अरविन्द का शिक्षा-दर्शन |अरविन्द के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य| Shri Arvind Education Philosophy in Hindi

अरविन्द का शिक्षा-दर्शन  (Shri Arvind Education Philosophy in Hindi)

अरविन्द का शिक्षा-दर्शन |अरविन्द के अनुसार  शिक्षा का उद्देश्य| Shri Arvind Education Philosophy in Hindi


अरविन्द का शिक्षा-दर्शन (Shri Arvind Education Philosophy in Hindi)

 

  • श्री अरविन्द का दर्शन इस धारणा पर आधारित है कि मानव का बौद्धिक विकास अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गया है। इसके आगे आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। यदि मानव इस दिशा में नहीं बढ़ता है तो न केवल उसका विकल्प क्रम अवरूद्ध होगा वरन् वह पतन की ओर अग्रसर हो जायेगा | 

  • इन्द्रियानुभव को श्री अरविन्द सर्वोच्च ज्ञान नहीं मानते थेवरन् उसे निम्न कोटि का ज्ञान मानते थे। उनके अनुसार ज्ञान की अनेक कोटियाँ है और सर्वोच्च कोटि आध्यात्मिक अनुभूति है जिसे हम इस जगत में प्राप्त कर सकते हैं। 

  • अरविन्द मनुष्य के एकांगी विकास को हानिप्रद मानते थे । वे स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु मानव के सर्वांगीण विकास पर जोर देते थे। इसके लिए उन्होंने प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनके दर्शन में न तो प्राचीन भारतीय संस्कृति से पलायन का भाव है न ही पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण । दोनों का समन्वित रूप ही बेहतर शिक्षा व्यवस्था का विकास कर सकता है। 

  • 1907 में श्री अरविन्द ने ए सिस्टम ऑफ नेशनल एडुकेशननामक निबन्ध लिखा। इसमें उन्होंने अपनी शिक्षा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा "प्रत्येक मानव के अन्दर कुछ ईश्वर प्रदत्त दिव्य शक्ति हैकुछ जो उसका अपना हैजिसे पूर्णता की ओर अग्रसर किया जा सकता है। शिक्षा का कार्य है इसे चिन्हित करनाविकसित करना एवं उपयोग में लाना । शिक्षा का सर्वप्रमुख लक्ष्य होना चाहिए विकसित होती आत्मा की अन्तर्निहित शक्ति को पूर्णतः विकसित कर श्रेष्ठ कार्य हेतु तैयार करना ।" 1910 में अपने एक दूसरे बहुचर्चित लेख में अरविन्द ने एक ऐसा वाक्य लिख जो शिक्षा का सूत्र वाक्य बन गया। उन्होंने लिखा "सही शिक्षा का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाया नहीं जा सकता है।" 
  • इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री अरविन्द के विचार में हर व्यक्ति की आत्मा में ज्ञान अन्तर्निहित है। उन्होंने सही शिक्षा को उद्घाटित करने का साधन अन्तःकरण को माना । श्री अरविन्द के अनुसार अन्तःकरण के चार पटल हैं चित्तमानसबुद्धि और अन्तर्दृष्टि । चित्त वस्तुतः भूतकालिक मानसिक संस्कार है। जब कोई व्यक्ति कोई बात याद करता है तो वह छन कर चित्त में संग्रहित होती है। इसी से क्रियाशील स्मृति आवश्यकता एवं क्षमतानुसार कभी-कभी कुछ चीजों को चुन लेती है। सही चुनाव हेतु उपयुक्त शिक्षा एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। दूसरे पटल मानस को मस्तिष्क कहा जा सकता है। यह ज्ञानेन्द्रियों से तथ्यों को प्राप्त कर उसे विचार का रूप देता है। ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त मस्तिष्क स्वयं भी तथ्यों या संप्रत्ययों को ग्रहण करता है। अतः ज्ञानेन्द्रियों एवं मस्तिष्क का प्रशिक्षण लाभदायक है । अन्तःकरण के तीसरे पटल 'बुद्धिकी भूमिका शिक्षा में अधिक महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क द्वारा प्राप्त किए ज्ञान को व्यवस्थित करना उनका विश्लेषण एवं संश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुँचने का कार्य बुद्धि का है। अन्तःकरण का चतुर्थ पटल 'अन्तर्दृष्टिपरक प्रत्यक्षीकरणकी शक्ति है। इससे ज्ञान का प्रत्यक्ष दर्शन होता है और मानव भविष्य के बारे में भी जान सकता है। पर मानव का अन्तःकरण इस शक्ति को अभी तक जागृत नहीं कर सका है। यह विकास की अवस्था में है और भविष्य में सशिक्षा द्वारा इस अन्तर्निहित शक्ति को मानव प्राप्त कर सकता है।

