राजनीति विज्ञान अध्ययन के उपागम | Approaches to Political Science Studies

 राजनीति विज्ञान अध्ययन के उपागम

राजनीति विज्ञान अध्ययन के उपागम | Approaches to Political Science Studies

राजनीति विज्ञान अध्ययन के उपागम 

1 दार्शनिक उपागम 

2 ऐतिहासिक उपागम 

3 कानूनी उपागम 

4 संस्थात्मक उपागम 

5 प्रयोगात्मक उपागम 

6 पर्यवेक्षात्मक उपागम 

7 तुलनात्मक उपागम 

 

परम्परागत उपागम -राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन के 

ईसा पूर्व छठी सदी से बीसवीं सदी में लगभग द्वितीय महायुद्ध से पूर्व तक जिस राजनीतिक दृष्टिकोण का प्रचलन रहा है उसे अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण कहा जाता है। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण एवं विकास में अनेक राजनीतिक विचारकों का योगदान रहा है। यथा- प्लेटो, अरस्तु, सन्त ऑक्सटाइन, एक्विनास, लॉक, रूसो, मान्टेस्क्यू, कान्ट, हीगल तथा ग्रीन आदि राजनीतिक सिद्धान्तों के निर्माण के लिए इन विचारकों ने दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, इतिहास व विधि का सहारा लिया। अतः इनके द्वारा अपनायी गयी पद्धति को दार्शनिक,ऐतिहासिक, कानूनी तथा संस्थात्मक पद्धति के नाम से जाना जाता है।

 

1 दार्शनिक उपागम

 

  • यूनानी दार्शनिकों के युग से लेकर आधुनिक युग के विचारकों ने आदर्श राज्य की स्थापना पर फ ध्यान दिया है। इस दृष्टि से उन्होंने कल्पना का सहारा लिया है। राजनीतिक विज्ञान सिर्फ इस बात पर ही ध्यान नहीं देता कि राज्य कैसा है। वरन् उसे इसकी भी चिन्ता है कि राज्य कैसा होना चाहिए। यह उपागम राज्य के लक्ष्य अथवा उद्देश्य के सम्बन्ध में कुछ पूर्व निर्धारित धारणाओं को लेकर चलता है। और इसके बाद यह निश्चित करता है कि उन उद्देश्यों की सिद्धि के लिए किस प्रकार के कानून अधिक उपयुक्त होंगे और कैसी संस्थाएँ अधिक उचित होंगी। वर्तमान कानून तथा संस्थानों में क्या कमी है, उन कमियों को किस प्रकार की संस्थाओं द्वारा दूर किया जा सकता है। इस प्रकार यह पद्धि अपने प्रतिष्ठित नियमों के प्रकाश में विशेष अवस्थाओं की व्याख्या करती है। राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में प्लेटो, टॉमस मूर, रूसो, मिल आदि ने पद्धति को अपनाया। प्लेटो की रिपब्लिक और टामस मूर की यूटोपिया इसके अनुपम उदाहरण हैं। प्लेटो का रिपब्लिक के दार्शनिक राजा का सिद्धान्त आदर्शवाद पर आधारित विवेकसम्मत राजा की कल्पना है जो अपने सांसारिक सुख को त्यागकर राज्य की एकता के लिए पूरा जीवनन्यौछावर कर देता है। शासितों की सेवा में वह सच्चा सुख प्राप्त करता है। टॉमस मूर की स्वर्गिक राज्य की धारणा तथा रूसो की सामान्य इच्छा भी इसी प्रकार के मौलिक आदर्श हैं। यह पद्धति राजनीति को नैतिकता के समीप लाने का कार्य करती है। इसमें तर्क और विवेक का सहारा लिया जाता है।

 

  • इस पद्धति में मुख्य खतरा यह है कि यथार्थ से दूर है। प्लेटो का दार्शनिक राजा इस पृथ्वी पर सम्भव नहीं है। साथ ही मूर की यूटोपिया तथा प्लेटो की रिपब्लिक की भाँति राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी कल्पनादर्शी तथा स्वप्नदर्शी बन जाता है। ऐसे में ऐतिहासिक तथ्यों से दूर रहकर खोखला आदर्शवादी बन जाने का खतरा बना रहता है।

 

