महामना मदन मोहन मालवीय का जीवन परिचय (जीवन वृत्त) | Madan Mohan Malviya Biography in Hindi
महामना मदन मोहन मालवीय का जीवन परिचय (जीवन वृत्त)
मदन मोहन मालवीय कौन थे ?
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, जब अंग्रेजी साम्राज्य की शक्ति अपने चरम पर पहुँच चुकी थी उस समय भारत में अनेक महापुरूषों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने न केवल औपनिवेशिक शासन का विरोध किया वरन् उनके द्वारा प्रस्तुत की जा रही सांस्कृतिक चुनौतियों का भी सफलतापूर्वक सामना किया। इन राष्ट्रीय नेताओं में महामना मदन मोहन मालवीय का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ तत्वों के संरक्षण एवं विकास के लिए तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने पत्रकारिता द्वारा भी लगातार भारतीय जनमानस को जागरूक एवं शिक्षित किया। महामना सच्चें अर्थों में एक महान समाज सुधारक, राष्ट्रीय नेता, सफल वकील, जुझारू पत्रकार तथा महान शिक्षाविद् थे ।
महामना के समय भारत की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति
पूरी उन्नीसवीं शताब्दी
भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार का इतिहास है। इस शताब्दी में लगभग
संपूर्ण भारत पर अंग्रेजो का प्रभुत्व स्थापित हो गया । देशी रियासतों में भी
वास्तविक सत्ता अंग्रेज अधिकारियों के हाथों में ही थी। भारतीयों की हर प्रकार की
स्वतंत्रता छीन ली गई थी। वे हर तरह से गोरों के गुलाम हो चुके थे।
अपने ही देश में भारतीय
दूसरे दर्जे की प्रजा हो चुके थे। गोरे अपने को भारतीयों से श्रेष्ठ प्रजाति मानते
थे । अतः वे भारतीयों को घृणा के भाव से देखते थे। शहर में अंग्रेजों की बस्तियां
अलग थी। उनके साथ भारतीय यात्रा नहीं कर सकते थे। अंग्रेजो के पार्क, मनोरंजन स्थल आदि में
भारतीय प्रवेश तक नहीं पा सकते थे। अंग्रेजो के सामने भारतीय घोड़े या किसी अन्य
वाहन पर चढ़ कर नहीं जा सकते थे।
परम्परागत भारतीय
उद्योगों का अंग्रेजो ने जान-बूझ कर विनाश किया। भारत से कच्चे माल को इंग्लैंड ले
जाकर वे वहाँ से तैयार माल भारत लाकर ऊँचे दामों पर बेचते थे। सोने की चिड़िया
भारत संसार के निर्धनतम देशों मे से एक होता गया ।
अंग्रेजों के पूर्व राजा
या राजवंश के परिर्वतन से भारतीय कृषकों पर कोई प्रभाव नही पड़ता था। वे अपनी भूमि
के स्वामी बने रहते थे। कृषि उनके लिए केवल एक आर्थिक क्रिया-कलाप नहीं वरन् जीने
की शैली थी। पर अंग्रेजों ने किसानों के शोषण के लिए नई भूमि व्यवस्था लागू की।
स्थायी बन्दोबस्त, महलवारी एवं
रैयतवारी व्यवस्थाओं के द्वारा भूमि पर किसानों का परम्परागत अधिकार समाप्त कर
दिया गया। अब जमीन पर उसी का अधिकार था जो अंग्रेजी सरकार को सबसे अधिक लगान दे
सके। खुशहाल भारतीय किसान दरिद्र होता गया। आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों के काल में
अनेक दुर्भिक्ष हुए- जिनसें लाखों किसानों, उनके बच्चों और औरतों की मौत हुई । इतिहासकार विपन चन्द्र
के अनुसार पूरा गंगा-यमुना का दोआब अकाल मृत्यु के शिकार हुए किसानों की हड्डियों
से श्वेत हो गया।
शैक्षिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी अंग्रेज भारतीयों को हमेशा के लिए मानसिक और बौद्धिक रूप से गुलाम बनाए रखना चाहते थे। वे भारतीयों को 'श्वेत लोगो का बोझ' मानते थे। जिसे 'व्हाइट मेनस् बर्डेन' के नाम से इतिहास में जाना जाता है। चार्ल्स ग्रांट (1792) से लेकर लार्ड मैकाले (1835 ) तक सभी भारतीयों को निम्न सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक स्तर के व्यक्ति मानते थे। मैकाले तो भारतीयों को स्थायी रूप से बौद्धिक गुलामी के लिए तैयार कर रहे थे। इन सबके विरूद्ध 1857 में भारतीय जनमानस ने अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति की घोषणा कर दी। पर 1857 के संघर्ष में भारतीय असफल रहे और अंग्रेजी सत्ता को दी जा रही चुनौती समाप्त हो गई।
महामना मदन मोहन मालवीय का जीवन परिचय (जीवन वृत्त)
1857 की क्रांति की असफलता के
बाद भारतीय जनमानस निराश सा हो गया था। ऐसे में 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में बालक मदन मोहन का जन्म
हुआ । इन्होंने आगे चलकर न केवल भारतीय संस्कृति का संरक्षण किया वरन् शिक्षा के
द्वारा परम्परागत तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समन्वित विकास एवं प्रसार से पराधीन
