सर टी० पी० नन के अनुसार शिक्षण - विधि अनुशासन एवं दण्ड | TP Nun Education Method in Hindi
सर टी० पी० नन के अनुसार शिक्षण - विधि | TP Nun Education Method in Hindi
सर टी० पी० नन के अनुसार शिक्षण - विधि
नन के अनुसार स्कूल का तात्पर्य ऐसा स्थल नहीं है जहाँ कुछ वस्तुओं का मात्र ज्ञान दिया जाय वरन् जहाँ नई पीढ़ी को कुछ गतिविधियों या कार्यों में अनुशासित किया जाता है। जैसे गणित को कुछ विशेष सूत्रों, युक्तियों या बाजीगरी तक ही सीमित न रखकर इसे सोचने और करने की विधि के रूप में उपयोग किया जाय। विद्यार्थियों को गणित के परिणामों का ज्ञान देने की जगह उसकी विधि से गुजरने का अनुभव देना चाहिए। जो गणित के संदर्भ में सही है वह सभी विषयों के संदर्भ में सही है। विषयों के माध्यम से विद्यार्थियों की रचनात्मक क्षमता को धनात्मक विकास मिलता है। विद्यार्थियों को सभी विषयों में कार्य करने वाला सृजनकर्ता के रूप में कार्य करना चाहिए। उसे अन्वेषण एवं रचनात्मक कार्य का आनन्द मिलना चाहिए ।
डीवी की भाँति नन विद्यालय में कार्यों पर जोर देते हैं। डीवी के अनुसार कार्य के चुनाव में मुख्य आधार बच्चा होना चाहिए जबकि नन के अनुसार सभ्यता का विस्तृत दृष्टिकोण कार्य के चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रॉस के अनुसार डीवी को इस संदर्भ में प्रकृतिवादी माना जा सकता है क्योंकि वह बच्चे की दृष्टि से प्रारम्भ करता है जबकि नन को आदर्शवादी क्योंकि वह मानवजाति के सम्पूर्ण ज्ञान एवं सफलताओं से प्रारम्भ करता है।
लेकिन दोनों ही शिक्षा में निष्क्रियता, औपचारिकता एवं शब्दों की संस्कृति के विरोधी हैं।
आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार शिक्षा विद्यालयी जीवन से परे की भी तैयारी है। नन का आदर्शवादी दृष्टिकोण एक उच्चतर लक्ष्य प्रदान करता है।
नन शिक्षा प्रक्रिया में तीन कालखंड या सोपान देखते हैं- उत्सुकता या आश्चर्य, उपयोगिता तथा व्यवस्था या सिद्धान्त । शिक्षा में इन तीनों सोपानों से गुजरना आवश्यक है । व्यवस्था को रॉस सामान्यीकरण मानते हैं । जिज्ञासा बालमन की स्वभाविक विशेषता है। वह कौतूहल या आश्चर्य के साथ ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करता है। भविष्य में वह उन्हीं विषयों का अध्ययन करना चाहता है जो उसे जीवन में उपयोगी या लाभदायक लगता है। आगे उन्हीं विषयों के सिद्धान्तों या तंत्रों से काम करता है । नन के सिद्धान्त के अनुसार किशोरावस्था में उपयोगी विषयों को क्रियाओं के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए। अमूर्त्त शिक्षा उपयोगी न होने के कारण बेकार है। किशोरावस्था शिक्षा की दृष्टि से जीवन का महत्वपूर्ण काल-खंड है।
सर टी० पी० नन के अनुसार अनुशासन एवं दण्ड
टी० पी० नन व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे । वे इस स्वतंत्रता की नींव बाल्यकाल से ही रखना चाहते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य नकारात्मक नहीं है। शिक्षा का कार्य सक्रियता के साथ विद्यार्थी को स्वतंत्रता के लिए प्रोत्साहित करना है। विद्यालय में नियम इसलिए होते हैं कि शैक्षिक प्रक्रिया का सही ढंग से संचालन हो सके। नन की अनुशासन की संकल्पना आन्तरिक है, बाह्य नहीं। यह आवेगों तथा शक्तियों के नियन्त्रण द्वारा आती है। अनुशासन से कार्यकुशलता में अत्यधिक वृद्धि होती अनुशासन का सर्वश्रेष्ठ रूप है आत्म-अनुशासन जो व्यक्तित्व के पूर्ण विकास तथा आत्माभिव्यक्ति का परिचायक है .
