भारत में कृषि -फसलों के प्रकार | Types of Crops in Hindi

भारत में कृषि फसलों के प्रकार

भारत में कृषि -फसलों के प्रकार | Types of Crops in Hindi


भारत में कृषि 

  • भारतीय अर्थव्यवस्था में इस प्राथमिक क्रिया का महत्वपूर्ण स्थान है। देश की कुल जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत भाग आज भी कृषि पर निर्भर करता है। भोजन की आपूर्ति के अतिरिक्त कृषि से उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त होता है अतः उद्योगों के विकास में भी कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है।

 

  • कृषि पर प्राकृतिक पर्यावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी स्थान की स्थिति, जलवायु उच्चावच तथा मृदा कृषि को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तत्व हैं। देश के विभिन्न भागों में इनमें से विभिन्न कारकों के संयोजन विभिन्न फसलों के उत्पादन के लिए उत्तरदायी हैं।

 

  • भारत जैसे बड़े देश में प्राकृतिक पर्यावरण में विविधता पाई जाती है। अतः भारत में विभिन्न भागों में अनेक प्रकार की फसलों का उत्पादन किया जाता है। इन फसलों की उनको कृषि की ऋतुओं के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है। देश में उगाई जाने वाली फसलों को उत्पादन की प्रकृति, उत्पादों के उपयोग तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण वर्गों का संक्षिप्त वर्णन नीचे किया गया है-

 

फसलों के प्रकार

 

खरीफ - 

इन्हें ग्रीष्म ऋतु की फसलें भी कहा जाता है। इन फसलों को वर्षा ऋतु से पूर्व बोया जाता है। इसकी अवधि मई से जुलाई तक होती है। वर्षा के बाद सितंबर-अक्तूबर में इनकी कटाई की जाती है। चावल और बाजरा प्रमुख खरीफ फसलें हैं।

 

रबी – 

इन्हें शीत ऋतु की फसलें भी कहा जाता है। इन्हें अक्तूबर से दिसंबर तक बोया जाता है। ग्रीष्म ऋतु से पहले इन फसलों की कटाई हो जाती है। गेहूं, सरसों व जौ भारत की प्रमुख रबी फसलें हैं।


जैद-

इन फसलों को रवी व खरीफ फसलों के मध्य छोटी अवधि में उगाया जाता है। जैद रबी फसलों को बोने का समय फरवरी से अप्रैल तक होता है। इनकी कटाई जून और जुलाई में की जाती है। प्रमुख जैद रबी फसलों में हरी प्रमुख हैं। तिलहन और कुछ दालें जैद खरीफ फसलें है। ये फसलें खरीफ फसलों के बाद बोई जाती हैं तथा रबी फसलों को बोने से पहले काट ली जाती हैं।

 

खाद्य फसलें 

इस प्रकार की फसलों में उन सभी फसलों को सम्मिलित किया जाता है जिनका मानव द्वारा खाद्य पदार्थों के रूप में उपभोग किया जाता है। इस वर्ग को अनेक उपवर्गों जैसे खाद्यान्न फसलें, दालें, तिलहन और पेय पदार्थ आदि में विभाजित किया जा सकता है।

 

खाद्यान्न 

ये वे अनाज हैं जिनका उपभोग मानव द्वारा प्रमुख भोज्य पदार्थ के रूप में किया जाता है। भारत में महत्वपूर्ण खाद्यान्न चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा व मक्का हैं।

 

दालें

भारत में उत्पन्न होने वाली महत्वपूर्ण दालें चना, मूंग, अरहर, मसूर व उड़द हैं। ये देश में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण फसलें हैं किंतु इनका उपभोग किसी स्थान के मुख्य भोज्य पदार्थ के रूप में नहीं किया जाता है। 


तिलहन

यह फसलें जिनमें से तेल निकाला जाता है तिलहन कहलाती हैं। अलसी, सरसों, मूंगफली व नारियल तिलहन फसलों के उदाहरण हैं।

 

आत्मनिर्वाही फसलें- 

इस वर्ग में उन फसलों को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें किसान मुख्यतः अपने उपभोग के लिए उगाता है। इन फसलों की बहुत सीमित मात्रा ही कभी कभार बाजार में बेची जाती है। पश्चिमी बंगाल में चावल की फसल आत्मनिर्वाह कृषि का उदाहरण है।

 

