महामना मदन मोहन मालवीय की जीवन-दृष्टि | Life Philosophy of Madan Mohan Malviya
महामना मदन मोहन मालवीय की जीवन-दृष्टि
महामना मदन मोहन मालवीय की जीवन-दृष्टि
- महामना की जीवन-दृष्टि के दो आधार थे: ईश्वर भक्ति और देश भक्ति। इन दोनों का उत्कृष्ट संश्लेषण, ईश्वरभक्ति का देशभक्ति में अवतरण तथा देशभक्ति की ईश्वरभक्ति में परिपक्वता उनकी जीवन-दृष्टि का विशेष पक्ष था। महामना का विश्वास था कि मनुष्य के पशुत्व को ईश्वरत्व में परिणत करना ही धर्म है।
- महामना सच्चो अर्थों में तपस्वी थे। सात्विक तप के सारे पक्ष उनमें विद्यमान थे। श्रीमद्भगवतगीता में वर्णित कायिक, वाचिक और मानसिक तप के वे साधक थे। काम-क्रोध-लोभ-मोह से स्वयं को बचाना, सदा शुद्ध संकल्पयुक्त रहना, विषयवृत्ति पर विजय प्राप्त करना, व्यवहार में छल-कपट से अपने को दूर रखना उनका मानसिक तप था । असत्य, दुःखदायी, अप्रिय और खोटे वचनों का त्याग तथा प्रिय, सत्य, मधुर शब्दों का प्रयोग उनका वाचिक तप था। दूसरों की सहायता करना, समाज की सेवा करना, देश और जाति के लिए अपने शरीर को होने वाले कष्टों की परवाह न करना उनका शारीरिक तप था।
- महामना प्रखर राष्ट्रवादी और उच्चकोटि के देशभक्त थे। देश की स्वतंत्रता, राष्ट्र के गौरव की वृद्धि, तथा जनता की सर्वागींण उन्नति उनकी देश सेवा के मुख्य लक्ष्य थे। वे जाति, भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र के आधार पर भारतीयों के मध्य बढ़ते दुराव को समाप्त कर भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र और संप्रभु देश के रूप में देखना चाहते थे ।
- महामना का कार्यक्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक था । समाजसेवा का शायद ही ऐसा कोई पक्ष हो जो उनके कार्य परिधि में न आया हो । सनातन धर्म का प्रचार, प्राचीन भारतीय संस्कृति का उत्थान, हिन्दू हितों की रक्षा, हिन्दी का प्रचार, गौमाता की सेवा, सामाजिक कुरीतियों का विरोध, स्वंय सेवकों का संगठन, ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की वृद्धि, शिक्षा का विस्तार, मल्ल-शालाओं का उद्घाटन, वंचितों के कष्टों का निवारण, हरिजनों का उत्थान, लोकतांत्रिक मर्यादाओं की प्रतिष्ठा, राष्ट्रीयता की भावना का विकास, प्रगतिशील सिद्धान्तों का प्रतिपादन, देश-काल के अनुकूल संस्कृति का विकास आदि सभी क्षेत्रों में उनका योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
1 महामना मदन मोहन मालवीय आदर्शवादी विचारक
महामना के आर्दशवादी विचारक एवं शिक्षाशास्त्री होने में कोई सन्देह नहीं है। वे शिक्षा को अध्यात्म से अलग नही करते थे। उन्हें सनातन या शाश्वत जीवन मूल्यों पर पूर्ण विश्वास था । सत्य को उन्होंने कभी भी परिवर्तनशील नहीं माना। महामना ऐसी शिक्षा के पक्षपाती थे जो विद्यार्थी में आत्म-अनुशासन की भावना बढ़ाये तथा व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास करे। महामना चाहते थे कि विद्यार्थी में नैतिकता, मानवता, दृढ़ संकल्प, निःस्वार्थ सेवा के गुण हों। वे उच्च चरित्र को अत्यधिक महत्व प्रदान करते थे । महामना का स्पष्ट मत था कि जो व्यक्ति अपने धर्म में विश्वास करेगा, धर्म के मार्ग का अनुसरण करेगा उसमें मानवता होगी और वह स्वयं तथा समाज के लिए उत्तरदायी होगा। महामना मालवीय में ये सारे गुण थे।
2 मदन मोहन मालवीय सनातन धर्म का उपासक
महामना सनातन धर्मावलम्बी थे। सनातन धर्म का अर्थ है: शाश्वत धर्म या शाश्वत नियम । इनका आधार मानव जाति का प्राचीनतम ग्रंथ वेद है। वे सनातन या हिन्दू धर्म के प्रबल समर्थक थे। परन्तु महामना ने हिन्दू धर्म को संकीर्ण रूप में नहीं देखा। सनातन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की उनकी व्याख्या निश्चय ही बहुत उदार थी। उनके अनुसार मानवता की भावना, सार्वभौमिक प्रेम तथा मानवमात्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा ने संभवतः उन्हें उस हद सामाजिक सुधार करने से रोका जिस हद तक वे सक्षम थे।
