श्री अरविन्द का जीवन-दर्शन (Shri Arvind Life Philosophy )
श्री अरविन्द का जीवन-दर्शन (Shri Arvind Life Philosophy in Hindi)
श्री अरविन्द ने योग दर्शन के महत्व को रेखांकित करते हुए आधुनिक परिवेश के अनुरूप उसकी पुनर्व्याख्या की। उनके दर्शन को अनुभवातीत सर्वांग योग दर्शन के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने अपने विचार को योग की संकुचित व्याख्या तक सीमित रखने की जगह सत्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्गों को समन्वित रूप में बाँधकर देखने का प्रयास किया ।
अरविन्द के अनुसार जीवन एक अखण्ड प्रक्रिया है। चेतना के अनेक स्तर हैं। इसे निम्नत्तर स्तर से उठाकर उच्चतम स्तर तक ले जाया जा सकता है। उन्होंने अनुभव किया कि आधुनिक युग में मस्तिष्क एवं बुद्धि की दृष्टि से विकास चरम को प्राप्त कर चुका है। अब दैवी समाज की कल्पना साकार की जा सकती है। अगर इससे आगे नहीं बढ़ा गया तो ह्रास या पराभव निश्चित है। अतः इस चेतन तत्व को प्रकाश, शक्ति एवं सत्य से समन्वित करना आवश्यक है। क्योंकि इसी के माध्यम से वह मानव जीवन के प्रमुख उद्देश्य अनुभवातीत सत्य - चेतन तत्व में संपूर्ण रूप से रूपान्तरित हो सकती है।
श्री अरविन्द के अनुसार इस सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक ईश्वर है। जिसे धर्म में ईश्वर कहा जाता है उसे ही दर्शन में ब्रह्म कहा गया है। ईश्वर सृष्टि का कर्ता, सनातन और सर्वात्मा है। ईश्वर परमपुरुष है, ब्रह्म निर्विकार एवं निराकार है किन्तु अन्ततः दोनों एक हैं। ईश्वर द्वारा इस जगत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण श्री अरविन्द ने दो प्रकार से किया है । विकास की दो विपरीत दिशाएँ हैं— अवरोहण एवं आरोहण । ब्रह्म अवरोहण द्वारा अपने को वस्तु जगत में परिवर्तित करता है। इसके सात सोपान हैं सत्, चित्त, आनन्द, अतिमानस, मानस, प्राण एवं द्रव्य । दूसरी प्रक्रिया है आरोहण की। इसमें द्रव्य रूप इस जगत में मनुष्य अपने द्रव्य रूप से आरोहण द्वारा सत् की ओर क्रमशः चलायमान होता है। इसके भी सात चरण हैं द्रव्य, प्राण, मानस, अतिमानस, आनन्द, चित्त और सत् अरविन्द आत्मा को परमात्मा इस अर्थ में भिन्न मानते हैं कि आत्मा में परमात्मा के दो गुण- आनन्द और चित्त तो होते हैं पर सत् नहीं । विभिन्न योनियों से होते हुए आत्मा मनुष्य योनि में प्रवेश करती है और आनन्द और चित्त के साथ सर्वोच्च उद्देश्य सत् को प्राप्त करती है। श्री अरविन्द भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही तत्वों के मूल में ब्रह्म को पाते हैं। अतः दोनों ही तरह के ज्ञान के एकात्मकता को जानना ही ज्ञान है। व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान को उन्होंने अन्य भारतीय मनीषियों की तरह दो भागों में बाँटा है- द्रव्यज्ञान (या अपरा विद्या) एवं आत्म ज्ञान ( परा विद्या) । द्रव्यज्ञान प्रारम्भ है जिसकी परिणति आत्मज्ञान में होनी चाहिए। द्रव्यज्ञान प्राप्त करने का साधन इन्द्रियाँ हैं और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन अन्तःकरण है। आत्मतत्व का ज्ञान योग के द्वारा ही संभव है। श्री अरविन्द के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य सत् चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति । इस महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग एवं ध्यानयोग द्वारा प्राप्त किया सकता है। संसार से पलायन की जगह निष्काम भाव से कर्म करने से ही सत्, चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है। पर इसके लिए स्वस्थ शरीर, विकार रहित मन एवं संयमित आचार-विचार आवश्यक है। योग के द्वारा मानव अपने शरीर, सोच, विचार एवं कार्य पर नियंत्रण रख उन्हें उचित दिशा में ले जा सकता
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