 

अरविन्द के अनुसार  शिक्षा का उद्देश्य 

श्री अरविन्द ने शिक्षा के निम्नलिखित महत्वपूर्ण उद्देश्य बतायें-

 

बालक का सर्वांगीण विकास 

श्री अरविन्द के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य शरीरमस्तिष्क तथा आत्मा का सर्वांगीण विकास करना है। ताकि इनका उपयोग वे स्वंय में निहित दैवी सत्य को प्राप्त करने में उपकरण के रूप में कर सकें। शिक्षा छात्रों को स्वय का समग्र रूप से विकास करने में सहायता प्रदान करती है। वे बालक के शरीरप्राणमनबुद्धिआत्मा आदि विभिन्न पक्षों के समन्वित विकास पर बल देते हैं। श्री अरविन्द एसेज ऑन द गीता में लिखते हैं "बालक की शिक्षा उसकी प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तमसर्वाधिक शक्तिशालीसर्वाधिक अन्तरंग और जीवन पूर्ण हैउसको अभिव्यक्त करने वाली होनी चाहिए। मानस की क्रिया और विकास जिस साँचे में ढलनी चाहिएवह उनके अन्तरंग गुण और शक्ति का साँचा है। उसे नई वस्तुएँ अवश्य प्राप्त करनी चाहिएपरन्तु वह उनको सर्वोत्तम रूप से और सबसे अधिक प्राणमय रूप में स्वयं अपने विकासप्रकार और अन्तरंग शक्ति के आधार पर प्राप्त करेगा।" आत्म-तत्व की शिक्षा अरविन्द शिक्षा का उद्देश्य सूचनाओं को एकत्र करना नहीं मानते । उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है आत्म-तत्व की शिक्षा या आत्म-शिक्षा प्रदान करना। जिससे मानव आत्म तत्व को परमात्मा के साथ एकाकार कर सके।

 

विद्यार्थी का सामाजिक विकास 

अरविन्द ने शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बालकों में सामाजिक पक्ष के विकास को माना वे एक दैवी समाज और दैवी मानव की कल्पना करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ऐसे सर्वांग पूर्ण मनुष्य का विकास करना हैजो केवल व्यक्ति के रूप में ही नहीं बल्कि समाज के सदस्य के रूप में विकसित होता है। 


राष्ट्रीयता की शिक्षा 

श्री अरविन्द का दृढ़ विश्वास था कि मानव की ही तरह प्रत्येक राष्ट्र की भी आत्मा होती है जो मानव आत्मा एवं सार्वभौमिक - आत्मा के मध्य की कड़ी है। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में चल रहे राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन को अरविन्द ने नेतृत्व प्रदान किया था। अतः वे एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति का विकास करना चाहते थे जो भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के अनुरूप हों। उनका कहना था कि "हम जिस शिक्षा की खोज में हैंवह एक भारतीय आत्मा और आवश्यकता तथा स्वभाव और संस्कृति के उपयुक्त शिक्षा हैकेवल ऐसी शिक्षा नहीं है जो भूतकाल के प्रति भी आस्था रखती होबल्कि भारत की विकासमान आत्मा के प्रतिउसकी भावी आवश्यकताओं के प्रतिउसकी आत्मोत्पत्ति की महानता के प्रति और उसकी शाश्वत आत्मा के प्रति आस्था रखती है।"

 

सामन्जस्य की शिक्षा 

श्री अरविन्द बाह्य रूप से विरोधी दिख रहे तत्वों में एक व्यापक सामन्जस्य की संभावना देखते थे। उनके विचारों में हम ज्ञानभक्तिकर्म का समन्वयनिर्गुण और सगुण का समन्वयद्वैत और अद्वैत का समन्वय आसानी से देख सकते है। श्री अरविन्द शिक्षा के द्वारा सामन्जस्य और समन्वय की प्रक्रिया को मानव मात्र के कल्याण के लिए और आगे ले जाना चाहते थे। 