2 ऐतिहासिक उपागम 

  • राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी के लिए इतिहास का ठीक प्रकार से अध्ययन करना बहुत उपयोगी है। राजनीतिक संस्थाओं और प्रणालियों के जन्म, विकास और उत्थान के अध्ययन का महत्व इस बात में है कि हम इससे भविष्य के पथ प्रदर्शन के लिए निष्कर्ष निकाल सकते हैं। प्रत्येक राजनीतिक संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप जानने के लिए हमें उसके अतीत का अध्ययन करना आवश्यक है। राजनीतिक संस्थाओं का निर्माण नहीं किया जाता वरन् वे विकास का परिणाम होती हैं। अतः प्रत्येक राजनीतिक संस्था का एक अतीत होता है और उसके अतीत से परिचित होकर ही उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ऐतिहासिक पद्धति राजनीतिक संस्थाओं के विकास को समझने हेतु वैज्ञानिक शोध का आधार प्रस्तुत करती है। राज्य अपनेवर्तमान स्वरूप में दीर्घकालीन ऐतिहासिक विकास के फलस्वरूप आया है। राज्य के इस विकास क्रम में अतीत काल में कब कब तथा किन परिस्थितियों में क्या-क्या घटनाएँ घटी तथा उनके क्या कारण थे आदि ऐसी बातें हैं जो राज्य के वर्तमान तथा भावी स्वरूप को समझने तथा निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होती हैं।

 

  • बहुधा यह कहा जाता है कि संविधान बनाये नहीं जाते बल्कि विकसित होते हैं। इस तथ्य की राज्य के संविधानों के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाती है। यह पद्धति हमें बतलाती है कि राजनीतिक घटनाएँ असम्बद्ध रूप से घटित नहीं होती वरन् एक न टूटने वाली श्रृंखला के रूप में आती हैं। यह महान राजनीतिक आन्दोलन और विचारों की खोज करती है और पूर्व ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वर्तमान राजनीतिक संस्थाओं और विचारों की खोज करती है एवं वर्तमान राजनीतिक संस्थाओं और विचारों की प्रामाणिकता का परीक्षण करने के योग्य बनाती है। इस सम्बन्ध में जिर्मन कहते हैं- यह भूत का सम्पर्क ही है जो मनुष्यों और समाजों को वर्तमान कार्यों के लिए तैयार करता है। वर्तमान जितना ही भौतिक चिन्ताओं और जटिलताओं के कारण तनावपूर्ण होता जायेगा, उतना ही भूत से प्रेरणा प्राप्त करने की आवश्यकता बढ़ती जायेगी।

 

  • यह भी कहा जाता है कि इतिहास की स्वयं पुनरावृत्ति होती है। भले ही यह कथन पूर्णतया सत्य नहीं है, क्योंकि ऐतिहासिक घटना चक्र की पुनरावृत्ति सदैव समान रूप से नहीं हुआ करती। परन्तु फिर भी अनेक परिस्थितियों में ऐसी पुनरावृत्ति होती ही है । ऐतिहासिक पद्धति की विशेषता दर्शाते हुए सर फ्रेडरिक पोलन ने कहा है- यह पद्धति इस बात की व्याख्या करने का प्रयास करती है कि संस्थाओं का रूप क्या है और कैसा बनता जा रहा है। ऐसा करने में वह उनके वर्तमान स्वरूप की व्याख्या करने की अपेक्षा इस बात पर अधिक जोर देती है कि उनका अतीत काल में क्या स्वरूप था और ये वर्तमान स्वरूप में किस प्रकार आयी । 

  • ऐतिहासिक पद्धति की इस उपयोगिता के कारण ही अरस्तु के समय से इस पद्धति का प्रयोग किया जाता रहा है। ऐतिहासिक पद्धति करने में विद्यार्थी को उपरी समानताओं और सादृश्यों के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उसे अपने कल्पित विचारों का इतिहास द्वारा समर्थन ढूँढ निकालने के लोभ से बचना चाहिए। उसका दृष्टिकोण एकदम वैज्ञानिक एवं निष्पक्ष होना चाहिए। उसे अपने धर्म, दल या दर्शन से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

 

