प्लेटो के अनुसार पाठ्यक्रम |प्लेटो की शिक्षा|प्लेटो के अनुसार शिक्षा के स्तर| Syllabus According Plato
प्लेटो के अनुसार पाठ्यक्रम
प्लेटो के अनुसार पाठ्यक्रम
- आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री मानविकी या मानव-जीवन से सम्बन्धित ज्ञान को भौतिक ज्ञान से सम्बन्धित विषयों से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उसके अनुसार जीवन के प्रथम दस वर्षों में विद्यार्थियों को अंकगणित, ज्यामिति, संगीत तथा नक्षत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। गणित आदि की शिक्षा व्यापार की दृष्टि से न होकर उनमें निहित शाश्वत सम्बन्धों को जानने के लिए होना चाहिए। संगीत के गणित शास्त्रीय आधारों की सिफारिश करते हुए प्लेटो कहता है यह शिवम् एवं सुन्दरम् के अन्वेषण में एक उपयोगी सत्य है। यदि इसका अन्य उद्देश्य को ध्यान में रखकर अनुसरण किया जाए तो यह अनुपयोगी है।
- इसके उपरांत विद्यार्थियों को कविता, गणित, खेल-कूद, कसरत, सैनिक - प्रशिक्षण, शिष्टाचार तथा धर्मशास्त्र की शिक्षा देने की बात कही गई। प्लेटो ने खेल-कूद को महत्वपूर्ण माना लेकिन उसका उद्देश्य प्रतियोगिता जीतना न होकर स्वस्थ शरीर तथा स्वस्थ मनोरंजन प्राप्त करना होना चाहिए । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क तथा आत्मा का निवास संभव है। प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था में जिम्नास्टिक (कसरत) एवं नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। प्लेटो ने इन दोनों के समन्वय का आग्रह किया है। वे मानते थे कि 'कसरत विहीन संगीतज्ञ कायर होगा, जबकि संगीत विहीन कसरती पहलवान आक्रामक पशु हो जायेगा।' प्लेटो ने नृत्य को कसरत का ही अंग मानते हुए उसे युद्धकाल और शांतिकाल - दोनों में ही उपयोगी मानते हैं।
- प्लेटो ने साहित्य, विशेषकर काव्य की शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है। काव्य बौद्धिक संवेदनशील जीवन के लिए आवश्यक है। गणित को प्लेटो ने ऊँचा स्थान प्रदान किया है। रेखागणित को प्लेटो इतना अधिक महत्वपूर्ण मानते थे कि उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्था 'एकेडमी' के द्वार पर लिखवा रखा था कि 'जिसे रेखागणित न आता हो वे एकेडमी में प्रवेश न करें। इन विषयों में तर्क का प्रयोग महत्वपूर्ण है- और सर्वोच्च प्रत्यय - ईश्वर की प्राप्ति में तर्क सहायक है।
प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था-
- व्यवस्था में 'डाइलेक्टिक' या दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। प्लेटो के 'डाइलेक्टिक' में नीतिशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान, अध्यात्मशास्त्र, प्रशासन, कानून, जैसे विषय समाहित हैं। इनका अध्ययन उच्चस्तरीय विद्यार्थियों को कराना चाहिए। यह प्लेटो की शिक्षा-व्यवस्था का सर्वोच्च हिस्सा है। डाइलेक्टिक का अध्ययन वस्तुतः दार्शनिकों के लिए है जो राज्य का संचालन करेंगे। दार्शनिक के पाठ्यविषय में प्लेटो संगीत तथा व्यायाम जैसे विषयों को अपर्याप्त कह कर अस्वीकृत कर देता है, क्योंकि ये विषय परिवर्तनीय हैं, इसके विपरीत जिन विज्ञानों का वह अन्वेषक है उन्हें सत् की विवेचना करनी चाहिए: उनमें सर्वगत अनुप्रयोग तथा साथ ही चितनोन्मुख बनाने की क्षमता होनी चाहिए। जिस पाठ्यक्रम की संस्तुति प्लेटो ने की उसमें गणित, ज्यामिति, ज्योतिष विद्या (खगोल विज्ञान) सम्मिलित थे । हस्तकलाओं को अपमानजनक कहकर बहिष्कृत करने में वह अपनी कुलीन वर्गीय तथा सीमित रूझान का परिचय देता है।
प्लेटो के अनुसार शिक्षा के स्तर