राष्ट्र के आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को बढ़ाया।
मदन मोहन मालवीय के
पितामह प्रेमधर जी संस्कृत के बड़े विद्वान थे। धर्म के प्रति उनकी बड़ी गहरी
निष्ठा थी । पितामह की तरह पितामही भी धर्मनिष्ठ और शील सम्पन्न थी । मदन मोहन के
पिता पं० ब्रजनाथ पं० प्रेमधर की ही तरह धर्मनिष्ठ, जव संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य
भक्त थे। परिवार की आर्थिक दशा काफी दयनीय होते हुए भी वे कभी दान नहीं लेते थे ।
मदन मोहन की माता श्रीमती मूना देवी जी स्वभाव की बड़ी सरल और हृदय की बड़ी कोमल
थी।
मदन मोहन पर परिवार की
आर्थिक दशा का माता के शील तथा स्नेह का, पिता और पितामह के धर्म के प्रति अनुराग का गहरा प्रभाव
पड़ा । उनका जीवन धर्मनिष्ठ, भगवद्भक्ति, दीनबन्धु समाजसेवी के रूप में विकसित हुआ। उन्होंने अपनी
पिचहत्तरवीं वर्षगांठ पर कहा "पितामह, पितामही, पिता और माता बड़े धर्मात्मा, सदाचार और निःस्वार्थ ब्राह्मण थे, उन्हीं के प्रसाद से मैं
इतना काम कर सका हूँ।"
मदन मोहन को पाँच वर्ष की
आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की
शिक्षाओं का गहराई से अनुशीलन करने का अवसर मिला। पहाड़ा एवं सामान्य गणित पढ़ने
वे एक महाजनी पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला
में संस्कृत, धर्म और शारीरिक
शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रवर्द्धिनी पाठशाला के विद्यार्थी बने। इस प्रकार
उन्हें परम्परागत भारतीय ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा अभ्यास हो गया।
सन् 1868 में प्रयाग में गर्वनमेण्ट हाईस्कूल खुला। मदन मोहन ने इसमें प्रवेश लिया । यहाँ बड़े परिश्रम से अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही साथ वे संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त करते रहे। एन्ट्रेस उत्तीर्ण करने के उपरांत मदन मोहन म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में पढ़ने लगे । मासिक छात्रवृत्ति मिल जाने से उनका आर्थिक संकट कुछ हद तक कम हुआ। 1881 में एफ0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे एम०ए० की परीक्षा में नही बैठ सके। उन्होंने सरकारी उच्च विद्यालय में पहले 40 रूपये और बाद में 60 रू0 मासिक वेतन पर अध्यापक पद स्वीकार कर लिया।
समाज सेवा के प्रति मदन
मोहन मालवीय की लगन छात्र जीवन से ही दिखती है। समाज सेवा हेतु छात्र जीवन में ही
उन्होंने साहित्य सभा एवं 'हिन्दू समाज' नामक संस्थाओं की स्थापना
की थी। सरकारी नौकरी महामना को बाँधे नही रख सकी। तीन वर्षों तक सरकारी नौकरी में
रहने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1886 में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में महामना के भाषण ने
राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित किया। अब वे कालाकाँकर आकर दैनिक समाचार पत्र
हिन्दुस्तान का सम्पादन करने लगे। 1887 से 1889 तक इस कार्य को सफलता पूर्वक किया। महामना की बहुमुखी
प्रतिभा इसी तथ्य से स्पष्ट है कि समाचार पत्र के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने
वकालत की पढ़ाई जारी रखी। 1891 में वकालत की
परीक्षा उत्तीर्ण कर आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
अधिवक्ता के रूप में
महामना को बहुत अधिक सफलता मिली और उनकी ख्याति चारों ओर फैल गई। अब उनका
सामाजिक-राजनीतिक कार्य क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था। वे देश को राजनीतिक
नेतृत्व देने के लिए तैयार थे। 1909 और 1918 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस प्रकार वे देश के
अग्रणी नेता के रूप में कांग्रेस और देश को नेतृत्व प्रदान करते रहे ।
महामना मूलतः एक शिक्षाविद् और एक अध्यापक थे। भारत राष्ट्र की नींव को मजबूत करने हेतु वे शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहते थे। इसी सपने को साकार करने के लिए 4 फरवरी, 1916 को विद्या की नगरी बनारस में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। जीवन पर्यन्त वे देश, समाज और राष्ट्र की सेवा करते रहे । अन्ततः 12 नवम्बर, 1946 सूर्य के अवसान बेला में इस महामानव का देहावसान हो गया।
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