3 कानूनी उपागम 

  • कानूनी दृष्टिकोण राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में एक अति महत्वपूर्ण विषय रहा है। उसने राज्य, सम्प्रभुता, सरकार, न्याय, अधिकार, प्राकृतिक विधि, अन्तर्राष्ट्रीय विधि आदि विषयों पर शताब्दियों तक विचार किया है। इस उपागम के अनुसार राजनीति विज्ञान को संविधान, कानून संहिता विधि द्वारा आदि के रूप में देखा जाता है। प्रायः कानूनी आधार पर ही राजनीतिक संस्थाओं को अन्य संस्थाओं से पृथक् किया जाता है। कानून का शासन व्यक्ति के शासन से उच्चतर है, यह दृष्टिकोण अरस्तू के समय से चला आ रहा है। आधुनिक युग में लोकतंत्र की एक प्रमुख शर्त के रूप में विधि के शासन' को माना जाता रहा है। कानून के सहारे ही समाजों में अन्धविश्वास खत्म होता है तथा रूढ़ियों में बदलाव लाया जाता है। राज्य के कानून सभी समुदायों के कानून से ऊपर हैं। यह धारणा राज्य की सम्प्रभुता को पुष्ट करती है। जनता की इच्छा या सामान्य इच्छा का कितना भी महत्व क्यों न हो, उसकी औपचारिक अभिव्यक्ति आवश्यक है। बेन्थन, जॉन आस्टिन आदि विधि समुदाय से सम्बद्ध चिन्तक कहे जाते हैं। फ्रांस, जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय देशों में इस उपागम का शताब्दियों तक भारी प्रभाव रहा है। विधि का शासन न्यायपालिका की सर्वोच्चता, समानता की आवश्यकता, धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों में विश्वास, जगत में साश्वत नियमों में आस्था आदि उपागम की मौलिक मान्यताएँ रही हैं। सभी राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक विधि संकायों के सदस्य थे। ।' कानून के शासन' की धारणा ने इस उपागम को अत्यधिक बल प्रदान किया है।

 

4 संस्थात्मक उपागम 

  • परम्परागत राजनीति विज्ञान राज्य और सरकार के अध्ययन पर आधारित हैं। कानून की अभिव्यक्ति संस्थाओं के माध्यम से होती है। संस्थात्मक या संरचनात्मक उपागम अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण से ही प्रारम्भ हो जाते हैं। संविधानों का वर्गीकरण मसलन संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक, संघात्मक तथा एकात्मक संस्थाओं के स्वरूप के आधार पर ही किया गया है। संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के सम्बन्ध पर आधारित है। संघात्मक तथा एकात्मक केन्द्र तथा राज्य के सम्बन्ध पर आधारित है। महायुद्ध से पहले इसका विषय क्षेत्र राजनीतिक संस्थाओं के इर्द-गिर्द ही घूमता था । जिन प्रमुख संस्थाओं का इस विषय में अध्ययन किया जाता रहा है वे हैं- संविधान, सरकार, मंत्रिमण्डल, संसद, न्यायालय, स्थानीय संस्थाएँ, राजनैतिक दल, दबाव गुट, नागरिक सेवा, प्रशासनिक विभाग, शक्तिपृथक्करण संस्थाएँ एवं प्रविधियाँ आदि। यह उपागम संस्थात्मक मूल्यों, स्वरूप, प्रक्रिया, बनावट या संरचनाओं, कार्यों एवं अधिकारों, औपचारिक एवं अनौपचारिक रूपों, प्रकार, परिणाम, प्रभाव आदि का विवेचन करता है। राजनीति के इस उपागम का सुझाव है कि राजनीतिक संस्थाएँ सरकार की गतिविधियों के द्वारा दार्शनिक आदर्शों के व्यावहारिक रूप देती है। उदाहरण के लिए लोकतंत्र के मूल आदर्शों को प्राप्त करने के लिए निर्वाचित विधायिकाएँ तथा स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न्यायालय जैसी संस्थाओं की आवश्यकता है । मान्टेस्क्यू ने शक्तिपृथक्करण सिद्धान्त को कार्यरूप देने के लिए व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को एक-दूसरे से अलग करने का सुझाव दिया।

 

  • कानूनी तथा संस्थात्मक उपागम एक-दूसरे के पूरक हैं। औपचारिक अध्ययन में संस्थाओं के स्वरूप के साथ-साथ उनके कानूनी ढाँचे पर भी विचार किया जाता है। कानून समाज, राज्य, अन्तर्राष्ट्रीय एवं राजनीति की एक आवश्यकता है। संस्थाएँ मूर्त तथा प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। इस उपागम का बहुत समय तक उपयोग होता रहा। परन्तु धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि यह उपागम मनुष्य तथा समाज को गहराई से समझाने में असमर्थ है। अतः व्यवहारवाद का आगमन हुआ जिसने राज राजनीति विज्ञान को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया।