नन शारीरिक दण्ड के पक्षधर नहीं हैं। पर यह भी मानते हैं कि अगर अच्छे उद्देश्य के साथ दण्ड दिया जाय तो उसे स्वीकार किया जा सकता है। इससे गलत प्रवृत्तियों को सही दिशा में ले जाने में सहायता मिल सकती है। स्कूल की व्यवस्था बनाए रखने हेतु दंड की व्यवस्था हो सकती है पर इसके लिए सबों की स्वीकृति होनी चाहिए। नन के अनुसार "दण्ड असन्तोषजनक भूतकाल का नहीं वरन् आशापूर्ण भविष्य का परिचायक है।”
विद्यालय एक आदर्श समाज है जहाँ सहयोग तथा खेल आत्म अनुशासन की भावना का विकास करते हैं । नन ने शिक्षा में कार्यों पर अत्यधिक जोर दिया। बिना अनुशासन के कार्य का सही सम्पादन संभव नहीं है। शिक्षा का बँधा पाठ्यक्रम तथा विद्यालय का कठोर अनुशासन वस्तुतः अनुशासनहीनता को जन्म देता है। वस्तुतः अधिक स्वतंत्रता के द्वारा ही विद्यार्थियों में आत्मप्रेरित अनुशासन का भाव विकसित हो सकता
अध्यापक के उच्चतर विवेक के प्रति छात्र समर्पण करता है। लेकिन अध्यापक उस दिन के लिए काम करता है जब वे उसके सहपाठी बन जाते हैं और वे उसके द्वारा स्वीकृत मानव जाति के सर्वोत्तम एवं विस्तृत अनुभव के द्वारा स्वीकृत आदर्शों के सहभागी बन जाते हैं। जब इस तरह के आदर्श व्यवहार में आ जाते हैं, प्रभाव के द्वारा अनुशासन सही आत्म-अनुशासन बन जाता है तथा चरित्र सुगठित हो जाता
सर टी० पी० नन के अनुसार अध्यापक
टी0 पी0 नन ने पुरानी अधिनायकवादी व्यवस्था की जगह प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर जोर दिया है। उनके अनुसार अध्यापक अपने लघु लोकतांत्रिक राज्य का स्थायी अध्यक्ष है जो नागरिक के कर्त्तव्यों का पालन अधिक निष्ठा और लगन से करेगा क्योंकि उसका स्थान उसे काफी शक्ति प्रदान करता है।
नन शिक्षा में सुझावों का उपयोग स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि अध्यापक "अपने उच्च ज्ञान एवं अनुभव को सामान्य निधि में डाल दे जिससे उसके लघु समुदाय के विकसित होता मस्तिष्क अपनी आवश्यकतानुसार चीजों को ग्रहण कर सके।" अर्थात् विद्यार्थी को अपने व्यक्तित्व के विकास में अध्यापक से सहायता मिलनी चाहिए। अध्यापक का यह कार्य नहीं है कि वे बच्चे पर विभिन्न तरह के प्रतिबन्धों को लगाकर उसके विकास को अवरोधित करे । नन की दृष्टि में अध्यापक विद्यालयी रूपी प्रजातांत्रिक समाज का नेतृत्व करता है अतः उसे अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए बच्चे का विकास करना है।
नन के अनुसार शिक्षक को बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए तथा विकास की प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए ताकि वह इस के अनुरूप शैक्षिक कार्यक्रमों को बना सके। बालक को पूर्णतः प्रवृत्तियों के आधार पर छोड़ना अनुचित है। उसे समाज की बदलती आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखना होता है। शिक्षक विद्यार्थी पर अपनी इच्छाओं को नहीं थोप सकता । विद्यार्थी की रूचि, आवश्यकता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे स्वतंत्र वातावरण में समाजोन्मुखी शिक्षा दी जानी चाहिए। नन की दृष्टि में यही प्राकृतिक नियमों के अनुकूल है और ऐसी शिक्षा देकर अध्यापक अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन कर सकता है।