इस प्रकार से श्री अरविन्द ने शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व के सर्वांगीण और समन्वित विकास पर बल दिया। वे शिक्षा को सौंदर्य पर आधारित करना चाहते थे ताकि सत्य की अनुभूति हो सके। इस प्रकार उनकी शिक्षा का लक्ष्य सत्यशिव और सुन्दर के समन्वित रूप को प्राप्त करना था ।

 

अरविन्द के अनुसार पाठ्यक्रम

 

पाठ्यक्रम निर्माण के सन्दर्भ में अरविन्द के आधारभूत तीन सिद्धान्त हैं:

 

i. स्वयं सीखता हैअध्यापक उसकी सहायता सुषुप्त शक्तियों के समझने में करता है। 

ii. पाठ्यक्रम बच्चे की विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर बनाना चाहिए। यह आत्मानुभूति के महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। 

iii. पाठ्यक्रम निर्माण में वर्तमान से भविष्य तथा समीप से दूर का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। शिक्षा 'स्वदेशीसिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। पूर्व तथा पश्चिम के ज्ञान के समन्वय पर अरविन्द जोर देते थे पर उनका मानना था कि पहले स्वदेशी ज्ञान में विद्यार्थी की नींव मजबूत कर ही पाश्चात्य ज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए। वे कहते हैं "सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा का लक्ष्य और सिद्धान्त निश्चय ही आधुनिक सत्य और ज्ञान की अवहेलना करना नहीं हैबल्कि हमारी नींव को हमारे अपने विश्वासहमारे अपने मस्तिष्कहमारी अपनी आत्मा पर आश्रित करना है ।"

 

श्री अरविन्द की पन्चमुखी योजना

श्री अरविन्द ने अपनी सर्वांग विचारधारा के अनुरूप शिक्षा क्रम की एक वृहद पन्चमुखी योजना प्रस्तुत की। ये पाँच पक्ष हैं- भौतिकप्राणिकमानसिकअन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक । ये पाँचों पक्ष उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाएँ हैं। साथ ही प्रारम्भ होने के उपरांत प्रत्येक पक्ष का विकास आजीवन होता रहता है।

 

(i) शारीरिक शिक्षा:- 

शरीर मानव के सभी कर्मों का माध्यम है। श्री अरविन्द का योग दर्शन में स्वस्थ शरीर को बहुत महत्व दिया गया है। शारीरिक शिक्षा के तीन पक्ष हैं- (अ) शारीरिक क्रियाओं को संयमित करना (ब) शरीर के सभी अंगों और क्रियाओं का समन्वित विकास ( स ) शारीरिक दोषों को खत्म करना । शारीरिक विकास हेतु श्री अरविन्द आश्रम में योगव्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलों की समुचित व्यवस्था है।

 

(ii) प्राणिक शिक्षा:-

 प्राणिक शिक्षा के अन्तर्गत इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का अभ्यास कराया जाता है। तथा चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता है। इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति उपदेशों या व्याख्यानों से नहीं हो सकती है। अध्यापकों को आदर्श-व्यवहार प्रस्तुत करना होता है ताकि छात्र उनकी अच्छाइयों को ग्रहण कर सकें। साथ ही महापुरूषों के आदर्श उपस्थित करने होते हैं। छात्र स्वाध्याय एवं संयम से भी इन गुणों को प्राप्त करता है ।

 

(iii) मानसिक शिक्षा:- 

मन अत्यधिक चंचल होता है इसलिए इसे नियंत्रित करना कठिन है। पुस्तकीय ज्ञान या तथ्यों के संकलन से यह कार्य नहीं हो सकता है। मानसिक शिक्षा स्वस्थ संस्कृति के निर्माण एवं बेहतर सामाजिक सम्बन्धों के लिए आवश्यक है। श्री माताजी के अनुसार मन की शिक्षा के पाँच अंग हैं-

 

  • 1. एकाग्रता की क्षमता को जाग्रत करना ।
  •  2. मन को व्यापक विस्तृत और समृद्ध बनाना । 
  • 3. उच्चतम लक्ष्य का निर्धारण कर समस्त विचारों को उसके साथ सुव्यवस्थित करना । 
  • 4. विचारों पर संयम रखना तथा गलत विचारों का त्याग करना । 
  • 5. मानसिक स्थिरतापूर्ण शान्ति तथा सर्वोच्च सत्ता से आने वाली अंतःप्रेरणाओं को सही स्वरूप में ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना ।

