राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन द्वारा हिन्दी के विकास हेतु किये गए कार्य | Purushottam Das Tandon and Hindi

 राजर्षि पुरुषोत्तम दासद्वारा हिन्दी के विकास हेतु किये गए कार्य

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन द्वारा हिन्दी के विकास हेतु किये गए कार्य | Purushottam Das Tandon and Hindi
 

राजर्षि पुरुषोत्तम दासद्वारा हिन्दी के विकास हेतु किये गए कार्य

  • हिन्दी भाषा के प्रति राजर्षि टण्डन की अटूट निष्ठा थी । हिन्दी भाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ही उन्हें राजनीति में खींच लाई । 17 फरवरी, 1951 को मुजफ्फरपुर में साहित्यकारों की एक सभा में उन्होंने स्वयं कहा "लोग कहते हैं कि मैं राजनीति और साहित्य से समन्वित दोहरा व्यक्तित्व रखता हूँ। पर सच्ची बात यह है कि मैं पहले साहित्य में आया और प्रेम से आया। हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे उसी प्रेम ने उसके हितों की रक्षा और विकास पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया । "

 

  • हिन्दी के विकास एवं प्रसार में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके निर्माण में टण्डन जी का महत्वपूर्ण योगदान था । इसकी स्थापना 10 अक्टूबर, 1910 को हुई। पं0 मदन मोहन मालवीय इसके अध्यक्ष एवं राजर्षि टण्डन मंत्री चुने गए। वस्तुतः सम्मेलन का सारा कार्यभार राजर्षि टण्डन पर ही था। सन् 1910 से लेकर अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक वह लगातार इस संस्थान के हित सम्बर्द्धन के लिए अपने को तिल-तिल होम करते रहे। उनके प्रयासों से सम्मेलन एक राष्ट्रीय संस्था घोषित कर दी गई। प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मीनारायण सुधांशु हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति राजर्षि टण्डन के योगदान का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- "उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य क्षेत्र में कोई सर्जनात्मक कृति नहीं दी हैकुछ तुकबन्दियों तथा लेखों के अतिरिक्त उन्होंने और कुछ नहीं लिखा। लेकिन उनकी वास्तविक कृति है अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का संगठन। इसके द्वारा उन्होंने हिन्दी साहित्य की परीक्षाओं का जो संचालन कियाउससे साधारण जनता में हिन्दी साहित्य के प्रति अभिरूचिसाहित्य की जानकारी और लोक साहित्य में जागृति की भूमिका बनी। सम्मेलन की परीक्षाओं का जाल सम्पूर्ण भारत में बिछ गया। सन् 1910-1950 के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का श्रेय टण्डन जी को है । इसीलिए लोग उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्राण कहा करते थे।"

 

  • पं0 जवाहरलाल नेहरू और उनके समर्थक स्वतंत्र भारत में 'हिन्दुस्तानीको राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। राजर्षि टण्डन हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के पक्ष में थे। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने इस संदर्भ में लिखा है "संविधान सभा में उन्होंने हिन्दी का बड़ी दृढ़ता से समर्थन किया । यद्यपि कुछ लोगविशेषकर अहिन्दी भाषीइस दृढ़ता से अप्रसन्न भी हुएपर उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम में कमी नहीं आई।" राजर्षि टण्डन रोमन अंको के उपयोग के भी पक्ष में नहीं थे। अन्ततः राजर्षि टण्डन के सद्प्रयासों से ही देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा मिल सका। 
  • हिन्दी के प्रति उनकी सेवाओं का मूल्यांकन करते हुए हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक आचार्य नगेन्द्र लिखते हैं "राष्ट्रभाषा हिन्दी के इतिहास में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन शब्द आज अभिधान मात्र न रहकर प्रतीक बन गया है: जिस प्रकार 'प्रसादके नाम में राष्ट्रभाषा की सांस्कृतिक समृद्धि समाहित है, 'प्रेमचंदमें उसकी जनकल्याणकारी भावना, 'मैथिलीशरणमें राष्ट्रीयता और सुमित्रानन्दन पंतमें उसकी सौन्दर्यविभूतिइसी प्रकार पुरूषोत्तम दास टण्डनशब्द में राष्ट्रभाषा का कार्मिक उत्साह प्रज्ज्वलित है। उनका अभिनन्दन राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के अभिषेक का अभिनन्दन है ।"

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