सर टी० पी० नन के अनुसार विद्यालय तथा समाज
नन विद्यालय को एक विशिष्ट समाज मानते हैं पर उसे समाज से बिल्कुल अलग नहीं मानते। विद्यालय रूपी समाज में दमन की जगह स्वतंत्रता का वातावरण होना चाहिए। विद्यार्थियों और अध्यापकों को स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हुए रूढ़ियों की जगह सार्वभौमिक तथा विश्वव्यापी आदर्शों को प्राप्त करने का लक्ष्य रखना चाहिए। जैसा कि हम देख चुके हैं, नन का मानना है कि "विद्यालय समाज का अंग है जिसका विशिष्ट कार्य समाज की अध् यात्मिक शक्ति को दृढ़ करना, उसके ऐतिहासिक क्रम को बनाए रखना, विगत में प्राप्त उपलब्धियों को सुरक्षित रखना तथा उसके भविष्य को उज्ज्वल बनाना है।” नागरिकता की शिक्षा देना विद्यालय का महत्वपूर्ण कार्य है। इससे व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक दायित्वों का भी सफलतापूर्वक निर्वहन करता है। साथ ही विद्यालय का यह भी दायित्व है कि वह बच्चे को कार्य करने की स्वतंत्रता दे .
मानव सदैव नवीन बातो को ही पसन्द नहीं करता है। वह अपनी जाति और समाज की पुरानी बातों को दुहराया करता है। इस दुहराने की प्रवृत्ति का उपयोग शिक्षक कर सकता है। कुछ विषयों में याद करना आवश्यक सा हो जाता है पर हर ज्ञान या विषय के संदर्भ में यह उचित नहीं कहा जा सकता है। दुहराने की प्रवृत्ति समाज में भी है। प्रतिवर्ष उत्सव का मनाया जाना संस्कृति की समृद्धि का परिचायक है।
सर टी० पी० नन के अनुसार खेल तथा अनुकरण
टी0 पी0 नन बालक के लिए खेल को एक महत्वपूर्ण क्रिया मानते हैं। बाल्यावस्था खेल का विशेष काल है तथा खेल आत्म प्रदर्शन का रूप है । खेल बिना किसी बाह्य दबाव के खेला जाता है तथा इसकी क्रिया स्वयं आनन्ददायक होती है जबकि कार्य में बाहरी दबाव होता है और सफलतापूर्वक कार्य की समाप्ति पर ही उससे आनन्द प्राप्त होता है। खेल मे बालक थोड़े समय के लिए यथार्थ की अवहेलना कर कल्पनाजगत में कार्य करता है । स्कूल की नीरस शिक्षण व्यवस्था में बालमन की कल्पना शक्ति का उपयोग किया जाना चाहिए । खेल में जिस तरह बच्चे की रूचि होती है उसी तरह की रूचि कार्य में भी हो सकती है- अगर कार्य को भी खेल के रूप में ही लिया जाय । इस प्रकार शिक्षा में खेल के उपयोग का नन जोरदार समर्थन करते हैं ।
टी0 पी0 नन के अनुसार बालक में अनुकरण की स्वभाविक प्रवृत्ति होती है तथा इससे मौलिकता भी प्रभावित नहीं होती है । अतः अध्यापक का कार्य एवं व्यवहार इस तरह का होना चाहिए कि बच्चे उनका अनुकरण कर श्रेष्ठ मूल्यों एवं स्वस्थ जीवन पद्धति को अपना सकें। इससे बच्चे में अनुशासन की भावना का विकास हो सकता है तथा अच्छी आदतों को डाला जा सकता है। साथ ही स्कूल रूपी प्रजातांत्रिक समाज का वरिष्ठतम नागरिक होने के नाते अध्यापक विद्यार्थियों को सही सलाह दे सकता है। इसका प्रभाव उनके कार्यों पर पड़ता है।
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