सर टी० पी० नन का शिक्षा सिद्धान्त| T.P.Nun's Education Theory in Hindi
सर टी० पी० नन का शिक्षा सिद्धान्त, T.P.Nun's Education Theory in Hindi
सर टी० पी० नन का शिक्षा सिद्धान्त
नन के शिक्षा - सिद्धान्त के केन्द्र में व्यक्ति एवं उसका व्यक्तित्व है। नन ने सारी शिक्षा प्रक्रिया के वैयक्तिकता के विकास के लिए संचालित करने पर जोर दिया। इसी सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किया ।
टी० पर्सी नन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
सर टी० पर्सी नन शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका यह मानना था कि शिक्षा सबों के लिए ऐसी परिस्थिति का निर्माण करे जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता का संपूर्ण विकास हो सके। वह उसे विविधता पूर्ण मानव जीवन में उन मौलिक योगदानों को पूर्ण एवं सत्य रूप से करने दे जो उसकी अपनी प्रकृति संभव बनाती है। योगदान का स्वरूप व्यक्ति विशेष पर छोड़ देना चाहिए।
तात्पर्य यह है कि व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता के विकास के अतिरिक्त शिक्षा का कोई सार्वभौमिक उद्देश्य नहीं हो सकता है। वास्तव में हर व्यक्ति के लिए शिक्षा का भिन्न उद्देश्य हो सकता है। जितने व्यक्ति उतने आदर्श हो सकते हैं। अर्थात् व्यक्तित्व के चरम विकास को संभव बनाना शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने में परिवार तथा विद्यालय दोनों ही अपनी-अपनी भूमिकायें निभाता है पर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है उनका दायित्व घटता जाता है। ये दोनों सामाजिक संस्थायें नैतिक रूप से स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास करती हैं। जिस तरह से उपलब्ध सामग्री को कलाकार बेहतर से बेहतर मूर्ति का रूप देना चाहता है उसी तरह से माता-पिता एवं अभिभावक को बच्चे के व्यक्तित्व को सुन्दर रूप से गढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
नन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिलना चाहिए। व्यक्तित्व के आदर्श को समाज में रहकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
नन ने बच्चे की योग्यता एवं रूचि के आधार पर ही शिक्षा देने की वकालत की। जैसा कि हमलोग पहले ही देख चुके हैं कि 'संसार में कोई भी कल्याणकारी वस्तु किसी व्यक्तिगत स्त्री- पुरूष की स्वतंत्र गतिविधियों के बिना नहीं आ सकती है और शिक्षा की व्यवस्था को इसी सत्य के अनुरूप होनी चाहिए।' अतः व्यक्तित्व एवं वैयक्तिकता के चरम विकास को नन ने शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य माना।
शिक्षा के उद्देश्य के निर्धारण में टी० पी० नन प्राणिशास्त्र से भी सहायता लेता है। जीवित प्राणियों के संसार प्रत्येक जीव, प्रजाति अपने आकार एवं कार्य में पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। अतः नन शिक्षा का उद्देश्य 'प्रकृति के अनुरूप निर्धारित करने पर जोर देता है। इसके कारण नन को आलोचकों ने उस पर अत्यधिक प्रकृतिवादी होने का आरोप लगाया लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि यद्यपि उन्होंने जीव विज्ञान का सहारा लिया पर उनके सिद्धान्त का प्रथम आधार दर्शन है । नन द्वारा प्रयुक्त व्यक्तिवाद या व्यक्तित्व वस्तुतः उस आदर्श, उस लक्ष्य की ओर इंगित करता है जो अध्यात्मिक पूर्णता की ओर अग्रसर है। प्रत्येक व्यक्ति को इस लक्ष्य को प्राप्त करने का लगातार प्रयत्न करना चाहिए। नन समाजिकता की पूर्णतः उपेक्षा नहीं करता है। उसका कहना है कि आदमी की प्रकृति उतना ही सामाजिक है जितना कि व्यक्तिवादी ।