3 मदन मोहन मालवीय निस्वार्थ सेवा भाव
महामना व्यक्ति को समष्टि का अंग मानते थे और निःस्वार्थ सेवा द्वारा जीवन में समष्टि को आत्मसात करना मानव का पुनीत कर्त्तव्य मानते थे । उनका जीवन समाजिकता से ओत प्रोत था। महामना सच्चे अर्थों में युगपुरूष थे। उन्होंने देश की आवश्यकताओं तथा जनता के कष्टों को अपने जीवन में आत्मसात कर जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति में तथा देश के गौरव की वृद्धि में अपना सारा जीवन लगा दिया। उनका त्याग और सेवा भाव उनके समकालीन राजनेताओं के लिए एक उदाहरण था । गोपाल कृष्ण गोखले ने महामना के संदर्भ में कहा "त्याग तो मालवीय जी महाराज का है। वे निर्धन परिवार में उत्पन्न हुए और बढ़ते-बढ़ते प्रसिद्ध वकील होकर सहस्त्रों रूपया मासिक कमाने लगे। उन्होंने वैभव का स्वाद लिया और जब हृदय से मातृभूमि की सेवा की पुकार उठी तो उन्होंने सब कुछ त्याग कर पुनः निर्धनता स्वीकार कर ली।"
4 मदन मोहन मालवीय स्वदेशी आन्दोलन
महामना का मानना था कि स्वदेशी आन्दोलन को बल प्रदान करना भारतवासियों का धार्मिक कर्त्तव्य हैं। वे कहते थे कि स्वदेशी ही देश के आर्थिक संकटों के निवारण का एकमात्र साधन है। इसके मूल में दुर्भावना अथवा घृणा नहीं है और न इसमें राजनीतिक विद्वेष है। देश की निर्धनता को कम करने तथा देशवासियों को रोजगार और भोजन देने के लिए स्वदेशी ही अंगीकार करना भारतवासियों का धार्मिक कर्त्तव्य है ।
5 मदन मोहन मालवीय का राष्ट्रीय पुनर्निमाण का कार्यक्रम
महामना ने राष्ट्रीय पुनर्निमाण के लिए व्यापक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका कहना था कि देश के नैतिक, बौद्धिक और आर्थिक साधनों का परिवर्धन करने के लिए राजनीतिक सुधारों के आन्दोलन के अतिरिक्त लोगों में लोक कल्याण और लोक सेवा की भावना उत्पन्न करना आवश्यक है। देश के विकास के लिए शैक्षिक तथा औद्योगिक कार्यकलाप आवश्यक है। उन्होंने औद्योगिक आयोग (1916-18) के समक्ष अपने प्रतिवेदन में कहा कि यथोचित आधार पर उद्योगों के लिए आवश्यक पूँजी देश में जमा की जा सकती है। महामना चाहते थे कि देश के राजनीतिक पुनर्निमार्ण और प्रगति के लिए धार्मिक उत्साह और समर्पण की भावना से काम करना आवश्यक है। गुरू गोविन्द सिंह ने जिस भक्ति भावना से अपना काम किया और अपने अनुयायियों के साथ समानता का जो व्यवहार किया उससे महामना अत्यधिक प्रभावित थे।
6 मदन मोहन मालवीय की जनतंत्र मे आस्था
महामना को ईश्वर की सर्वव्यापकता में अटूट विश्वास था। उन्होंने भारत में सर्वत्र स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के सिद्धान्तों को अपनाये जाने पर बल दिया। 1918 में दिल्ली कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने इस तथ्य पर जोर देते हुए कहा "मेरा निवेदन है कि आप अपनी पूरी शक्ति के साथ इस बात की माँग करने का संकल्प लें कि अपने देश में आपको भी विकास की वे ही सुविधायें मिले जो इंग्लैंड में अंग्रेजो को मिली है। यदि आप इतना संकल्प कर लें और अपनी जनता में स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व के सिद्धान्तों को फैलायें तथा प्रत्येक को यह अनुभव करने दें कि उसमें भी वही ईश्वरीय प्रकाश की किरण विद्यमान है, जो उच्च से उच्च स्थिति के व्यक्ति में विद्यमान है... तो निश्चय समझिए कि आपने अपने भविष्य का निर्णय स्वंय कर लिया है।"
7 मदन मोहन मालवीय हिन्दी आन्दोलन के प्रणेता