 

5 प्रयोगात्मक उपागम 

  • राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय मानव होने के कारण इस विषय में प्रयोगों के लिए वैसा स्थान नहीं है जैसा कि पदार्थ विज्ञानों में। लेकिन फिर भी राजनीति विज्ञान में प्रयोग किये ही जाते हैं और इस विषय के अन्तर्गत किए जाने वाले प्रयोगों की एक विशिष्ट प्रकृति होती है। इसे लक्ष्य करते हुए गिलक्राइस्ट ने कहा है कि, “भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र में जो प्रयोग विधि है वह यद्यपि राजनीति शास्त्र में पूरी तरह लागू नहीं हो सकती किन्तु फिर भी राजनीति शास्त्र में अपने विशिष्ट प्रकार के प्रयोगों के लिए काफी गुंजाइश है। '

 

  • शासन तथा प्रशासन के क्षेत्र में नई विधियों के निर्माण में प्रयोगात्मक विधि का प्रयोग होता है। राजनीतिक घटनाएं, नई विधियों का निर्माण, नई राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना जैसे- भारत में पंचायती राज की व्यवस्था आदि इस शास्त्र के अध्ययन की प्रयोगात्मक पद्धतियाँ ही है। इन प्रयोगात्मक विधियों के निष्कर्ष तथा सफलताएं अन्य राज्यों के लए अनुकरणीय सिद्धान्तों तथा आदर्शों का प्रतिपादन करती है। यदि प्रयोग शब्द को व्यापक अर्थों में लिया जाय तो यह कहा जा सकता है कि राजनीति विज्ञान में निरन्तर रूप से ही प्रयोग होते रहते हैं। राजनीति वैज्ञानिक के लिए सम्पूर्ण विश्व एक प्रयोगशालय है और राजनीतिक क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन जो प्रतिदन होते हैं, वे राजनीति विज्ञान के प्रयोग ही हैं। काम्टे के शब्दों में, “राज्य के अन्तर्गत किया गया प्रत्येक परिवर्तन एक प्रयोग ही होता है।" इसी प्रकार ग्रिलक्राइस्ट ने कहा है कि, “शासन के ढाँचे में किया गया कोई भी परिवर्तन प्रत्येक नया कानून और प्रत्येक युद्ध राजनीति विज्ञान में एक प्रयोग ही होता है। " प्रो0 मरियम का तो विचार है कि राज्य के पास अन्य किसी भी संस्था की अपेक्षा प्रयोग के लिए बहुत सामग्री होती है। सेना, विद्यालय, सार्वजनिक सेवाएं और सार्वजनिक संस्थाओं की एक लम्बी कतार प्रत्यक्ष रूप से उसके नियत्रंण में होती है और इच्छानुसार प्रयोग के कार्य में लायी जा सकती है।

 

  • राजनीति के क्षेत्र में किये गये इस प्रकार के प्रयोगों के अनेक उदाहरण दिये जाते हैं। 1919 के 'भारतीय शासन अधिनियम' के अन्तर्गत वैध शासन की स्थापना की गई थी, जिसकी असफलता देखकर 1955 के कानून द्वारा उसका अन्त कर दिया गया। इसी प्रकार 1959 में सर्वप्रथम भारतीय संघ के राजस्थान राज्य में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना को अपनाया गया, जिसकी सफलता को देखकर भारतीय संघ के अन्य राज्यों द्वारा भी इसे अपना लिया गया है। फ्रांस में जब संसदीय शासन के परिणाम स्वरूप निरन्तर राजनीतिक अस्थिरता रही तो इसमें अध्यक्षात्मक शासन के कुछ तत्व मिलाकर एक प्रयोग किया गया, जो बहुत अधिक सीमा तक सफल रहा।

 