प्लेटो ने आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की तरह बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्था के आधार पर शिक्षा को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया है। ये विभिन्न स्तर हैं
(ii) शैशवावस्थाः-
जन्म से लेकर तीन वर्ष शैशव - काल है। इस काल में शिशु को पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए और उसका पालण-पोषण उचित ढंग से होना चाहिए। चूँकि प्लेटो के आदर्श राज्य बच्चे राज्य की सम्पत्ति है अतः राज्य का यह कर्तव्य है कि वह बच्चे की देखभाल में कोई ढील नहीं होने दे।
(iii) नर्सरी शिक्षा:-
इसके अर्न्तगत तीन से छह वर्ष की आयु के बच्चे आते हैं। इस काल में शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिए। इसमें कहानियों द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए तथा खेल - कूद और सामान्य मनोरंजन पर बल देना चाहिए।
(iv) प्रारम्भिक विद्यालय की शिक्षा:-
इसमें छह से तेरह वर्ष के आयु वर्ग के विद्यार्थी रहते हैं। वास्तविक विद्यालयी शिक्षा इसी स्तर में प्रारम्भ होती है। बच्चों को राज्य द्वारा संचालित शिविरों में रखा जाना चाहिए। इस काल में लड़के-लड़कियों की अनियन्त्रित क्रियाओं को नियन्त्रित कर उनमें सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। इस काल में संगीत तथा नृत्य की शिक्षा देनी चाहिए। नृत्य एवं संगीत विद्यार्थी में सम्मान एवं स्वतंत्रता का भाव तो भरता ही है साथ ही स्वास्थ्य सौन्दर्य एवं शक्ति की भी वृद्धि करता है। इस काल में गणित एवं धर्म की शिक्षा भी प्रारम्भ कर देनी चाहिए। रिपब्लिक इसी अवधि में अक्षर-ज्ञान देने की संस्तुति करता है पर दि लॉज के अनुसार यह कार्य तेरहवें वर्ष में प्रारम्भ करना चाहिए ।
(v) माध्यमिक शिक्षा:-
यह काल तेरह से सोलह वर्ष की उम्र की है। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पूरी कर काव्य-पाठ, धार्मिक सामग्री का अध्ययन एवं गणित के सिद्धान्तों की शिक्षा इस स्तर पर दी जानी चाहिए ।
(vi) व्यायाम (जिमनैस्टिक) काल:-
यह सोलह से बीस वर्ष की आयु की अवधि है। सोलह से अठारह वर्ष की आयु में युवक-युवती व्यायाम, जिमनैस्टिक, खेल-कूद द्वारा शरीर को मजबूत बनाते हैं। स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर भावी सैनिक शिक्षा का आधार है। अठारह से बीस वर्ष की अवस्था में अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग, घुड़सवारी, सैन्य- संचालन, व्यूह-रचना आदि की शिक्षा एवं प्रशिक्षण दिया जाता है।
(vii) उच्च शिक्षा:-
इस स्तर की शिक्षा बीस से तीस वर्ष की आयु के मध्य दी जाती है । इस शिक्षा को प्राप्त करने हेतु भावी विद्यार्थियों को अपनी योग्यता की परीक्षा देनी होगी और केवल चुने हुए योग्य विद्यार्थी ही उच्च शिक्षा ग्रहण करेंगे । इस काल में विद्यार्थियों को अंकगणित, रेखागणित, संगीत, नक्षत्र विद्या आदि विषयों का अध्ययन करना था ।
(viii) उच्चतम शिक्षा:-
तीस वर्ष की आयु तक उच्च शिक्षा प्राप्त किए विद्यार्थियों को आगे की शिक्षा हेतु पुनः परीक्षा देनी पड़ती थी। अनुत्तीर्ण विद्यार्थी विभिन्न प्रशासनिक पदों पर कनिष्ठ अधिकारी के रूप में कार्य करेंगे। सफल विद्यार्थियों को आगे पाँच वर्षों की शिक्षा दी जाती है। इसमें 'डाइलेक्टिक' या दर्शन का गहन अध्ययन करने की व्यवस्था थी। इस शिक्षा को पूरी करने के बाद वे फिलॉस्फर या 'दार्शनिक' घोषित हो जाते थे। ये समाज में लौटकर अगले पन्द्रह वर्ष तक संरक्षक के रूप में प्रशिक्षित होंगे और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करेंगे। राज्य का संचालन इन्हीं के द्वारा होगा।
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