अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा |अधिकारों का वर्गीकरण |स्वतन्त्रता के अधिकार" के भेद | Adhikar Types in Hindi
अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा वर्गीकरण ,स्वतन्त्रता के अधिकार" के भेद
अधिकार का अर्थ एवं परिभाषा
प्रकृति के द्वारा मनुष्य को विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गयी है, लेकिन इन शक्तियों का स्वयं अपने ओर समाज के हित के रूप में उचित प्रयोग करने के लिए कुछ बाहरी सुविधाओं की आवश्यकता होती है। राज्य का सर्वोत्तम लक्ष्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है अतः राज्य के द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाने वाली इन बाहरी सुविधाओं का नाम ही अधिकार है।
प्रमुख विद्वानों द्वारा अधिकार की निम्नलिखित शब्दों में परिभाषाएं की गयी हैं:
बोसांके के अनुसार, ”अधिकार वह मांग है जिसे समाज स्वीकार करता और राज्य लागू करता है।"
लास्की के अनुसार, "अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियां है जिनके अभाव में सामान्यता कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता है।"
अधिकारों का वर्गीकरण
साधारणतया अधिकार दो प्रकार के होते हैं - (1) नैतिक अधिकार और (2) कानूनी अधिकार
(1) नैतिक अधिकार:-
नैतिक अधिकार वे अधिकार होते हैं जिनका सम्बन्ध मानव के नैतिक आचरण से होता है। अनेक विचारकों के द्वारा इन्हें अधिकार के रूप में ही स्वीकार नहीं किया जाता है, क्योंकि वे अधिकार राज्य द्वारा रक्षित नहीं होते है। इन्हें धर्मशास्त्र, जनमत या आत्मिक चेतना द्वारा स्वीकृत किया जाता है और राज्य के कानूनों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता।
(2) कानूनी अधिकार:-
ये वे अधिकार है जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा की जाती है और जिनका उल्लंघन कानून से दण्डनीय होता है। कानून का संरक्षण प्राप्त होने के कारण इन अधिकारों को लागू करने के लिए राज्य द्वारा आवश्यक कार्यवाही की जाती है।
कानूनी अधिकार के दो भेद किये जा सकते है-
- 1. सामाजिक या नागरिक अधिकार,
- 2. राजैनतिक अधिकार
2. सामाजिक या नागरिक अधिकार:-
प्रमुख सामाजिक या नागरिक अधिकार निम्नलिखित हैं-
1. समानता का अधिकार:-
समानता का अधिकार एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अधिकार है और इनक तात्पर्य यह है कि प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति को व्यक्ति होने के नाते सम्मान और महत्व प्राप्त होना चाहिए और जाति धर्म व आर्थिक स्थिति के भेद के बिना सभी व्यक्तियों को अपने जीवन का विकास करने के लिए सुविधाऐं प्राप्त होनी चाहिए। समानता का अधिकार प्रजातंत्र की आत्मा है और इसके अग्र भेद हैं:
a. राजनीतिक समानता का अधिकार:-
इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यतानुसार बिना किसी पक्षपात के देश के शासन में भाग लेने का अवसर प्राप्त होना चाहिए ।
b. सामाजिक समानता का अधिकार:-
इसका तात्पर्य यह है कि समाज में धर्म, जाति, भाषा, सम्पत्ति या लिंग के आधर पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
c. आर्थिक समानता का अधिकार:-
वर्तमान समय में आर्थिक समानता का तात्पर्य यह लिखा जाता है कि मानव के आर्थिक स्तर में गम्भीर विषमताएँ नही होनी चाहिए और सम्पत्ति एवं उत्पादन के साधनों का न्यायसंगत वितरण किया जाना चाहिए। टोनी के शब्दों में, "आर्थिक समानता का अर्थ ऐसी विषमता के अभाव से है जिसका उपयोग आदि के दबाव के रूप में किया जा सके। "
d. स्वतन्त्रता का अधिकार :-
स्वतन्त्रता का अधिकार जीवन के लिए परम आवश्यक है क्योंकि इस अधिकार के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व तथा समजा का विकास सम्भव नहीं है। स्वतन्त्रता का तात्पर्य .
