रवीन्द्रनाथ टैगोर गुरूदेव की छात्र संकल्पना, गुरूदेव की दृष्टि में अध्यापक
रवीन्द्रनाथ टैगोर गुरूदेव की छात्र संकल्पना
रवीन्द्रनाथ टैगोर शिशु को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं। उनके हृदय में बालक के प्रति अनंत प्रेम प्रगाढ़ सहानुभूति तथा निश्छल करूणा सदैव प्रवाहित होती है। घर में बालक पर रखी जाने वाली कृत्रिम नियंत्रण तथा विद्यालय के कठोर अनुशासन से उसकी आत्मा कराह उठती है । सामाजिक कृत्रिमता बच्चे के प्रकृत गुणों को दबा देते है। टैगोर की दृष्टि में बालक की सच्ची शिक्षा उसके प्रकृत गुणों की रक्षा तथा उसके विकास में निहित है।
बाल्यकाल में विद्यार्थी को प्राकृतिक जीवन के समीप रहने का अवसर मिलना चाहिए। इससे उसका शारीरिक, मानसिक, भावात्मक एवं बौद्धिक विकास समन्वित और स्वस्थ ढंग से हो पाता है। प्रकृति के रहस्यों को जानने के लिए उसके साथ समरस होना पड़ता है। कवि की दृष्टि में "चारों ओर फैली हुई प्रकृति हमारी महान शिक्षिका है। वह हमारे जीवन को सौन्दर्य और आनन्द, समरसता और मधुर भावनाओं के साँचे में ढालती है, इसके साथ ही हमें अपनी अन्तरात्मा के प्रति मनन करने की प्रेरणा देती है।" शान्तिनिकेतन में गुरूदेव ने प्रकृति के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देने का प्रयोग किया। स्वंय उन्हीं के शब्दों में "मेरे विद्यालय में विद्यार्थियों ने वृक्ष के रूप विज्ञान का ज्ञान सहज रूचि से अर्जित किया है। नाममात्र के स्पर्श से वे पता लगा सकते हैं। कि प्रत्यक्ष रूप से आतिथ्य प्रकट करने वाले तने पर वे कहाँ पैर जमा सकते हैं.. मेरे बच्चे फल एकत्रित करने, विश्राम लेने तथा अवांछनीय तत्वों से स्वंय को छिपाने आदि के लिए वृक्षों का सर्वश्रेष्ठ सम्भव उपयोग करने में समर्थ है।"
गुरूदेव की दृष्टि में अध्यापक
गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर अध्यापक के रूप में ऐसे व्यक्ति की कल्पना करते है जो छात्रों को उपदेश देने की जगह अपने व्यवहार एवं कार्य से उसे सद्मार्ग पर ले जाये । अध्यापक का अपना जीवन तथा सत्य खोज की लगन इस तरह होनी चाहिए कि छात्र सत्य एवं प्रकृति को सम्मान देने की भावना को आत्मसात कर ले। यह तभी संभव है जब गुरू एवं शिष्य एक-दूसरे के साथ रहें। उनके अनुसार अध्यापक का छात्र से सम्बन्ध केवल देने का नहीं है वरन् जीवन के सत्य को साथ-साथ अनुभव करने का है।
गुरू एवं शिष्य का व्यक्तिगत घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षा देने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है। टैगोर यह मानते थे कि वही व्यक्ति बच्चों को सही ढंग से शिक्षा दे सकता है जिसमें बालक की निश्छलता एवं मृदुलता बनी रहती है। वे लिखते हैं "जिस अध्यापक के अन्दर का बाल्य मन मर गया वह बच्चों की जिम्मेदारी लेने का अधिकारी नहीं है। अध्यापक के अन्दर का स्थायी बालक बच्चों की एक आवाज पर बाहर आ जाता है। इसकी एक ही आवाज में एक मृदुल, जीवित मुस्कुराहट आ जाती है। अगर बच्चा उसे अपनी ही तरह का एक सदस्य न मानकर प्रागैतिहासिक काल का अपरिचित विशाल जानवर मानता हो तो वह अपने कोमल हाथों को बिना भय के उसकी ओर नहीं बढ़ा पाएगा।" (शिक्षाः 311, 312) बच्चे सबसे अच्छी शिक्षा प्यार, विश्वास एवं प्रसन्नता के माहौल में ही प्राप्त कर सकते हैं।
रवीन्द्रनाथ इस बात को बर्दाश्त कर सकते थे कि ऊँची कक्षाओं में अच्छे अध्यापक न हों पर वे छोटे बच्चों के लिए सर्वाधिक अनुभवी एवं संवेदनशील अध्यापकों को ही रखते थे। रवीन्द्रनाथ अध्यापकों एक ही मंत्र दिया करते थे "कृपया सिद्धान्तों की शिक्षा बच्चों को न दे, इसके बजाए अपने को पूर्णतः उनके अनुराग में समर्पित कर दे । "
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