सर टी० पी० नन के अनुसार पाठ्यक्रम
नन पाठ्यक्रम में यद्यपि उपयोगितावादी सिद्धान्त को सही मानते हैं वे में बौद्धिक अनुशासन के विचार का विकास करते हैं। पाठ्यक्रम के सिद्धान्त के संदर्भ में उनका कहना है "एक राष्ट्र के विद्यालय... इसके जीवन का एक अंग है, जिसका विशिष्ट कार्य है उसकी आध्यात्मिक शक्ति को मजबूत करना, उसकी ऐतिहासिक तारतम्यता को बनाये रखना, पिछली सफलताओं को स्थायी बनाना और इसके भविष्य को सुरक्षित करना। अपने विद्यालयों के द्वारा एक राष्ट्र को अपने उन स्रोतों के बारे में चैतन्य होना चाहिए जिससे उस राष्ट्र के जीवन के सर्वोत्तम आन्दोलनों ने हमेशा प्रेरणा ग्रहण की है, अपने सर्वश्रेष्ठ पुत्रों के सपनों में सहभागिता करनी चाहिए, अपने आदर्शों में सुधार करना चाहिए, अपने संवेगों को पुनः जानना चाहिए और पुनः प्रेषित करना चाहिए।”
विद्यालय को उन मानवीय क्रियाओं को प्रतिबिम्बित करना चाहिए जो विस्तृत विश्व के लिए सर्वाधिक महान और स्थायी महत्व का है, जो मानव चेतना की भव्य अभिव्यक्ति हो। इन उद्देश्यों को पूरा करने हेतु नन ने पाठ्यक्रम का निर्धारण किया ।
मानव - क्रियाओं को स्वभावतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । प्रथम समूह में वे क्रियायें आती है जो परिस्थितियों को बेहतर बनाती हैं में और व्यक्ति एवं समाज के जीवन स्तर को ऊँचा उठाती हैं, जैसे स्वास्थ्य शिक्षा, शारीरिक सौष्ठव, व्यवहार, सामाजिक संगठन, नैतिकता, धर्म आदि । द्वितीय भाग में वे रचनात्मक कार्य आते हैं जो संस्कृति की ठोस शाखायें हैं 1 प्रथम समूह की क्रियाओं को उसकी प्रकृति के आधार पर विषय नहीं माना जा सकता यद्यपि उन्हें विद्यार्थियों के अध्ययन में समाहित करना चाहिए तथा कुछ हद तक वास्तविक शिक्षण का भाग बनाना चाहिए ।" उदाहरणार्थ सामाजिक संगठन और धर्म की शिक्षा सम्पूर्ण विद्यालय जीवन में व्याप्त होनी चाहिए तथा धार्मिक भाव की कभी भी कमी नहीं होनी चाहिए ।
द्वितीय समूह के क्रियाओं के संदर्भ में नन कहते हैं: "प्रत्येक पूर्ण शिक्षा योजना में निम्नलिखित विषय होने चाहिए :-
i. साहित्य, जिसमें मातृभूमि का सर्वश्रेष्ठ साहित्य अवश्य हो;
ii. कला - विशेष रूप से संगीत जो कि सर्वव्यापी कला है;
iii हस्तउद्योग, जिसमें जोर या तो सौन्दर्यात्मक अनुभूति पर हो, जैसे बुनाई, सिलाई, नक्काशी, अक्षरांकण या इसके निर्माणात्मक पक्ष पर, जैसे काष्ठकला या सूईकारी;
iv. विज्ञान, जिसमें गणित के साथ-साथ अंक, स्थल तथा समय का अध्ययन समाहित हो। इतिहास और भूगोल को दो स्वरूप में होना चाहिए। पहला, इतिहास साहित्य का हिस्सा है, तथा भूगोल विज्ञान का। दूसरे रूप में, पाठ्यक्रम में इन्हें केन्द्रीय स्थान में होना चाहिए, जिसमें मानव की गतिविधि एवं प्रवृत्तियों को प्रस्तुत किया गया हो एवं उनकी व्याख्या की गई हो । इतिहास वर्तमान के ठोस मूल्य को भूतकाल के आधार पर बताता है तथा भूगोल प्रकृति पर मनुष्य को निर्भरता का अहसास कराता है तथा एक दूसरे पर शाश्वत निर्भरता का संदेश देता है.
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