  • प्रयोगात्मक पद्धति विशुद्ध रूप से प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन में प्रयुक्त होती है। राजनीति विज्ञान के अध्ययन में इसका उपयोग मनचाहे ढंग से नहीं किया जा सकता। कभी-कभी इस पद्धति का अनुसरण करने के लिए परिणाम भयावह हो सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप लोकतंत्र की कमियों को देखते हुए राज्य में अधिनायक तंत्र की स्थापना का प्रयोग किया जाय तो इससे राज्य की व्यवस्था में उथल-पुथल मच जायेगी। इसी प्रकार प्रयोग द्वारा कभी राज्य का संगठन एकात्मक कर दें और फिर संघात्मक, अथवा कभी संसदात्मक तथा कभी अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली प्रचलित करके प्रयोग करने लगें तो राज्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जायेगी, संविधान में अस्थिरता बनी रहेगी और कानून के परिपालन की समस्या जटिल हो जायेगी। अतः राजनीति विज्ञान के अध्ययन में इस पद्धति का प्रयोग उस भांति सम्भव नहीं है जिस भांति वह प्रकृति विज्ञानों में होता है। लार्ड ब्राइस के अनुसार, “जिन पदार्थो से रसायनशास्त्री का पाला पड़ता है वे सब सदैव एक से होते हैं, उनको तोला या मापा जा सकता है। जबकि मानवीय प्रकृति को केवल वर्णित किया जा सकता है। हम तापमान, नमी और हवा के दबाव को माप सकते हैं लेकिन एक भीड़ के भावों में कितनी गर्मी रही होगी वह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते हैं। हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक संकटकाल में मंत्रिमण्डल मत की सुनवाई होगी लेकिन कितनी यह कहना कठिन है। मत, संवेग और अन्य बातें जो राजनीति को प्रभावित करती हैं गणना करने योग्य नहीं है।

 

6 पर्यवेक्षात्मक उपागम 

  • इस पद्धति का तात्पर्य यह है कि राजनीति विज्ञान के सिद्धान्तों का निरूपण तथा प्रतिपादन करने के लिए अध्ययनकर्ता को विभिन्न राज्यों की सरकारों तथा राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली व उनके संगठन आदि के साथ सामीप्य स्थापित करके उनका पर्यवेक्षण करना चाहिए; उनके सम्बन्ध में विभिन्न राज्यों की जनता के राजनीतिक आचरणों, भावनाओं आदि की विविधता को समझना चाहिए। यदि कोई राजनीतिक अध्ययनकर्ता स्थानीय स्वायत्त शासन का अध्ययन करना चाहता है तो उसे विभिन्न देशों की ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों की स्थानीय स्वायत्त शासन, संस्थाओं, पंचायतों, कम्यून, काउन्टी, जिला परिषद, सोवियत, नगरपालिका आदि के ज्ञान के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण करना चाहिए। इन संस्थाओं की बैठकों की कार्यप्रणाली उनके द्वारा सम्पादित किए गये कार्यों, उनकी वित्तीय स्थिति आदि का पूर्ण ज्ञान यथास्थान करना चाहिए। तत्पश्चात् इनका अध्ययन नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना चाहिए।

 

  • लार्ड ब्राइस, “सर्वप्रथम एक तथ्य को लीजिए, उसके बारे में आश्वस्त हो जाइये, उसे पूर्णतया स्पष्ट कर लीजिये, फिर उसे दूसरे तथ्यों से सम्बन्धित कीजिए । तत्पश्चात उस तथ्य का इन तथ्यों के साथ परीक्षण कीजिए, यह सोपान सबसे महत्वपूर्ण है। अन्ततः इसे अपने अध्ययन रूपी हार का मुख्य हीरा बनाईये।"

 

  • लावेस राजनीति एक प्रयोगशाला विज्ञान नहीं है बल्कि एक पर्यवेक्षणात्मक विज्ञान है। राजनीतिक संस्थाओं की वास्तविक कार्यविधि की प्रयोगशाला पुस्तकालय नहीं, वरन् राजनीतिक जीवन सम्बन्धी बाहरी विश्व है।

 

  • इस पद्धति का जेम्स ब्राइस ने अपनी पुस्तक लिखते हुए किया। बैब दम्पत्ति (सिडनी और बैट्रिसवैब) ने रूस का भ्रमण किया और रूसी राजनीति, प्रशासन एवं आर्थिक संगठन को प्रत्यक्ष रूप में देखकर रचना की। इसी प्रकार जॉन गन्थर ने एशिया, अफ्रीका, और यूरोप के विभिन्न देशों में भ्रमण कर पुस्तकों के रूप में अपने पर्यवेक्षणात्मक अनुभवों को लेखबद्ध किया।

 