 

मानसिक विकास के लिए योग को अपनाना आवश्यक है। यमनियम आसान और प्राणायाम विद्यार्थी की एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं।

 

(iv) आन्तरात्मिक शिक्षा:- 

आन्तरात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत उन शाश्वत दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है जो मानव मन में प्रारम्भ से ही मथता रहा है जैसे जीवन का लक्ष्य क्या हैपृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व का क्या कारण हैमानव और शाश्वत सत्ता का क्या सम्बन्ध हैआदि । अन्तरात्मा के विकास के बिना मानव के संपूर्ण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है अन्तरात्मा के विकास से ही मानव जीवन - लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्तरात्मा के विकास के लिए योग-साधना आवश्यक है।

 

(v) आध्यात्मिक शिक्षा:- 

  • आध्यात्मिक शिक्षा शिक्षा प्रक्रिया का उच्चतम शिखर है। इसके माध्यम से शिक्षार्थी सार्वभौम सत्ता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है। श्री माताजी के अनुसार आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर लेने पर "सहसा एक आन्तरिक कपाट खुल जाएगा और तुम सब ऐसी ज्योति में प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव कराएगी कि तुम सदा ही जीवित रहे हो और सदा ही जीवित रहोगे। नाश बाह्य रूपों का होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये रूप वस्त्रों के समान हैंजिन्हें पुराने पड़ जाने पर फेंक दिया जाता है। "

 

  • श्री अरविन्द मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि विदेशी भाषा के शब्दों का संदर्भ भिन्न होता है अतः विदेशी भाषा का उपयोग विद्यार्थी का ध्यान शिक्षण-तत्व से हटाती है और वह एकाग्र होकर शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता है। पर श्री अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के विरोधी भी नहीं थे। वे चाहते थे छात्र अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं को सीखें।

 

  • विभिन्न विषयों के शाब्दिक ज्ञान के साथ-साथ श्री अरविन्द ने पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने विद्यालय को समुदाय के सामाजिक-आर्थिक परिवेष से जोड़ने पर बल दिया। वे शिल्प की शिक्षा पर बल देते थे। वे काव्यकला और संगीत की शिक्षा आवश्यक मानते थे। इन सबसे सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है। श्री अरविन्द विज्ञान की शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हैं। विज्ञान से अन्वेषणविश्लेषणसंश्लेषण तथा समालोचना की शक्ति का विकास होता है। प्रकृति के विभिन्न जीवोंपादपों एवं पदार्थों के अवलोकन एवं अध्ययन से मानसिक शक्तियों का विकास होता है और संवेदनशीलता बढ़ती है।

 

  • वस्तुओं के उपरांत शब्दों और विचारों पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। वे राष्ट्रीय साहित्य और इतिहास का शिक्षण आवश्यक मानते थे। वे राष्ट्र को भूमि के टुकड़े से बहुत अधिक मानते थे । इतिहास के माध्यम से वे विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम की भावना का विकास करना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दौरान विद्यार्थियों की एक सभा को सम्बोध करते हुए कहा: "एक राष्ट्र के इतिहास में कभी-कभी ऐसे समय भी आते हैजबकि दैव उसके सम्मुख एक ऐसा कार्य एक ऐसा लक्ष्य उपस्थित कर देता है जिसके सामने प्रत्येक वस्तु त्याग देनी होती है चाहे वह कितनी भी ऊँची और पवित्र क्यों न हो। हमारी मातृभूमि के लिए भी ऐसा समय आ गया हैजबकि उसकी सेवा से अधिक प्रिय और कुछ नहीं हैजबकि अन्य सबकुछ को इसी लक्ष्य की ओर निर्देशित किया जाना चाहिये। तुम अध्ययन करते हो तो उसी के लिए अध्ययन करो। अपने शरीरमन और आत्मा को उसी की सेवा के लिए प्रशिक्षित करो। तुम अपनी आजीविका कमाओगेताकि तुम उसके लिए जीवित रह सको। तुम विदेशों को जाओगे ताकि तुम ज्ञान के साथ वापस लौट सको जिससे कि तुम उसकी सेवा कर सको।"

