गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-दर्शन | Rabindranath Tagore Life Philosophy in Hindi

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-दर्शन

  (Rabindranath Tagore  Life Philosophy in Hindi )

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-दर्शन | Rabindranath Tagore  Life Philosophy in Hindi

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन-दर्शन

 

गुरूदेव का जीवन-दर्शन प्राचीन ऋषियों की तरह व्यापक था। उनका व्यापक जीवन-दर्शन उपनिषदों के गहन चिन्तन-मनन के परिणाम स्वरूप विकसित हुआ था । उपनिषदों में विवेचित विश्वबोध की भावना ने गुरूदेव के व्यक्तित्व सोच और कार्य को अत्यधिक प्रभावित किया। वे सम्पूर्ण जीव-जगत में इस सत्ता को महसूस करते हैं। इसीलिए गुरूदेव को मानव मात्र की एकता में अनन्त विश्वास है उन्हें विश्व की बाह्य विविधताओं के मध्य एकता नजर आती है। उनका विश्वास है कि ईश्वर सम्पूर्णता का अनन्त आदर्श है और मनुष्य उस पूर्णता को प्राप्त करने की शाश्वत प्रक्रिया है एक और अनेक का मिलना तथा बाह्य का आंतरिक से समन्वय इन दोनों के बारे में गहन सोच तथा इन्हें जीवन में प्रयुक्त करने हेतु व्यवहारिक मार्ग की खोज गुरूदेव के जीवन का परम लक्ष्य था ।

 

टैगोर के जीवन दर्शन में मानव करुणा का महत्वपूर्ण स्थान है ये भारतीयों की गरीबी से अत्यधिक द्रवित हो जाते थे। इसने उनकी जीवन दृष्टि को व्यापक रूप से प्रभावित किया। गुरूदेव के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। उन्हें मानव की निर्णय लेने एवं उसे क्रियान्वित करने की इच्छा शक्ति पर दृढ़ विश्वास था। उनका मानना था कि "हम जो भी नवनिर्माण करना चाहते हैउसमें व्यक्ति या समाज किसी के भी आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचना चाहिए तथा ऐसा कोई कार्य नहीं चाहिए जिससे जीवन के आध्यात्मिक और संसारिक पक्षों में दुराव हो ।

 

अपने निबन्ध द पोएट्स स्कूल में गुरूदेव ने लिखा मानव इस संसार में इसलिए नहीं आया है कि वह इसके बारे में सारी सूचनाएं एकत्रित करे तथा उसे अपना दास बनाएवह इसे यहाँ अपना घर बनाने आया हैवह यहाँ जीव मात्र का सहयोगी और वसुधा का पूजक बनने आया हैवह यहाँ प्रेम कलात्मक रचनात्मकता तथा आनन्द के द्वारा अपनी इच्छा को पूर्ण करने आया है गुरूदेव की दृष्टि में इन सब को जीवन के प्रति सम्पूर्ण उपागम को अपनाकर पाया जा सकता हैन कि आंशिक विकास एवं स्वार्थ के द्वारा।"

 

टैगोर को मानव की क्षमता में पूर्ण विश्वास था । उन्होंने व्यक्तित्व के सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब मानव जाति पर गंभीर संकट आया उस समय भी महाकवि ने मानव के विवेक पर आस्था जताते हुए कहा कि हम इस संकट को पार कर सृजनात्मक जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करेंगे। टैगोर व्यक्ति के सम्मान और उसकी स्वतंत्रता में आस्था रखते थे।

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय ग्राम जीवन एवं संस्कृति का पुनरूत्थान चाहते थे। 1905 में उन्होंने स्वदेश समाज नाम से एक लम्बा निबंध लिखा। इसमें कृषिशिल्पग्रामोद्योग आदि के पुनर्विकास पर जोर दिया गया । स्वप्रबन्धित समाज के निर्माण पर उन्होंने अत्यधिक बल दिया। इस संदर्भ में गुरूदेव के प्रयासों की सराहना करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा "उन्होंने (रवीन्द्रनाथ टैगोर ने) भारत की निर्धनता का कारण समझा तथा इसे कैसे समाप्त किया जायाइस संदर्भ में उनके पास पैनी दृष्टि थी। इस कार्य हेतु उन्होंने सबसे अधिक बल शिक्षा पर दिया- न केवल बच्चों की शिक्षा बल्कि प्रौढ़ों की भी शिक्षा। भारत अपना परम्परागत गौरव हासिल कर सके इसके लिए उन्होंने संभावनाओं को तलाशा तथा राह गढ़े।"

 

टैगोर दर्पपूर्ण राष्ट्रवाद के घोर विरोधी थे वे सभी संस्कृतियों के मध्य सहयोग एवं समन्वय की कामना रखते थे। उन्होंने विश्वभारती विश्वविद्यालय को सभी संस्कृतियों का मिलन स्थल बनाया। इस विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य 'यत्र विश्वम् भवेत्य नीडम्" टैगोर के आदर्शो को परिलक्षित करता है। वास्तव में गुरूदेव एक विश्व नागरिक थे और वे मानव को उसकी क्षुद्र सीमाओं से निकाल कर उन्हें वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना से ओत-प्रोत करना चाहते थे।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.