फ्रेडरिक फ्रोबेल के दार्शनिक विचार |Friedrich Froebel's Philosophical Thoughts in Hindi

 फ्रेडरिक फ्रोबेल के दार्शनिक विचार
Friedrich Froebel's Philosophical Thoughts in Hindi
फ्रेडरिक फ्रोबेल के दार्शनिक विचार |Friedrich Froebel's Philosophical Thoughts in Hindi

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल के दार्शनिक विचार 

फ्रोबेल के दार्शनिक विचारों पर पश्चिम के कई आदर्शवादी दार्शनिकों यथा काण्टफिक्टेशैलिंगहीगल आदि के विचारों का व्यापक प्रभाव है। काण्ट के अनुसार दो जगत हैएक जो हमें विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से दिखता है तथा दूसरा सारभूत या वास्तविक जगत जिसका ज्ञान आत्मबोध से होता है। फिक्टे ने प्राकृतिक जगत को मिथ्या घोषित करते हुए सारभूत जगत को ही एकमात्र सत्य जगत माना । शैलिंग ने प्रकृति एवं आत्मा दोनो में ही 'पूर्णको समान रूप से देखा । हीगल भी आत्म एवं अनात्म यानि प्रकृति में एक ही सार तत्व पाता है।

 

दार्शनिक विचारधारा के विकास के इस बिन्दु पर फ्रोबेल के विचारों का प्रादुर्भाव हुआ | शैलिंग एवं हीगल के दर्शन के आधार पर फ्रोबेल ने अपना 'एकता का सिद्धान्तका विकास किया। वह 'एडुकेशन ऑफ मेनमें लिखता है "यह एकता का सिद्धान्त बाह्य - प्रकृति एवं आत्म-प्रकृति में एक-सा ही व्यक्त है। जीवन भौतिक एवं आत्मन् के समन्वय का परिणाम है। बिना पदार्थ के आत्मन् आकारहीन है और बिना मनस् के पदार्थ प्राणहीन है।"

 

फ्रोबेल पर हीगल के द्वन्द्वात्मक विचारों का भी प्रभाव दिखता है . फ्रोबेल कहते हैं "प्रत्येक सत्ता तभी प्रत्यक्ष होती है जब वह अपने से भिन्न सत्ता के साथ उपस्थित होती है और जब उस तत्व से उसकी समानता असमानता स्पष्ट हो चुकी होती है।" फ्रोबेल पर जर्मन दार्शनिक के०सी०एफ० क्राउस का भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। जिसने ज्ञान की विभिन्न विधियों एवं क्षेत्रों में समन्वय स्थापित किया। क्राउस प्रकृति एवं तर्क (विचार) दोनों में ही ईश्वर का दर्शन करता है।

 

फ्रोबेल पर आधुनिक विज्ञान के अध्ययन का भी प्रभाव पड़ा। साथ ही उन्होंने प्रगतिशील शिक्षाशास्त्रियों जैसे कमेनियसरूसो आदि के कार्यों का अध्ययन किया तथा पेस्टोलॉजी के प्रयोगों का स्वयं निरीक्षण किया। इन सबने फ्रोबेल के दर्शन को प्रभावित किया। इतने व्यापक अध्ययननिरीक्षण एवं अनुभवों ने फ्रोबेल के विचारों में जटिलता भरी है पर इन सबमें उसकी निरीक्षण शक्ति सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई। फ्रोबेल प्रारम्भ से ही शिशुओं एवं बच्चों की स्वप्रेरित क्रियाओं का निरीक्षण करता था। बाद में उसने इसे अधिक व्यवस्थित रूप दिया। बच्चों के स्वभाविक रूप से कार्य करने एवं सीखने की विधियों का फ्रोबेल ने सूक्ष्म निरीक्षण किया और इसी का परिणाम फ्रोबेल के दार्शनिक सिद्धान्त हैं।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल का एकता का सिद्धान्त

 

फ्रोबेल के अनुसार ईश्वर एक है। जिस प्रकार पत्तेफूलफलशाखायें पेड़ के तने से जुड़ी रहती हैं उसी तरह से हम सभी ईश्वर से जुड़े हैं।

 

फ्रोबेल शिक्षा को सृष्टि की विकास प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग एवं माध्यम मानता है। शिक्षा ही व्यक्ति में आत्म-चेतना को जागृत करती है। आत्म- जागृत व्यक्ति प्राकृतिक पशुजीवन से ऊपर उठ जाता है। फ्रोबेल के अनुसार सृष्टि प्रक्रिया का एक संचालक है जो स्वयं में पूर्ण है। भौतिक जगत में वह 'भौतिक शक्तिके रूप में तथा चेतनायुक्त मनुष्य में 'चिन्तन शक्ति के रूप में उपस्थित है। दोनों में वही कर्त्ता है। फ्रोबेल ने इसे अनेक में व्याप्त एकताके नाम से पुकारा। उदाहरण स्वरूप वह कहता है अँगुली अपने में पूर्ण होते हुए भी हाथ का अंश हैहाथ शरीर का शरीर प्राणी जगत का और प्राणी जगत ब्रह्माण्ड का अंश है। ब्रह्माण्ड ईश्वर का अंश है। ईश्वर अनेक रूप होते हुए सभी चीजों में एकता कायम रखता है।

