रूसो की छात्र संकल्पना |रूसो के अनुसार विद्यार्थी जीवन के सोपान |Rousseau's Student Concept in Hindi
रूसो की छात्र - संकल्पना (Rousseau's Student Concept)
रूसो की छात्र संकल्पना (Rousseau's Student Concept in Hindi)
- रूसो बालक को ईश्वर की पवित्र कृति मानता है। प्रकृति-निर्माता के हाथों से जो भी वस्तु आती है वह पवित्र होती है परन्तु मनुष्य के हाथों में आकर उसकी पवित्रता खत्म होने लगती है। रूसो बालक को जन्म से अच्छा और पवित्र मानता है और यह सुझाव देता है कि बालक के प्रकृत गुणों को शिक्षा के द्वारा समाप्त न किया जाये। रूसो का यह स्पष्ट मत है कि बच्चे को बच्चा रहने दिया जाये - शिक्षा द्वारा कृत्रिम रूप से उसे अल्पावस्था में ही व्यस्क बनाने का प्रयास न किया जाये । मानव-जीवन के क्रम में बचपन का एक स्थान है, निश्चय ही प्रौढ़ को प्रौढ़ और बच्चे को बच्चा मानकर व्यवहार करना चाहिए ।
- रूसो बालक पर किसी भी तरह के दबाव डाले जाने का विरोधी है । वह समाज की बुराइयों से बच्चे को बचाना चाहता है। वह उसे प्रसन्न देखना चाहता है। रूसो परम्परागत शिक्षा के अवगुणों पर ध्यान खींचते हुए पूछता है "उस निर्दयी शिक्षा को क्या कहा जाए, जो वर्तमान को अनिश्चित भविष्य के लिये बलिदान करा देती है, जो बालक को सभी तरह से प्रतिबंधित कर उसके जीवन को भविष्य की ऐसी खुशी के लिए दुखमय बना देती है जो शायद वह कभी प्राप्त न कर सके।"
- रूसो प्रकृति की व्याख्या 'स्वभाव' की दृष्टि से भी करता है। बालक की रूचि एवं स्वभाव के अनुसार शिक्षा देने की बात सर्वप्रथम कही जाने लगी फलस्वरूप बालकेन्द्रित शिक्षा का आन्दोलन चल पड़ा । पर इन सबके मूल में रूसो की छात्र या बालक संकल्पना ही है।
रूसो के अनुसार विद्यार्थी जीवन के सोपान
रूसो ने विद्यार्थी के जीवन को चार भागों में बाँटा है-
(अ) शैशवावस्था
(ब) बाल्यकाल (12 वर्ष की अवस्था तक )
(स) पूर्व किशोरावस्था ( 12 से 15 वर्ष) तथा
(द) किशोरावस्था ( 15 वर्ष से आगे )
रूसो कहते हैं "प्रत्येक शिक्षा के लिए एक निश्चित समय है और हमें इससे जानना चाहिए ।"
(अ) शैशवावस्था :
- रूसो का मानना है कि शिक्षा जन्म से ही प्रारम्भ हो जाती है। वे बच्चे की उचित देखभाल का नियम बताते हैं। इस काल में उसके शरीर एवं इन्द्रियों के सही विकास पर ध्यान देना चाहिए। बच्चे की मातृभाषा में वार्तालाप के द्वारा उनमें भाषा की योग्यता का विकास किया जा सकता है। रूसो बच्चों में आदतों के विकास का विरोध करता है। वह कहता है "बच्चे को केवल एक आदत विकसित करने देना चाहिए और वह है किसी भी आदत का नहीं होना ।" इस समय बच्चों को अपनी स्वतंत्रता पर नियंत्रण रखने के लिए तैयार किया जाता है। उसमें आत्म नियंत्रण की भावना भरी जाती है।
(ब) बाल्यकाल :
- इस काल में भी रूसो लड़कों के लिए किसी भी तरह के पाठ्य पुस्तक के उपयोग का विरोध करता है। वह बारह वर्ष तक एमिल को पुस्तकों से दूर रखना चाहता था। एकमात्र पुस्तक 'रॉबिन्सन क्रूसो को छोड़कर। लड़के को निरीक्षण एवं अनुभव के द्वारा सीखने का अवसर मिलना चाहिए। इन्हें अलग से कुछ भी नहीं पढ़ाना चाहिए। इस तरह से निषेधात्मक शिक्षा के संप्रत्यय का विकास हुआ।
- निषेधात्मक शिक्षा रूसो के शिक्षा - सिद्धान्त का एक महत्वपूर्ण आयाम है । एमिल के प्रशिक्षण का सिद्धान्त है "हर तरह के ज्ञान के ग्रहण का एक निश्चित समय होता है, और वह समय जब बच्चा उसकी आवश्यकता अनुभव करता है।" रूसो के अनुसार यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। जबकि परम्परागत पद्धति में विद्यार्थी की आवश्यकता का अनुमान किया जाता है। "प्रौढ़ो के द्वारा दी गई शिक्षा प्रायः समय पूर्व होती है।" इस सिद्धान्त के आधार पर ही रूसो बारह वर्ष की आयु तक बच्चे की शिक्षा रोके रहने की बात कहता है। इस समय तक उसे शिक्षा न दी जाये और उसे अवसर दिया जाय कि वह बिना कोई सामाजिक बुराई ग्रहण किये बारह वर्ष तक का समय व्यतीत करे। इसे रूसो ने निगेटिव एडुकेशन (निषेधात्मक शिक्षा) कहा ।