पेय पदार्थ 

चाय और कॉफी महत्वपूर्ण पेय पदार्थ फसलें हैं। 


व्यावसायिक फसलें- 

इन फसलों का उत्पादन मुख्यतः बाजार में बेचने के लिए किया जाता है। कुल फसल के छोटे से ही भाग का उपभोग स्वयं किसानों द्वारा किया जाता है। कपास और गन्ना भारत की महत्वपूर्ण व्यापारिक फसलें हैं । इन्हें नकदी फसल भी कहा जाता है।

 

रोपण फसलें- 

सामान्यतया रोपण फसलों को एक बार लगाने के बाद उनसे कई वर्षों तक उत्पादन प्राप्त होता रहता है। भारत की मुख्य रोपण फसलें चाय, कॉफी, रबड़, नारियल और मसाले हैं। इन फसलों की खेती को उद्योगों की भांति व्यवस्थित किया जाता है।

 

मसाले - 

इस वर्ग के अंतर्गत लाल मिर्च, हल्दी, इलायची और काली मिर्च आदि को सम्मिलित किया जाता है। इन फसलों को व्यापारिक फसलों के रूप में उगाया जाता है तथा इनमें से कई फसलें रोपण फसलें भी हैं।

 

रेशेदार फसलें 

इनका उत्पादन नकदी फसलों के रूप में किया जाता है। इनसे प्राप्त रेशों का उपयोग कपड़ा उद्योग व पदार्थों की पैकेजिंग के लिए किया जाता है। भारत की रेशेदार फसलों में जूट तथा कपास महत्वपूर्ण हैं। 

चारा फसलें 

इनकी कटाई तब की जाती है जबकि ये हरी होती हैं और ये फसलें पशुओं के लिए चारे के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं। कुछ चारा फसलें पकने के बाद अन्न के रूप में भी प्रयुक्त होती हैं जैसे ज्वार।

 

यद्यपि विभिन्न फसलों का उपरोक्त विधि से वर्गीकरण किया जा सकता है परंतु यहां इस बात को समझना आवश्यक है कि फसलों के ये वर्ग परस्पर पूर्णतया भिन्न नहीं हैं। वास्तव में कई फसलों को एक से अधिक वर्गों के अंतर्गत रखा जा सकता है जो कि उनके वर्गीकरण के आधार पर निर्भर करता है। उदाहरणार्थ मूंगफली को व्यावसायिक फसलों तथा तिलहन दोनों वर्गों में सम्मिलित किया जा सकता है।

 

भारत में कृषि के प्रकार 

पर्यावरण के अनुसार भारत के विभिन्न भागों में कृषि तंत्र के अनेक प्रकार विकसित हुए हैं। भारत में अधिकांश भागों में कृषि स्थाई प्रकार की है. जिसके अंतर्गत एक विशेष भूखंड फसलों के उत्पादन के लिए प्रत्येक वर्ष उपयोग में लाया जाता है। इसे स्थानबद्ध कृषि भी कहते हैं। इसके विपरीत एक भूखंड का उपयोग उसका उपजाऊपन खत्म हो जाने तक करना और उसके बाद अन्य उपजाऊ भूमि की खोज करना व इसका उपयोग कृषि के लिये किया जाना स्थानांतरी कृषि कहलाता है। इस प्रकार की कृषि मुख्यतः जनजातीय लोगों द्वारा ऊष्णकटिबंधीय प्रदेशों में, जैसे- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और देश के उत्तरी-पूर्वी राज्यों में की जाती है। भारत में पर्वतीय प्रदेशों में सीढ़ीनुमा खेती भी प्रचलित है। सीढ़ियों की चौड़ाई पर्वतीय ढालों पर निर्भर करती है। सामान्यतया अधिक खड़े ढ़ालों पर इनकी चौड़ाई कम होती है जबकि मंद ढ़ालों पर इस प्रकार के खेत अधिक चौड़े होते हैं। यह एक प्रकार का तरीका है जिससे कि मृदा अपरदन को रोका जा सकता है।

 

भारत में मुख्यतः गहन खेती की जाती है। इसका मुख्य कारण देश में कृषि भूमि पर जनसंख्या का उच्च दबाव है। अतः भारतीय कृषि खाद्यान्न प्रधान है। भारत में चावल और गेंहू मुख्य खाद्य फसलें हैं। परंतु इनके अतिरिक्त भारत में कई नकदी फसलों का भी उत्पादन किया जाता है, जिनमें कपास, गन्ना, तंबाकू व हैं चाय प्रमुख हैं।

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