 

  • श्री अरविन्द नैतिक शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। वे राजनीति को भी नीति पर आधारित करना चाहते थे। वे धर्म के मूल तत्वों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव देते हैं। वे धर्म को आत्मा और प्रकृति के बीच मध्यस्थ के रूप में देखते हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं श्री अरविन्द शारीरिक शिक्षा पर बल देते हैं क्योंकि शरीर ही सारे धर्म और कर्म का आधार है। वे योग के द्वारा मनमस्तिष्क और शरीर तीनों का सही दिशा में सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल देते हैं।

 

अरविन्द के अनुसार शिक्षण - विधि

 

  • यद्यपि अरविन्द ने शिक्षण विधि के बारे में स्पष्ट नीति या कार्ययोजना का विकास नहीं किया पर उनके कार्यों से उनकी शिक्षण विधि के संदर्भ में मूलभूत सिद्धान्तों का विश्लेषण किया जा सकता है। 
  • श्री अरविन्द का यह मानना था कि छात्र को कुछ भी ऐसा नहीं सिखाया नहीं जा सकता जो पहले से उसमें निहित नहीं है। छात्र को सीखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए- शिक्षक का कर्तव्य है कि वह उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करे। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बच्चे की इच्छा एवं रूचि अधिक महत्व रखता है। विद्यार्थी जिस विषय की शिक्षा में रूचि रखता हो उसे उस विषय की शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही शिक्षण विधि का चयन छात्र की रूचि के अनुसार होनी चाहिए। शिक्षक को इस तरह से शिक्षण कार्य करना चाहिए कि छात्र पढ़ाये जा रहे पाठ एवं विषय में रूचि ले। 
  • श्री अरविन्द ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे की शिक्षा वर्णमाला से प्रारम्भ नहीं होनी चाहिए। उसे प्रारम्भ में प्रकृति के विभिन्न रूपों- पेड़ पौधोंसितारोंसरितावनस्पतियों एवं अन्य भौतिक पदार्थों का निरीक्षण करने का अवसर देना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में निरीक्षण शक्तिसंवेदनशीलतासहयोग एवं सहअस्तित्व का भाव विकसित होता है। इसके बाद अक्षरों या वर्णों को सिखाना चाहिए। फिर शब्दों का अर्थ बताकर उनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग करना सिखाना चाहिए। शब्द प्रयोग द्वारा साहित्यिक क्षमता का विकास होता है। 
  • विज्ञान - शिक्षण में छात्र की जिज्ञासा प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए आस-पास के वातावरण में स्थित जीव-जन्तुपेड़ पौधेमिट्टी - पत्थरतारे-नक्षत्र आदि का निरीक्षण कर प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन कर विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा ग्रहण करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए ।

 

  • छात्रों को दर्शन पढ़ाते समय छात्रों में बौद्धिक चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए । इतिहास इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हो । श्री अरविन्द शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के उपयोग पर बल देते थे। इससे राष्ट्रीय साहित्य एवं इतिहास को समझने में आसानी होती हैसाथ ही चारों ओर के परिवेश का भी बेहतर ज्ञान मिलता है।

 

  • अरविन्द ने ऐसी शिक्षण विधि अपनाने पर जोर दिया जिससे छात्र शिक्षा का अर्थ केवल सूचनाओं का संग्रह न माने। वह रटने पर जोर न दे वरन् ज्ञान प्राप्त करने के कौशलों को महत्वपूर्ण मानकर उनका विकास करे । विद्यार्थियों में समझस्मृतिनिर्णय क्षमताकल्पनातर्कचिन्तन जैसी शक्तियों का विकास किया जाना चाहिए।

 

  • श्री अरविन्द धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थेपर उनका यह स्पष्ट मत है कि सप्ताह के कतिपय दिनों में कुछ कालांशों को धार्मिक शिक्षा के लिए तय कर उसकी शिक्षा देना उचित या लाभदायक नहीं है। धार्मिक शिक्षा बाल्यावस्था से ही पवित्रशान्त एवं शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में दी जानी चाहिए। आस्था से पूर्ण जीवन ही धार्मिक शिक्षा का बेहतर माध्यम है।

 

अरविन्द की दृष्टि में अध्यापक

 