- रूसो चाहते हैं कि बच्चे में सही कार्य करने की आदत डाली जाय, जो कि नैतिक जीवन का पहला पाठ है। सही और गलत की समझ सामाजिक जीवन के बजाय प्रकृति द्वारा होती है । निर्भरता दो तरह की होती है - वस्तुओं पर निर्भर करना, जो कि प्रकृति का कार्य है; तथा मानव पर निर्भर करना जो कि समाज का कार्य है। वस्तु पर निर्भरता गैर नैतिक है तथा स्वतंत्रता को आघात नहीं पहुँचाती है और न ही दुर्गुणों को जन्म देती है।
- बारह वर्ष तक की उम्र तक की शिक्षा का प्रमुख सिद्धान्त है "बच्चे को वस्तुओं पर निर्भर रहने दो। इससे मानव पर निर्भर रहने से स्वतंत्रता मिल जाती है।" यह गैर नैतिक एवं गैर सामाजिक शिक्षा है। अतः प्रारम्भिक वर्षो की शिक्षा केवल निषेधात्मक होनी चाहिए। इसमें अच्छाइयों या सत्य को पढ़ाना नहीं है वरन् हृदय को बुराइयों तथा गलत होने की भावना से बचाना है। मुख्य सिद्धान्त है समय को बचाया न जाय वरन् इसे व्यतीत करने दिया जाय । इस काल में शरीर, अंगों, इन्द्रियों का व्यायाम होना चाहिए पर मस्तिष्क को निष्क्रिय रहने देना चाहिए।
- बच्चे को पुस्तकीय ज्ञान देने की जगह उसे खेलने-कूदने, एवं इच्छानुसार अन्य क्रियाओं को करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इन क्रिया-कलापों एवं अनुभवों से उसका शरीर शक्तिशाली होगा जिससे मानसिक क्षमता भी बढ़ेगी। रूसो के अनुसार नैतिक शिक्षा देने के स्थान पर उसे अपने कार्यों के प्राकृतिक परिणाम के आधार पर उचित-अनुचित के विवेक के विकास का अवसर मिलना चाहिए । अतः इस काल में किसी औपचारिक पाठ्यक्रम की आवश्यकता नहीं है।
(स) पूर्व किशोरावस्था
- बारह वर्ष की आयु के उपरांत रूसो बच्चों को तीव्रता से शिक्षा देने की बात कहता है। यह तीव्रता संभव है क्योंकि विद्यार्थी अधिक परिपक्व होता है और ज्ञान को अधिक वस्तुगत या मूर्त तथा व्यावहारिक रीति से दिया जाता है। रूसो कहते हैं "मुझे बारह वर्ष का एक लड़का दीजिए जो कुछ भी नहीं जानता हो लेकिन पन्द्रह वर्ष की अवस्था में वह उतना जानता होगा जितना उस उम्र का लड़का जो शैशवावस्था से ही शिक्षा प्राप्त कर रहा है, पर इस अन्तर के साथ कि तुम्हारा छात्र रट कर चीजों को जानता है जबकि मेरा विद्यार्थी इन चीजों को कैसे प्रयोग किया जाय जानता है।"
- रूसो के अनुसार इस स्तर पर प्राकृतिक विज्ञान, भाषा, गणित, काष्ठकला, संगीत, चित्रकला, सामाजिक जीवन तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इस स्तर पर भी पुस्तकों से अधिक जोर विद्यार्थी द्वारा इन्द्रियों के प्रयोग द्वारा अनुभव प्राप्त करने पर होना चाहिए। विज्ञान का अध्ययन लड़के की जिज्ञासा को बढ़ायेगा उसे खोज या अविष्कार हेतु प्रेरित करेगा तथा वह स्वयं सीखने की प्रक्रिया को तेज करेगा। चित्रकला आंख और मांसपेशियों को प्रशिक्षित करेगा। शिल्प या हस्त उद्योग लड़के में कार्य करने की क्षमता का विकास करेगा। सामाजिक जीवन में व्यावहारिक अनुभव से वह समझेगा कि मानव एक दूसरे पर निर्भर करेगा, जिससे बच्चा सामाजिक उत्तरदायित्व को समझेगा और उसका निर्वहन करेगा।
- रूसो का कहना है कि किताबें ज्ञान नहीं देती है वरन् बोलने की कला सिखाती है। अतः पाठ्यक्रम पुस्तकों पर आधारित न होकर कार्य पर आधारित होना चाहिए। इस काल में किशोर को शिक्षा प्राप्त करने एवं कठिन परिश्रम करने के लिए पर्याप्त समय और अवसर मिलना चाहिए।
(द) किशोरावस्था :
- शिक्षा के चतुर्थ चरण में रूसो नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा पर जोर देता है। नैतिक शिक्षा भी वास्तविक अनुभव के द्वारा होनी चाहिए न कि व्याख्यानों के द्वारा। जैसे कि एक नेत्रहीन व्यक्ति को देखने के बाद किशोर या नवयुवक में सहानुभूति, प्रेम, स्नेह, दया जैसे भावों का स्वतः संचार होता है। धार्मिक शिक्षा भी इसी तरह से देने का सुझाव रूसो ने दिया पर इसके लिए इतिहास, पौराणिक एवं धार्मिक कथाओं का भी उपयोग किया जा सकता है। धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के अतिरिक्त रूसो शारीरिक स्वास्थ्य, संगीत और यौन शिक्षा को भी महत्व प्रदान करता है।
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