राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन के शैक्षिक विचार शिक्षा का उद्देश्य | Purushottam Das Tandon Education Philosophy
राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन के शैक्षिक विचार
राजर्षि पुरुषोत्तम टण्डन के शैक्षिक विचार
- रूढ़ अर्थों में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन को शिक्षाशास्त्री नहीं कहा जा सकता पर वास्तव में उनका सम्पूर्ण जीवन ही भारतीयों के लिए शिक्षा का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । वे शिक्षा का भारतीयकरण करना चाहते थे साथ ही प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे और शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकृति के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। हिन्दी को विश्वविद्यालय स्तर पर स्वीकृति दिलाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने शिक्षा के द्वारा भारतीयों में आत्मगौरव एवं आत्मबल का संचार किया। अतः यह कहा जा सकता है कि राजर्षि टण्डन का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
राजर्षि टण्डन के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
राजर्षि टण्डन को शिक्षा के प्रभाव पर अटूट विश्वास था । वे शिक्षा के द्वारा अनेक राष्ट्रीय एवं सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहते थे। उनके कार्यों के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि उन्होंने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य रखे :
(i) राष्ट्रीयता की भावना का विकास :
राजर्षि टण्डन एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे और शिक्षा के द्वारा नई पीढ़ी में राष्ट्रीयता की भावना भरना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने हमेशा राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं को सहयोग दिया। जैसा कि हमलोग देख चुके हैं वे भारत राष्ट्र का आधार भारतीय संस्कृति को बनाना चाहते थे ।
(ii) भारतीय संस्कृति का संरक्षण:
राजर्षि टण्डन भारतीय संस्कृति को भावी विकास का आधार मानते थे। इस संदर्भ में उनका जवाहर लाल नेहरू से मतभेद भी रहा। राजर्षि टण्डन का कहना था "मैं प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की इस बात सहमत हूँ कि राष्ट्र को समय के साथ चलना चाहिए। लेकिन आगे बढ़ते हुए उसे यह ध्यान रखना है कि जो लम्बी और शक्तिशाली श्रृंखला उसे भूतकाल से जोड़ती है, वह टूट न जाए प्रत्युत और मजबूत बने। हमारा मूल ध्यान होना चाहिए कि हम भूतकाल से सम्बन्ध रखकर वर्तमान में आगे बढ़ें। पश्चिम में जो भी चटकीला और चमकदार है, वह सब सोना नहीं है। भारत ने ऐसे उच्च विचार और परम्पराएं पैदा की है जो कालयापन के साथ-साथ मनुष्य जाति के भाग्य को अधिकाधिक प्रभावित करेगी।" इसी विचार के अनुरूप राजर्षि टण्डन शिक्षा के द्वारा भारतीय संस्कृति का संरक्षण करना चाहते थे जो सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी है ।
(iii) चरित्र का निर्माण :
राजर्षि टण्डन का चरित्र ऋषियों की तरह उज्ज्वल एवं धवल था। वे शिक्षा के द्वारा चरित्रवान युवक-युवतियों को तैयार करना चाहते थे। उनका स्पष्ट संदेश था- "हमारा जीवन सादा और विचार स्तर उच्च होना चाहिए । हमारी आवश्यकताएँ सीमित होनी चाहिए और ईमानदारी के साथ अपने दूसरे भाईयों की सेवा करने का आदर्श हमें सदा अपने सामने रखना चाहिए।" नवयुवकों में ऊँची नैतिकता और सच्चरित्रता भरने का जैसा वे निरन्तर ध्यान रखते थे, विवाहित कन्याओं को भी पतिव्रत धर्म का ध्यान दिलाते रहते थे।
(iv) हिन्दी का प्रचार-प्रसार :
राजर्षि टण्डन भारतीय जनमानस को मानसिक दासता से मुक्त करने के लिए अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त करने एवं सम्पूर्ण राष्ट्र में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के प्रबल समर्थक थे। उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था हिन्दी भाषा एवं साहित्य की उच्चतम स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना। प्रसिद्ध साहित्यकार माखनलाल चतुर्वेदी ने राजर्षि टण्डन के संदर्भ में लिखा "वे (राजर्षि टण्डन) अपनी संतुलित शक्तियों को कभी बेकार नहीं रहने देते थे। अपने सारे प्रयत्नों को केवल भारत की स्वतंत्रता और हिन्दी के उद्धार में लगाते थे।" उनके लिए देश की स्वतंत्रता से हिन्दी का प्रश्न कम महत्वपूर्ण नहीं था। उनका कहना था कि "हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो विभिन्न प्रदेशों को प्रेम के ऐक्य सूत्र में बाँध सकती है।" अतः वे शिक्षा का उद्देश्य हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना भी मानते थे।
(v) निरक्षरता - उन्मूलन