- महामना के समय सर्वत्र अंग्रेजी का वर्चस्व था । शिक्षा का माध्यम, विशेष रूप से उच्च शिक्षा का अंग्रेजी था । उच्च न्यायालयों में जहाँ अंग्रेजी भाषा में ही सारे कार्यों का सम्पादन होता था, वहीं निम्नस्तरीय न्यायालयों में उर्दू भाषा को यह गौरव प्राप्त था । इस तरह हिन्दी अपने ही देश में पूर्णतः उपेक्षित थी । महामना हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए जीवन पर्यन्त आन्दोलनरत रहे। इन सबका चरम 2 मार्च, सन् 1898 का स्मृतिपत्र था जो उन्होंने संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के गर्वनर सर एण्टनी मैकडानल को सौंपा। इसमें इन्होनें आँकड़ों एवं आधिकारिक विद्वानों की उक्तियों के सहारे हिन्दी को उसका उचित स्थान देने का आग्रह करते हुए कहा पश्चिमोत्तर प्रांत तथा अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की जनता में शिक्षा का प्रसार करना आवश्यक है । गुरूत्तर प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि इस कार्य में तभी सफलता प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी कार्यालयों में नागरी अक्षरों का प्रयोग किया जाने लगेगा। अतः इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब नही होना चाहिए और न राज्य कर्मचारियों तथा अन्य लोगों के विरोध पर ही ध्यान देना चाहिए। हमें आशा है कि बुद्धिमान और दूरदर्शी शासक जिनके प्रबल प्रताप से लाखों जीवों ने इस घोर अकाल रूपी काल से रक्षा पाई है, अब नागरी अक्षरों को जारी करके इन लोगों की भावी उन्नति और वृद्धि के बीज बोएँगे और विद्या के सुखकर प्रभाव के अवरोधों को अपनी क्षमता से दूर करेंगे।" अतः 1900 ई0 में कचहरियों की भाषा हिन्दी भी कर दी गई। यह महामना और उनके सहयोगियों की महान सफलता थी । अब हिन्दी भाषा और नागरी में बड़ी संख्या में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने लगे ।
- महामना आजीवन हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते रहे। वे 1884 में ही हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सक्रिय सदस्य बनें जो बाद में नागरी प्रवर्धन सभा कहलायी। 10 अक्टूबर, 1910 को मालवीय जी की अध्यक्षता में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पहला अधिवेशन हुआ। महामना और राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने हिन्दी और नागरी के प्रचार हेतु भगीरथ प्रयास किये।
- महामना हिन्दी को शिक्षा का सशक्त माध्यम बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने हिन्दी भाषा में उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकों की रचना करने और अन्य भाषाओं की अच्छी पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करने पर जोर दिया। उन्हीं के शब्दो में “जो स्कूल-कालेज स्थापित किए गए है, उनमें लड़के हिन्दी पढ़ें। यूरोपीय इतिहास, काव्य, कला-कौशल आदि की पुस्तकें हिन्दी में अनुवादित हों। हिन्दी में उपयोगी पुस्तकों की संख्या बढ़ाई जाये । सरकार ने हिन्दी जारी कर दी है। अब हमें चाहिए, हम हिन्दी की उत्तमोत्तम पाठ्य-पुस्तकें तैयार करें।"
- अपने वचनों के अनुरूप ही महामना ने हिन्दी के विकास के लिए अनवरत कार्य किया। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी एवं संस्कृत के पठन-पाठन की उत्तम व्यवस्था की । हिन्दी के अनेक गणमान्य विद्वान एवं रचनाकार यथा श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अयोध्या सिंह उपाध् याय 'हरिऔध', आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन कर अपने को धन्य माना ।
- पत्रकारिता के भी माध्यम से महामना हिन्दी का अनवरत विकास करते रहे। वे हिन्दी के प्रथम दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान के सम्पादक रहे। इसमें पं0 प्रताप नारायण मिश्र एवं बालमुकुन्द गुप्त उनके सहयोगी थे । 1908 में उन्होंने 'अभ्युदय' नामक सप्ताहिक पत्र निकाला जो क्रांति के संदेश का वाहक था। इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं जैसे - मर्यादा, अभ्युदय, सनातन धर्म, गोपाल आदि के प्रेरणास्रोत महामना ही थे ।
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