 

इसी तरह की एकता फ्रोबेल मन और शरीर में देखता है। मन शरीर से भिन्न नहीं है। जो भी उत्पादक काम होता है मन और शरीर की एकता से होता है। किसी भी वस्तु के निर्माण में व्यक्ति की स्मृतिकल्पनाप्रत्यक्षीकरणतर्क के साथ-साथ स्नायुमांसपेशियांइन्द्रियां एवं सारा शरीर कार्यरत होता है।

 

फ्रोबेल के अनुसार संस्कृति मानव की एकता का द्योतक है क्योंकि यह सामाजिक जीवन का फल है। स्वंय में पूर्ण होते हुए भी मानव समाज का अविभाज्य हिस्सा है। वह सामाजिक एकता हेतु विशिष्ट मूल्यों की सृष्टि करता है तथा भौतिक प्रगति के द्वारा जीवन को आसान बनाता है। इस प्रकार मानव के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में एक अन्तर्निहित एकता है।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल का  आत्माभिव्यक्ति का सिद्धान्त

 

फ्रोबेल के अनुसार बच्चे को आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिलना चाहिए। मानव किसी न किसी रूप में अपने को निरन्तर अभिव्यक्त करना चाहता है। उसकी अभिव्यक्ति सामान्यतः आत्मप्रेरित एवं स्वचालित क्रिया के माध्यम से होती है। इसी का व्यावहारिक रूप आत्मक्रिया विधि है। बच्चे स्वयं कार्य करके बेहतर ढंग से सीखते हैं। इस प्रकार उन्होंने बच्चों के आत्माभिव्यक्ति के नियम को सीखने की अच्छी विधि माना है।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल का  विकास का सिद्धान्त

 

फ्रोबेल ने शिक्षा का उद्देश्य बच्चे का विकास माना। उनके अनुसार बच्चों के विकास में वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार पौधा बीज के छोटे आकार में सम्पूर्ण वृक्ष को समाहित किये रहता है और उचित धरातल एवं जलवायु पाते ही भीतर से बाहर की ओर प्रस्फुटित होने लगता हैइसी तरह से मनुष्य भीतर से ही स्वसंचालन के माध्यम से उपयुक्त वातावरण पाकर विकास की ओर अगसर होता है। विकास का यही नियम बौद्धिकनैतिककौशल एवं अन्य क्षेत्रों में काम करता है। विकास का यह सिद्धान्त गत्यात्मक है जो कि हीगल के द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त क्रियाप्रतिक्रिया और समन्वय ( थीसिसऐण्टीथीसिस तथा सिन्थिसिस) पर आधारित है।

 

फ्रोबेल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति विकास की पाँच भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। ये हैं-

 

(1) शैशव काल (जन्म से तीन वर्ष की अवधि ) - इस काल में बच्चे के इन्द्रिय या संवेदी विकास पर जोर दिया जाना चाहिए ।

 

(ii) बाल्यकाल ( तीन से पाँच वर्ष तक की अवधि ) - इस काल में भाषा का विकास होता है। शरीर की जगह मस्तिष्क पर ध्यान दिया जाने लगता है। सभी वस्तुओं का सही नाम बच्चों को इस काल में बताया जाना चाहिए। साथ ही सही उच्चारण का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

 

(iii) कैशोर्य (छह से चौदह वर्ष तक की अवधि)

(iv) तरूण (चौदह से अठारह वर्ष तक की कालखंड)तथा 

(v) प्रौढ़ (अठारह वर्ष के बाद की अवधि ) । 

प्रत्येक भावी स्तर का विकास बहुत हद तक पिछले स्तर के विकास पर निर्भर करता है ।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल का स्वतः क्रिया का सिद्धान्त-

 

फ्रोबेल के अनुसार बच्चे को अगर स्वप्रेरित सृजनात्मक क्रियाओं का अवसर मिले तो उनमें भावनाओं एवं क्षमताओं का विकास होता है। फ्रोबेल के अनुसार मानव निर्माण कार्य इसलिए करता है क्योंकि परमेश्वर ने अपनी ही तरह उसे भी सृष्टा एवं कर्ता बनाया है । वह क्रियाशील केवल भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु नहीं रहता वरन् वह क्रियाशील इसलिए रहता है कि उसका दिव्य-स्वभाव प्रकट हो सके और दैवी कार्य को पूरा कर सके।

 

फ्रोबेल को मानव की जन्मजात उच्चता में विश्वास था । वह मानव को शुद्ध और विकार रहित मानता है। अतः वह मानवीय शक्तियों के स्वभाविक विकास में हस्तक्षेप का विरोधी है ।

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