कबीर के काव्य में सामाजिक चेतना पर टिप्पणी? | MPPSC Mains Old Question With Answer
कबीर के काव्य में सामाजिक चेतना पर टिप्पणी?
कबीर के काव्य में सामाजिक चेतना पर टिप्पणी?
उत्तर-
कबीर की साधना आध्यात्मिक होते हुए भी समाज के प्रति सम्वेदनशील है। वे भक्त, समाज सुधारक एवं युग नेता हैं, जिन्होंने अपने उपदेशों के माध्यम से सामाजिक न्याय एवं समरसता की बात की है। उन्होनें अपने युग में व्याप्त अन्धविश्वासों, रूढ़ियों साम्प्रदायिक एवं धार्मिक कट्टरताओं तथा कर्मकाण्ड के बाहरी आडम्बरों का डटकर विरोध किया। वे समाज को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलाने वाले समाजसेवी हैं। कबीर मानते हैं कि समाज की एकरूपता तभी सम्भव है जबकि समाज में जाति, वर्ण एवं वर्ग भेद न हों। इसलिए कबीर ने जाति, वंश, अधर्म, संस्कार और शास्त्रगत रूढ़ियों का मायाजाल तोड़ने का प्रयास किया और " जाति-पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई" कहकर मानव मात्र के लिए समानता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। कबीर द्वारा प्रचारित धर्म, मानवधर्म और विश्वधर्म है। कबीर विश्व बंधुत्व के प्रबल समर्थक हैं। वर्तमान परिदृश्य में व्याप्त वर्ग विद्वेष रूपी विष से ग्रस्त तथा मानवता के रक्त पिपासु मनुष्य के लिए कबीर की यह घोषणा की साईं के सब जीव हैं, निश्चय रूप से नव मार्ग प्रदर्शक हैं।
कबीरदास : एक सामाजिक विश्लेषण
जिन दिनों कबीरदास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिन्दुओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार साधनाएँ प्रचलित थी। कोई वेद का दीवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान-पुण्य में लीन था. कई व्यक्ति ऐसे थे, जो मदिरा सेवा में ही सब कुछ पाना चाहते थे तथा कुछ लोग तंत्र-मंत्र, औषधादि करामात को अपनाए हुआ था। यथा-
इक पठहिर पाठ, इक भी उदास,
इक नगन निरन्तर रहे निवास
इकं जी जुगुति तन खनि,
इकराम नाम संग रहे लीना ।
कबीर ने अपने चारों-ओर जो कुछ भी देखा-सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया -
ऐसा जो जोग न देखा था, भुला फिरे लिए गफिलाई।
महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो मंहत कहावे ।।
कबीर दास जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित आडम्बर देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया-
पंडित देखहु मन मुँह जानी ।
कछु धै छूति कहाँ ते उपजी, तनहि छूत तुम मानी।
समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को सम्बोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी।
तुम कत ब्राह्मण हम कंत सूद,
हम त लौहू तुम कत दूध,
जो तुम बामन बामनि जाया,
आन घाट काहे नहि आया।
महात्मा कबीर ब्राह्मण अभिमान यह कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए? इस प्रकार कबीर ने समाज व्यवस्था पर नुकीले एवं मर्मभेदी अंदाज से प्रहार किया। समाज में व्याप्त आडम्बर, कुरीति, व्यभिचार, झूठ और पाखंड देखकर वे उत्तेजित हो जाते हैं और चाहते हैं कि जन-साधारण को इस प्रकार के आडम्बर एवं विभेदों से मुक्ति मिले और उनके जीवन में सुख-आनंद का संचार हो। महात्मा कबीर के पास आध्यात्मिक ज्ञान था और इसी ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर।
अपने कर्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना सुनिश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने और जन-समुदाय में सुख-शान्ति लाने के लिए कबीर एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, वह है, अध्यात्म | वे कहते हैं कि मानव इसका नियमित सेवन करे।
आधुनिक संदर्भ में कबीर का कहा गया उपदेश सभी दृष्टियों से प्रासंगिक है। जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत कर रहे हैं, वीह उद्घोषणा कबीर ने पंद्रहवीं शताब्दी में की थी। अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है। आज के परिवेश में जरूरी है कि इसका प्रसार किया जाए ताकि देश और समाज के लोग इससे लाभान्वित हो सकें.
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