  • अध्यापक मात्र 'इन्स्ट्रक्टर नहीं है। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य "अपने आपको समझने में छात्र की सहायता करना है। वह सूचनाओं को विद्यार्थियों के समक्ष परोसने वाला नहीं वरन् मार्ग-दर्शक है। अध्यापक विद्यार्थियों की क्रियात्मक एवं रचनात्मक शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है। 

  • महर्षि अरविन्द के अनुसार शिक्षक को राष्ट्रीय संस्कृति के माली के रूप में कार्य करना चाहिए। उसका कर्तव्य है संस्कार की जड़ों में खाद देना । और जड़ों को सींच सींच कर विद्यार्थी को महामानव बनाना । 
  • महर्षि अरविन्द की शिष्या श्री माँ ने माता-पिता के कर्तव्यों के संदर्भ में जो बाते कहीं वह अध्यापकों पर भी पूर्णतः लागू होती है। वे कहती हैं "बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिए प्रथम कर्तव्य है अपने आप को शिक्षित करनाअपने बारे में सचेतन होना और अपने ऊपर नियन्त्रण रखनाजिससे हम अपने बच्चे के सामने कोई बुरा उदाहरण प्रस्तुत न करें। उदाहरण द्वारा ही शिक्षा फलदायी होती है। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करेतो अपने लिए आदर भाव रखो और हर क्षण सम्मान के योग्य बनो। कभी भी स्वेच्छाचारीअत्याचारीअसहिष्णु और क्रोधित मत ओ। जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोई प्रश्न पूछेतब तुम यह समझकर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकताउसे जड़ता और मूर्खता के साथ कोई उत्तर मत दो। अगर तुम थोड़ा कष्ट उठाओ तो तुम्हारी बात वह हमेशा समझ सकेगा।" 

  • अरविन्द आश्रमपाण्डिचेरी में कार्य करने वाले अध्यापकों को अलग से कोई वेतन नहीं दिया जाता है। श्री अरविन्द शिक्षा को धन के आदान प्रदान से जोड़ कर इसे व्यापार का रूप देने के विरोधी थे। अतः आश्रम विद्यालय और विश्वविद्यालय के कार्यरत अध्यापकों की आवश्यकता को आश्रम उसी तरह से पूरा करता है जैसे अन्य साधकों की। यह प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के महान आदर्श पर आधारित है जब गुरू शिष्यों से अध्ययन काल के दौरान कोई आर्थिक माँग नहीं करते थे।

 

अरविन्द के अनुसार छात्र - संकल्पना

 

  • श्री अरविन्द विद्यार्थी को प्रछन्न रूप में सर्वशक्तिमान चैतन्यमानते हैं। वे विद्यार्थी को केवल शरीर के रूप में ही नहीं देखते हैं। शरीर के साथ-साथ प्राणमनबुद्धिआत्मा आदि विभिन्न पक्षों को समान महत्व देते हैं। इन सबका वे समन्वित विकास चाहते हैं। महर्षि अरविन्द शिक्षा में अन्तःकरण को महत्वपूर्ण मानते हैं। जैसा कि हम लोग पहले ही देख चुके हैं अन्तःकरण के कई स्तर होते हैं । अन्तःकरण का प्रथम स्तर "चित्त" कहलाता है। यह स्मृतियों का संचय स्थल है। द्वितीय स्तर "मन" कहलाता है। यह इन्द्रियों से सूचनाओं एवं अनुभवों को ग्रहण कर उन्हें संप्रत्ययों एवं विचारों में परिवर्तित करता है। अन्तःकरण का तृतीय स्तर "बुद्धि" है। जिसका शिक्षा प्रक्रिया में अत्यधिक महत्व है। यह सूचनाओं एवं ज्ञान - सामग्रियों को व्यवस्थित करता हैनिष्कर्ष निकालता है और सामान्यीकरण करता है। इस तरह से बुद्धि सिद्धान्त निरूपण करता है । अन्तःकरण का सर्वोच्च स्तर "साक्षात अनुभूति" है। श्री अरविन्द का स्पष्ट मत है कि "मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी सिखाया नहीं जा सकताजो कि बालक में सुप्त ज्ञान के रूप में पहले से ही विद्यमान न हो ।" अध्यापक इन अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करता हैबाहर से वह कुछ भी आरोपित नहीं कर सकता है।

 

