भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए? | Article 368 analysis in Hindi
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 का आलोचनात्मक व्याख्या
उत्तर-
संविधान एक जीवित एवं प्रगतिशील प्रलेख होता है। देश और काल की परिवर्तित होती परिस्थितियों के अनुसार संविधानों में भी परिवर्तन लाना आवश्यक हो जाता है । कई बार उत्पन्न होने वाली विभिन्न नई-नई सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार संविधान में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि देश का संविधान देश के विकास में बाधक बनता है तो परिवर्तन की आँधी से वह स्वयं ही विनष्ट हो जाता है। विश्व के संविधानों को प्रायः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- नम्य संविधान तथा अनम्य संविधान। संघीय संविधान अनम्य होते हैं, इसलिए उनके संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के संविधानों की संशोधन प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है।
संविधान का विकास तीन प्रकार से होता है- परम्पराओं द्वारा न्यायिक व्याख्या द्वारा तथा संविधान में संशोधन की पद्धति द्वारा ।
परम्पराएँ और प्रथाएँ निश्चित तौर पर राजनीतिक संस्थाओं के स्वरूप को निर्धारित करती हैं। जहाँ तक न्यायिक समीक्षा का है, भारत और अमेरिका के उच्चतम न्यायालयों द्वारा समय-समय पर संवैधानिक समस्याओं की व्याख्या भी की गई है किंतु लिखित संविधान के विकास का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत औपचारिक संशोधन ही है।
किसी भी देश के संविधान में संशोधन किया जाना प्रमुखतः निम्नलिखित कारणों से आवश्यक हो जाता है-
1. संविधान कोई साध्य न होकर साध्य की प्राप्ति हेतु साधन मात्र है। अतः उसे समय एवं राज्य की आवश्यकताओं का प्रतिरूप होना चाहिए। आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्रांतिकारी दौर में कोई भी संविधान अनन्य स्थायित्व का दावा करते हुए कह नहीं सकता कि वह परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुकूल होने की क्षमता भी रखता है।
2. संविधान के अंतर्गत वर्णित आदेशों, लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु संविधान के उन उपबंधों में संशोधन करना आवश्यक है, जो उनसे मेल नहीं खाते।
3. सामाजिक एवं न्याय की प्राप्ति हेतु परम्परावादी मान्यताओं में शांतिपूर्ण परिवर्तन संविधान संशोधन के माध्यम से ही सम्भव है।
4. संविधान संशोधन के माध्यम से उसमें कोई नई बात अथवा किसी नए तथ्य को समाविष्ट किया जाता है।
5. संविधान की जन-आकांक्षाओं, इच्छाओं एवं आवश्यकताओं का प्रतिविम्व होना चाहिए। वर्तमान संविधान यदि मौजूदा आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने में अक्षम है तो उसमें यथोचित परिवर्तन कर देने चाहिए। भारतीय संविधान विश्व का सर्वाधिक विशाल एवं लिखित संविधान है, किन्तु इसकी विशेषता यह है कि इसमें नम्यता और अनम्यता दोनों का अद्भुत मिश्रण है। भारत का संविधान लिखित होते हुए भी अनम्य या कठोर नहीं है।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
संविधान के भाग-20 के अंतर्गत अनुच्छेद-368 संविधान संशोधन में संबंधित प्रक्रिया का विस्तृत उपबंध है। संविधान के संशोधन हेतु किसी विधेयक को संसद में पुनःस्थापित करने हेतु राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक नहीं है। संविधान में की प्रक्रिया की दृष्टि से भारतीय संविधान के अनुच्छेदों को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
1. वे अनुच्छेद जिन्हें संसद में साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है।
2. वे अनुच्छेद जिन्हें संसद में दो-तिहाई (2/3) बहुमत से संशोधित किया जा सकता है।
3. वे अनुच्छेद, जिन्हें संसद में दो-तिहाई (2/3) बहुमत के साथ भारत के आधे राज्यों के विधानमंडलों के संकल्पों की स्वीकृति द्वारा संशोधित किया जा सकता
साधारण बहुमत द्वारा संविधान संशोधन
संविधान में कई ऐसे उपबंध हैं, जिनके संशोधन के लिए किसी विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती। अभिप्राय यह है कि इन अनुच्छेदों के संशोधन के लिए संसद के दोनो सदनों में केवल साधारण बहुमत की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार के संशोधनों का जो क्षेत्र है, उसमें नए राज्यों का निर्माण, राज्य के क्षेत्र, सीमा और नाम में परिवर्तन आदि आते हैं। इस श्रेणी में संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेद आते हैं अनुच्छेद-3, 4, 169 तथा 239-क
