफ्ट (शिल्प) और शिक्षा नहीं है वरन् यह शिल्प के माध्यम से शिक्षा है। इस तरह के पाठ्यक्रम से बच्चे के मस्तिष्क, हृदय और हाथ का समन्वित विकास होना संभव है।
गाँधी के अनुसार शिक्षण विधि
महात्मा गाँधी ज्ञान की अखंडता पर विश्वास करते थे। वे केवल सुविधा की दृष्टि से ज्ञान को शाखाओं में विभक्त करते थे। महात्मा गाँधी ने बच्चों को समन्वित रूप से शिक्षा देने के लिए "समन्वय विधि" या "समवाय विधि" का प्रयोग किया। इस विधि के केन्द्र मे किसी शिल्प या उद्योग या कार्यकलाप को रखा । अन्य विषयों को इससे जोड़कर पढ़ाया जाना चाहिए । जैसे अगर कताई - सिलाई सिखाते हुए विभिन्न सभ्यताओं में उपयोग किए जाने वाले वस्त्रों का ज्ञान देकर इतिहास का व्यवहारिक ज्ञान दिया जा सकता है। इसी तरह से कच्चे माल की खरीद मे कितने पैसे लगे और तैयार किए समान को बेचने के बाद कितना लाभ हुआ, इसकी गणना अगर छात्र करें तो उन्हें गणित का जीवन मे उपयोग करना आ जायेगा ।
समन्वय विधि के अन्य दो महत्वपूर्ण आयाम है। प्राकृतिक वातावरण से समन्वय एवं सामाजिक वातावरण से समन्वय.
प्राकृतिक वातावरण से समन्वय से तात्पर्य है प्राकृतिक परिवेश अथवा काल परिवर्तन से होने वाले प्राकृतिक परिवर्तनों को केन्द्र बिन्दु मानकर विभिन्न विषयों का समन्वय । उदाहरण स्वरूप जाड़े में गेहूँ बुआई एवं ग्रीष्म ऋतु में कटाई से गेहूँ के उत्पादन की प्रक्रिया, भारत और विश्व में इसके उत्पादन क्षेत्र, गेहूँ के लिए मिट्टी, खाद, पानी, की आवश्यकता आदि कई पक्षों की शिक्षा दी जाती है।
सामाजिक वातावरण से समन्वय के अर्न्तगत सामाजिक परिवेश तथा समय-समय पर आने वाले सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय पर्व-त्योहार तथा अन्य सांस्कृतिक आयोजन आते हैं। इनके माध्यम से भी भाषा, गणित, कला इत्यादि का प्रभावशाली अध्ययन कराया जाता है।
महात्मा गाँधी के अनुसार शिक्षा का माध्यम
शिक्षा के माध्यम के रूप मे महात्मा गाँधी मातृभाषा के पक्ष में थे । वे अंग्रेजी को शोषण का एक माध्यम मानते थे, जो अभिजात्य वर्ग और जन सामान्य के मध्य की दूरी को बढ़ाता था। इसके लिए वे माता-पिता को भी दोषी मानते थे। उन्होंने आत्मकथा में कहा "जो हिन्दुस्तानी माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी बोलने वाला बना देते है वे उनके और देश के साथ द्रोह करते हैं। इससे बालक अपने देश की धार्मिक और राजनीतिक विरासत से वंचित रहता है। और उस हद तक वह देश की तथा संसार की सेवा के लिए कम योग्य बनता है। वे अंग्रेजी भाषा के किस हद तक विरोधी थे, यह उनके निम्नलिखित घोषणा से स्पष्ट होता है- "मैं यदि तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बन्द कर देता । जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य पुस्तकों के तैयार किये जाने का इन्तजार न करता ।"
महात्मा गाँधी किताबी पढ़ाई, परीक्षा की ओर झुकाव और रटने के विरूद्ध थे। उन्होंने बहुत किताबें न रखने की सलाह दी। उनका कहना था कि भारत जैसे गरीब देश में किताबें सोच समझ कर ही रखवानी चाहिए और उनकी संख्या कम होनी चाहिए। वे पाठ्य पुस्तको से अधिक महत्वपूर्ण अध्यापक को मानते थे। उनका कहना था "मेरा ख्याल है शिक्षक ही विद्यार्थियों की पाठ्य पुस्तक है।" (आत्मकथा, 309)
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