  • बालक के सभी शारीरिक तथा मानसिक अंग उसके स्वयं के वश में होने चाहिएन कि अध्यापक के नियन्त्रण में। बालक की रूचियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें कार्य मिलना चाहिए।

 

  • अरविन्द आश्रम की सारी शिक्षा-व्यवस्था निःशुल्क है। विद्यार्थी एक बार अगर प्रवेश पा लेता है तो उसे कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है। यह प्राचीन गुरूकुल व्यवस्था के अनुरूप है। श्री अरविन्द विद्यार्थियों में स्वअनुशासन की भावना जगाना चाहते थे। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण आध्यात्मिक है अतः स्वभाविक है कि यहाँ के विद्यार्थियों की चेतना का स्तर ऊँचा हो ।


अरविन्द के अनुसार शिक्षण संस्थायें

 

  • राजनीति से सन्यास ग्रहण करने के उपरांत 1910 में श्री अरविन्द पाण्डिचेरी आ गये। वे यहीं साधना-रत हो गये। धीरे-धीरे साधकों एवं अरविन्द के अनुगामियों की संख्या बढ़ती गई। 1926 में यहाँ अरविन्द आश्रम की स्थापना की गई। 1940 से साधकों को आश्रम में बच्चों को रखने की अनुमति दे दी गई। बच्चों की आवश्यकता को देखते है श्री अरविन्द ने 1943 में आश्रम विद्यालय की स्थापना की।

 

  • 6 जनवरी, 1952 को श्री माँ ने 'श्री अरविन्दो इन्टरनेशनल यूनिवर्सिटी सेन्टरकी स्थापना की जिसे बाद में श्री अरविन्द इन्टरनेशनल सेन्टर ऑफ एडुकेशन के नाम से जाना गया। यह पाण्डिचेरी के योगाश्रम का अविभाज्य अंग है क्योंकि योग और शिक्षा का उद्देश्य समान है- सम्पूर्णता की प्राप्ति कर शाश्वत सार्वभौमिक सत्ता से आत्मतत्व का मिलन। इस तरह यहाँ प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा एवं शोध की व्यवस्था है। 

  • चूँकि शिक्षा का उद्देश्य है आत्मतत्व की जागृति एवं विकासअतः लड़कों एवं लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में कोई कृत्रिम अन्तर नहीं किया जाता है। अतः अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के केन्द्र में लड़कियों के लिए भी वही शैक्षिक कार्यक्रम है जो लड़कियों के लिए। यहाँ तक कि शारीरिक शिक्षा में भी भिन्नता नहीं है। इसके बावजूद विकल्प बहुत अधिक हैं पर चयन का आधार लिंग या परम्परागत निषेध न होकर आन्तरिक अभिरूचि है। 
  • आधुनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत हद तक वाणिज्य का रूप ले चुकी है जहाँ अध्यापक अर्थिक लाभ के लिए अध्यापन करता है और छात्र पैसा चुका कर अन्य चीजों की तरह शिक्षा को खरीदते हैं। आश्रम में एक बार प्रवेश के बाद शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क है। और अध्यापक भी अन्य साधकों की ही तरह आश्रम की व्यवस्था से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है। उन्हें अलग से कोई वेतन नहीं दिया जाता है। वे प्रेम और सत्य की खोज के सहयात्री हैं न कि ज्ञान का बेचने और खरीदने वाले । शिक्षा केन्द्र एक समुदाय एवं एक चेतना के रूप में कार्य करता है जिसके केन्द्र में समर्पण का भाव है। 1973 में अपने शरीर त्याग के पूर्व श्री माँ ने शिक्षा केन्द्र की जड़ें मजबूत कर दी थी। उनके बाद भी अरविन्द के आदर्शों के अनुरूप शिक्षा केन्द्र शिक्षण अधिगम के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहा है। 

  • 1968 में श्री माँ ने 'ओरोविलेकी स्थापना की । यह जातिधर्मभाषाप्रजाति से ऊपर उठकर संपूर्ण नगर के सामूहिक निवास एवं शिक्षा का अद्भुत प्रयोग है। यह मानव के भविष्य में विश्वास की अभिव्यक्ति है । ओरोविले जीने की एक 'नई शैलीके विकास का प्रयास है जो श्री अरविन्द के 'नई मानवताके संप्रत्यय पर आधारित है।

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