दो-तिहाई बहुमत द्वारा संविधान संशोधन
संविधान की इस संशोधन प्रक्रिया में प्रत्येक सदन में सदस्यों की कुल संख्या का बहुमत तथा उस सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
संशोधन का प्रस्ताव किसी भी सदन में रखा जा सकता है किंतु पारित उसे तब माना जाएगा, जब संसद के दोनों सदनों द्वारा 2/3 बहुमत से उसका अनुमोदन कर दिया जाए। इस प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों के संशोधन विधेयक का अलग-अलग दो-तिहाई बहुमत से पारित होना आवश्यक होता है।
इस श्रेणी में आने वाले अनुच्छेदों की सूची काफी विस्तृत है। वास्तव में प्रथम श्रेणी और तृतीय श्रेणी में आने वाले अनुच्छेदों को छोड़कर सभी अनुच्छेद ऐसे हैं, जिन्हें संसद दो-तिहाई बहुमत द्वारा ही बदल सकती है।
दो-तिहाई बहुमत तथा राज्य विधानमंडलों की स्वीकृति द्वारा संविधान संशोधन
संशोधन की इस प्रक्रिया में संविधान के कुछ ऐसे अनुच्छेद आते हैं, जिन्हें संशोधित करना अत्यंत कठिन होता है। इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के दो तिहाई बहुमत के साथ-साथ भारत के कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति आवश्यक होती है। इस श्रेणी में संविधान के निम्नलिखित उपबंध आते हैं
1. अनुच्छेद 54- राष्ट्रपति का निर्वाचन
2. अनुच्छेद 55- राष्ट्रपति के निर्वाचन की विधि
3. अनुच्छेद 73 - संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
4. अनुच्छेद 162 राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
5. अनुच्छेद 241 केंद्र शासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय
6. संघीय न्यायपालिका (भाग-5 अध्याय-4)
7. राज्यों के लिए उच्च न्यायालय (भाग-6 अध्याय-5)
8. संघ - राज्य- संबंध (विधायी) (भाग-11 अध्याय-1 )
9. सातवीं अनुसूची का कोई भी विषय
10. संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व
11. संविधान संशोधन से संबंधित अनुच्छेद-368
जिन उपबंधों का सम्बन्ध केंद्र और राज्यों दोनों के ही अधिकार क्षेत्रों से है, उनमें संशोधन न तो केंद्र कर सकता है और न ही राज्य । इस प्रकार की संशोधन प्रक्रिया में केंद्र और राज्य दोनों का हाथ होने के कारण यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल मानी जाती है।
संविधान संशोधन संबंधी विशेष प्रावधान
संविधान संशोधन विधेयकों हेतु संयुक्त अधिवेशन नहीं
संविधान संशोधन की प्रक्रिया के संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि संविधान विधेयक पारित करने की प्रक्रिया साधारण विधेयकों के पारित करने की प्रक्रिया से भिन्न है। अनुच्छेद-108 के अंतर्गत किसी विधेयक को पारित करने के सम्बन्ध में दोनों सदनों के मध्य उत्पन्न गतिरोध को दूर करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाए जाने का प्रावधान है। यह प्रावधान संविधान के संशोधन सम्बन्धी विधेयकों के सम्बन्ध में लागू नहीं होता। इस संदर्भ सम्पूर्ण प्रक्रिया (संविधान संशोधन) का उल्लेख अनुच्छेद 368(2) के अंतर्गत किया गया है। यदि इस क्षेत्र में संयुक्त अधिवेशन का उपबंध होता तो अनुच्छेद- 368(2) में विशेष बहुमत का उपबंध निरर्थक हो जाता।
राष्ट्रपति अनुमित देने के लिए बाध्य
संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक के विषय में राष्ट्रपति की अनुमति की औपचारिकता को बनाए रखा गया है। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि यह ज्ञात हो सके कि संशोधन विधेयक किस तिथि से संविधान के भाग के रूप में प्रवृत्त हुआ है।राष्ट्रपति की संशोधन विधेयक को वीटो करने की शक्ति छीन ली गई है। 24वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1971 के पश्चात् अनुच्छेद-368(2) के अंतर्गत 'अनुमति देगा' शब्द रखे गए हैं।
संविधान का अनुच्छेद 368 संसद को संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन व कटौती का अधिकार देता है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित मूलभूत तत्वों के सिद्धांत द्वारा संविधान की मूल भावना की रक्षा की जाती है।
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