7 तुलनात्मक उपागम 

  • यह पद्धति अति प्राचीन है। इसकी प्रक्रिया के अन्तर्गत अध्यनकर्ता राजनीतिक संगठनों, संस्थाओं, तथा व्यवस्थाओं का संकलन करके उनके निर्माण, कार्य पद्धतियों आदि का तुलनात्मक अध्ययन तथा परीक्षण करता है। तत्पश्चात् अपने निष्कर्ष निकालकर नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है। यूनानी दार्शनिक अरस्तु ने अपने राजनीतिक अध्ययन हेतु तत्कालीन 158 राज्यों के संविधानों का अध्ययन करके आदर्श राज्य के स्वरूप का प्रतिपादन किया था। अरस्तु ने इन संविधानों की तुलना के बाद क्रान्ति के कारणों की विवेचना की और सर्वोत्तम विधान के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाले। इसी प्रकार मैकियावेली, जीन बोदाँ, माँटेस्क्यू, हेनरी मेन, डी रॉकविल, लार्ड ब्राइस आदि ने भी इस पद्धति का अनुसरण किया है।

 

  • माण्टेस्क्यू ने फ्रांसीसी संविधान की ब्रिटिश संविधान से तुलना करते हुए अपने शक्ति पृथक्करण के प्रसिद्ध सिद्धान्त की रचना की और ब्राइस ने भी पर्यवेक्षणात्मक पद्धति के साथ-साथ तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग करते हुए प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक सामान्य परिस्थितियों का वर्णन किया है। डॉ. हरमन फाइनर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ आधुनिक सरकारों के सिद्धान्त व व्यवहार की रचना इस पद्धति के आधार पर ही की है। भारतीय संविधान के निर्माताओं को इस पद्धति से बहुत सहायता मिली थी। उन्होंने विभिन्न देशों की राजनीतिक संस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर अपने निष्कर्षों को भारतीय संविधान में संजो दिया। हमारे संविधान में अमेरिका के नमूने पर संघात्मक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय की तथा ब्रिटेन के नमनू पर संसदीय शासन की व्यवस्था की गई है। साथ ही नीति निर्देशक तत्व, संघ तथा एकक राज्यों के मध्य शक्ति वितरण में अन्य अनेक राज्यों के संविधानों का अनुसरण इस भाँति किया गया है कि वे भारत की परिस्थितियों के अनुकूल सिद्ध हों।

 

  • तुलनात्मक पद्धति का अवलंबन करने वाले अध्ययनकर्ता को यह सावधानी बरतने की आवश्यकता है कि वह प्राचीन तथा वर्तमान कालीन जिन तथ्यों को तुलनात्मक अध्ययन हेतु संकलित करता है, उनमें तत्सम्बन्धी समाजों तथा परिस्थितियों के साम्य तथा विविधता का ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा उसके निष्कर्षों, समस्त कालों, परिस्थितियों तथा समाजों में सही सिद्ध नहीं होंगे। कभी कभी ऐसा सम्भव हो सकता है कि तुलनात्मक अध्ययन हेतु एकत्र की गई सामग्री के आधार पर जिन राज्यों का अध्ययन किया गया है वहाँ की जनता की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, भौगोलिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में पर्याप्त भिन्नता हो। परिणामस्वरूप उन सबके सम्बन्ध में समान निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा। उदाहरणार्थ, भारत तथा पाश्चात्य देशों के प्रजातंत्र के स्वरूप में समानता नहीं है। हमारा लोकतंत्र आर्थिक तथा सामाजिक न्याय पर आधारित है जबकि उनका लोकतंत्र मौलिक रूप से व्यक्तिवादी तथा पूँजीवादी है। यदि तुलना करते सम्बन्धित सामाजिक और आर्थिक वातावरण तथा मानव स्वभाव का ध्यान न रखा जाय तो तुलना परिणामस्वरूप भ्रमपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। मांटस्क्यू के साथ वस्तुतः ऐसा ही हुआ। के । उसके द्वारा इंग्लैण्ड के नागरिकों की स्वतंत्रता के कारण शक्ति विभाजन सिद्धान्त बतलाया गया, जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि इंग्लैण्ड में शक्ति विभाजन सिद्धान्त को अपनाया ही नहीं गया। इन्हीं कारणों से गार्नर इस प्रणाली की आलोचना करते हुए लिखते हैं- तुलनात्मक प्रणाली से व्यावहारिक रूप में गलती होने का भय है क्योंकि सामान्य नियमों की खोज करने का प्रयत्न करते हुए विभिन्न परिस्थितियों के भेद को भुला देने की भूल की जा सकती है।

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