महात्मा गाँधी की ही तरह राजर्षि टण्डन निरक्षरता को देश के लिए अभिशाप मानते थे। वे एक तरफ तो शिक्षा के प्रसार द्वारा नई पीढ़ी को निरक्षर होने के कलंक से बचाना चाहते थे तो दूसरी ओर वे शिक्षित नवयुवक, नवयुवतियों को इसके लिए प्रेरित करते थे कि वे प्रौढ़ निरक्षरों के मध्य जाकर उन्हें साक्षर बनायें। प्रौढ़ निरक्षरों को अक्षर - ज्ञान देने का कार्य वे तब भी करते रहे जब वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष थे । इस प्रकार राजर्षि टण्डन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य अत्यन्त व्यापक थे।
राजर्षि टण्डन के अनुसार पाठ्यक्रम
शिक्षा के पाठ्यक्रम के संदर्भ में राजर्षि टण्डन का विचार बहुत ही उदार था। वे परम्परागत भारतीय ज्ञान और आधुनिक विज्ञान दोनों का ही समन्वय चाहते थे पर पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में भारतीय ज्ञान की उपेक्षा को वे राष्ट्र विरोधी दृष्टिकोण मानते थे I
- राजर्षि टण्डन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने के पक्षधर थे पर वे इसके लिए अंग्रेजी को अनिवार्य नहीं मानते थे। उनका कहना था कि "इस देश में अंग्रेजी का प्रभुत्व रहते हुए देश मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से स्वतंत्र और आजाद नहीं हो सकता है।" राजर्षि टण्डन सम्पूर्ण भारत में हिन्दी को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहते थे। हिन्दी में भी भक्ति साहित्य को वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। कबीर पर उनकी गहरी निष्ठा थी। कबीर की छाप वे अन्य भाषाओं के कवियों पर भी पाते हैं। उनके अनुसार "जैन कवि ज्ञानानन्द, विजय, यशोविजय, आनन्दघन आदि की कृतियों में, हिन्दी और गुजराती दोनों प्रकार की माणिक मालाओं में गुंथने वाला तार मुझे वही कबीर दास की बानी से निकला हुआ रहस्यवाद दिखाई देता है। इनकी बानी उसी रंग में रंगी है और उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरा ने कराया है।" इस प्रकार टण्डन के पाठ्यक्रम में भक्ति साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है।
- राजर्षि टण्डन भारत के गौरवशाली इतिहास को पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाना चाहते थे। इससे लोगों के सोये स्वाभिमान को जगाया जा सकता था, साथ ही उनके अनुसार बिना अतीत को आधार बनाये बेहतर भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता है।
- राजर्षि टण्डन छात्रों को राजनीति एवं प्रजातांत्रिक जीवन पद्धति की सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षा देना चाहते थे। वे उच्च स्तर पर अरविन्द के दर्शन, विवेकानन्द तथा रामतीर्थ के ग्रन्थ, पतंजलि की विभूति और कैवल्यपाद के अध्ययन की अनुशंसा करते हैं ।
- राजर्षि टण्डन बच्चों एवं नवयुवकों के लिए खेल एवं व्यायाम को आवश्यक मानते थे। साथ ही वे प्राकृतिक चिकित्सा के भी प्रशिक्षण के पक्षधर थे। इस संदर्भ में उनका सिद्धान्त था "अस्पतालों और शय्याओं की संख्या बढ़ाने के बदले स्वस्थ जीवन के समुचित साधनों को उपलब्ध कराना राष्ट्रीय जीवन के लिए परम आवश्यक है। "
- इन सबके अतिरिक्त वे पूरी शिक्षा प्रक्रिया को इस तरह से क्रियान्वित करना चाहते थे कि छात्रों में नैतिकता और सदाचार का विकास हो सके।
- राजर्षि टण्डन लिखावट को शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग मानते थे और इस पर बहुत ध्यान देते थे। वे न केवल विद्यालयों-महाविद्यालयों के विद्यार्थियों को ही नहीं वरन् अपेक्षाकृत प्रौढ़ लोगों को भी देवनागरी को सही ढंग से लिखने की विधि बताया करते थे। तेजी से लिखते समय एकार' एवं 'ओकार की मात्रा को दाहिनी ओर झुकाने के वे विरोधी थे। वे इन्हें बांयी ओर झुकाने का आग्रह करते थे। टण्डन 'ए' के स्थान पर ये लिखना शुद्ध बताते थे । अंग्रेजी शब्दों को अल्प विराम के बीच बन्द कर देने या रेखांकित कर देने के आग्रही थे ।
राजर्षि टण्डन के अनुसार प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम
- राजर्षि टण्डन भारत को साक्षर देखना चाहते थे। वे अपने प्रांत, उत्तरप्रदेश, में प्रौढ़ शिक्षा के द्वारा निरक्षरता को समाप्त करने के प्रयास में व्यक्तिगत रूप से लगे रहे। इस संदर्भ में उनकी भूमिका को ओंकार शरद के लेख 'एक इस्पाती व्यक्तित्व के निम्नलिखित अंश से समझा जा सकता है।
- टण्डन जी संयुक्त प्रांत के स्पीकर थे। पूरे प्रांत भर में उनका साक्षरता आन्दोलन चल रहा था। यह आन्दोलन उन्हीं का था। प्रांत का कोई भी व्यक्ति निरक्षर न रह जाय- यही उनका सपना था ।
- इलाहाबाद में घंटाघर के नीचे, चौड़ी सड़क पर, एक दिन सुबह-सुबह दोनों ओर पट्टियां बिछा दी गई। और उस पर बैठाए गए गरीब, मजदूर, बूढ़े जो निरक्षर थे। उन्हें एक-एक स्लेट दी गई और टण्डन जी उन्हें अक्षर ज्ञान करा रहे थे।
- तब हम सब थे उनके सिपाही हजारों की संख्या में बैठे लोग | अक्षर- ज्ञान कर रहे थे और टण्डन जी एक सार्वजनिक शिक्षक बने सबों को ककहरा सिखा रहे थे। यह क्रम विभिन्न रूपों में रात्रि पाठशाला और सामूहिक विद्यालय की शक्ल में भी हमलोग बहुत दिनों तक चलाते रहे । असंख्य लोग टण्डन जी की प्रेरणा से साक्षर हुए। हजारों लोग अंगूठा टेक के अभिशाप से मुक्त हुए।"
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