उच्छंखलता या नियन्त्रणहीनता न होकर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण अवसरों की प्राप्ति है। लास्की के शब्दों में, "इसका तात्पर्य उस शक्ति से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपने तरीके से बिना किसी बाहरी बन्धन के अपने जीवन का विकास कर सके।
"स्वतन्त्रता के अधिकार" के भेद निम्नलिखित हैं:
1. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार:-
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपना सामान्य जीवन विवेक के अनुसार व्यतीत कर सकें। कानून के उल्लंघन किये बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और न्यायालय द्वारा अभियोग की पुष्टि बिना उसे बन्दी नहीं बनाया जा सकता।
2. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार:-
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार विचार रखने और भाषण लेख, आदि के माध्यम से इन विचारों को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।,सुकरात ने विचार स्वातन्त्रता को त्यागने की अपेक्षा मृत्यु को श्रेयस्कर समझा था।
3. समुदाय निर्माण की स्वतन्त्रता का अधिकार:-
संगठन ही मानव जीवन की उन्नति का मूलमन्त्र है। इसलिए व्यक्ति को अपने समान विचावर वाले व्यक्तियों के साथ मिलकर संगठन का निर्माण करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
3. सम्पत्ति का अधिकार:-
मानव जीवन के लिए सम्पत्ति आवश्यक है। सम्पत्ति के अधिकार का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने द्वारा कमाए गये धन को चाहे तो आज की आवश्यकताओं पर खर्च कर सकता है या अर्जित करके रख सकता है, सरकार बिना मुआवजा दिये बिना किसी भी व्यक्ति की सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती।
4 रोजगार का अधिकार:-
व्यक्ति को स्वयं अपने परिवार के भरण पोषण, आवास एवं शिक्षा के लिए धन की आवश्यकता होती है और व्यक्ति यह आर्थिक शक्ति किसी न किसी प्रकार का काम किये बिना प्राप्त नहीं कर सकता।
(5) शिक्षा का अधिकार:-
वर्तमान समय में यह बात सर्वमान्य है कि नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए। केवल इतना ही नहीं, शासन को धनवान एवं निर्धन दोनों ही वर्गो को शिक्षा-सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिए।
(6) जीवन का अधिकार:-
जीवन के अधिकार का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने का अधिकार है और राज्य इस बात की व्यवस्था करेगा कि कोई दूसरा व्यक्ति या राज्य व्यक्ति जीवन का अन्त न कर सके। यह मानव के सभी अधिकारों में सबसे अधिक मौलिक व आधारभूत अधिकार है।
(7) राजनीतिक अधिकार:-
राजनीतिक अधिकारों का तात्पर्य उन अधिकारों से है जो व्यक्ति के राजनैतिक जीवन के विकास के लिए आवश्यक होते हैं और जिनके माध्यम से व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप शासन प्रबन्ध में भाग लेते हैं। साधारणतया एक प्रजातंत्रात्मक राज्य के द्वारा अपने नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये जाते हैं
1. मत देने का अधिकार:-
वर्तमान समय के विशाल राज्यों में प्रत्यक्ष प्रजातंत्रीय व्यवस्था सम्भव नहीं रही है और इसलिए प्रतिनिधित्मक प्रजातन्त्र के रूप में एक ऐसी व्यवस्था की गयी है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करती है और इन प्रतिनिधियों के द्वारा शासन में कार्य किया जाता है। इस प्रकार जनता मताधिकार के माध्यम से हीदेश के शासन में भाग लेती है।
2. निर्वाचित होने का अधिकार:-
प्रजातंत्र में शासक और शासित का कोई भेद नही होता और योग्यता सम्बन्धी कुछ प्रतिबंधों के साथ सभी नागरिकाकें को जनता के प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होने का अधिकार होता है।
3. सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार:-
व्यक्ति को सभी सार्वजनिक पद ग्रहण करने का अधिकार होना चाहिए और इस सम्बन्ध में योग्यता के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार पर भेद नहीं किया जाना चाहिए।
4. आवेदन-पत्र और सम्मति देने का अधिकार:-
लोकतंत्र का आदर्श यह है कि शासन का संचालन जनहित के लिए किया जाए। अतः नागरिकोकं को अपनी शिकायतें दूर करने या शासन को आवश्यक सम्मति प्रदान करने के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कार्यपालिका या व्यवस्थापिता अधिकारियों का प्रार्थना-पत्र देने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए इसके अन्तर्गत ही शासन की आलोचना का अधिकार भी सम्मिलित किया जाता है।
5. राज्य के विरूद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति भक्ति और राज्य की आज्ञाओं का पालन व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य होता है और इसलिए व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नही सकता लेकिन व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि शासन के अस्तित्व का उद्देश्य जन इच्छा को कार्यरूप में परिणत करते हुए सामान्य कल्याण होता है और यदि शासन सामान्य कल्याण की साधना में असफल हो जाता है या शासन जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता है तो उसे शासन को आस्तित्व में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं रह जाता है। नागरिकों को इस प्रकार की सरकार को पदच्युत करने का अधिकार होता है और यदि वो संवैधानिक मार्ग से इच्छित परिवर्तन न किया जा सके तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह शक्ति के आधार पर वांछित परिवर्तन करने का प्रयत्न करें।
लास्की ने कहा है कि ”नागरिकता व्यक्ति के विवेकपूर्ण निर्णय का जनकल्यण में प्रयोग है" ऐसी परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाए कि विद्यमान शासन व्यवस्था सर्व सामान्य के हित में कार्य नहीं कर सकती तो राज्य के प्रति विद्रोह व्यक्ति का नैतिक अधिकार ही नहीं वरन एक नैतिक कर्तव्य भी हो जाता है जैसा गांधी जी कहते है "व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्म के प्रति होता है।" अतः विरोध किया जा सकता है।
Post a Comment