ऑस्टिन के सम्प्रभुता पर आक्षेप | Austin's sovereignty in Hindi
ऑस्टिन के सम्प्रभुता पर आक्षेप
ऑस्टिन के सम्प्रभुता पर आक्षेप
ऑस्टिन एक वकील था। इसलिए उसने सम्प्रभुता की व्याख्या केवल वैधानिक दृष्टिकोण से की है। ऑस्टिन द्वारासम्प्रभुता के व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान न देने कारण हेनरी मेन, फिगिस, ब्राइस, पाल बान्कर, ब्लंट ली, जेम्स स्टीफेन, लास्की, बार्कर, डिग्विट, कैब, जी0डी0एच0 कोल, स्टीफेन, दुरखिम, मैकाइवर, मिस फालेंट आदि बहुलवादियों ने इसकी कटु आलोचनाएँ की हैं। जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं. -
1. समाज में ऑस्टिन के मानव श्रेष्ठ को खोजना कठिन है
- ऑस्टिन अपने सम्प्रभुता सिद्धान्त में जिस जन श्रेष्ठ की कल्पना करता है । उसे व्यवहारिक स्तर पर खोजना कठिन है। सर हेनरी मेन ने ऑस्टिन की इस धारणा का खण्डन करते हुए अपनी हिस्ट्री ऑफ अर्ली इन्स्टीच्यूशन में लिखा है कि “इतिहास में इस प्रकार के निश्चित सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के उदाहरण नही मिलते हैं।" प्राचीन काल से अब तक किसी भी सत्ताधारी को उतनी शक्तियाँ प्राप्त नहीं पुस्तक 'द' हुई जितनी शक्ति ऑस्टिन अपने सम्प्रभु को देता है। ऑस्टिन ने सम्प्रभुता की आवधरणा प्रतिपादन परम्पराओं पर कानूनों की श्रेष्ठता स्थापित करने के उद्देश्य से किया था। उनका मानना था कि परम्पराओं का पालन ऐच्छिक होता है। जबकि कानून का पालन बाध्यकारी होता है। इसका खण्डन करते हुए हेनरी मेन कहता है कि समाज प्रभुसत्ताधारी के बिना तो चला है। किन्तु परम्पराओं के बिना नहीं उनका मानना है कि चीन के महान तार-तारों तथा भारत के मुगलों तक को ऑस्टिन के प्रभुसत्तासम्पन शासक का उदाहरण नहीं माना जा सकता है। यहाँ तक कि इस सन्दर्भ में पंजाब के राजा रणजीत सिंह का भी दृष्टांत नहीं दिया जा सकता है जो अत्यन्त शक्तिशाली शासक था वह कुछ भी दिया जा सकता था किन्तु उसने अपने जीवन काल में एक बार भी ऐसा आदेश जारी नहीं किया आदेश दे सकता है। उसके आदेशों की रचमात अवज्ञा के फलस्वरूप अंग-अंग अथवा मृत्यु दण्ड हो नहीं किया। जिसे ऑस्टिन के अनुसार कानून कहा जा सके उसकी प्रजा का जीवन चिरकालीन रीति-रिवाजों, धार्मिक विचारों और सामाजिक परम्पराओं द्वारा निर्मित होता था। इसके अतिरिक्त विश्व में सत्ता के मद में चूर शासकों तक ने किसी प्राकृतिक अथवा अति प्राकृतिक शक्ति के आगे अपना सिर झुकाया है। सम्प्रभु सरकार की कुछ सीमाएँ होती है जो लोगों की निष्ठा में गहरे रूप से जमी किन्ही धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं के रूप में देखी जा सकती है। केवल विक्षिप्त (विकृत) मानसिकता वाला कोई तानाशाह शासक ही ऑस्टिन के कल्पना के शासक का उदाहरण बन सकता है। हम उन प्रथाओं के विषाल समूह की उपेक्षा नहीं कर सकते है। जिन्हें हम संक्षिप्तता के कारण नैतिक कह सकते है। जो अपने शासक की शक्तियों को निश्चित करती है सीमित करती है तथा उसे अवरूद्ध करती है।
2 .यह धारणा लौकिक सम्प्रभुता के विरूद्ध है -
ऑस्टिन की यह धारणा लोकतन्त्र के आधार लौकिक (लोकप्रिय) सम्प्रभुता की धारणा के विपरीत है क्योंकि इसकी मान्यता है कि सम्प्रभुता अन्तिम रूप से जनता में निहित होती है अर्थात या जनता की इच्छाही राज्य में सर्वोपरि होती हैं। वस्तुतः आस्टिन की कल्पना के वैधानिक सम्प्रभु को मानने का दुष्परिणाम यह होगा कि हमे लोक प्रभुता और राजनीतिक प्रभुता दोनो को अस्वीकार करना पड़ेगा जबकि वर्तमान लोकतात्रिक युग मे यह कदापि सम्भव नही है यह एक लोकप्रिय कहावत है कि जनवाणी देव वाणी है या पंच ही परमेश्वर है। ऐसे उदाहरणो से इतिहास भरा पड़ा है कि कई बार निरंकुश से निरंकुश शासको या विधायको को भी अपने देश की जनता (मतदाताओं) के समक्ष नतमस्तक होना पड़ता है। चिपमैन ने बल देकर कहा है कि समाज के वास्तविक शासक अदृष्य होते है।” इस सम्बन्ध मे लास्की का कथन है कि राजनीतिक दर्षन के लिए प्रभुसत्ता के वैधानिक सिद्धान्त को वैध बनाना असम्भव है। निर्वाचक मण्डल प्रभुसत्ता का सूक्ष्म अंग होता है तथा इसके प्रतिनिधियो का चुनाव केवल इसकी शक्तियो के प्रयोग को वैध करने का ढंग होता है।
3. कानून सम्प्रभु का आदेश मात्र नही है
ऑस्टिन का यह मानना भी त्रुटिपूर्ण है कि कानून सम्प्रभु का आदेश मात्र है क्योकि कानून सम्प्रभु का आदेश मात्र न होकर ऐतिहासिक परम्पराओ, रीति-रिवाजो और सामाजिक मान्यताओ पर आधारित होते है। इसलिए इनकी उपेक्षा करने का साहस कोई निरंकुश शासक भी नही कर सकता है। इस सम्बन्ध में आलोचको का मानना है कि ऑस्टिन के विचार उन्नत सभ्य समाज मे तो लागू हो सकते है किन्तु अन्न एवं असभ्य राज्यो में यह सत्य नही हो सकते हैं। डिग्विट ने तो कहा है कि राज्य कानूनों का निर्माण नही करते बल्कि कानून राज्य का निर्माण करते हैं कानून तो केवल सामाजिक आवश्यकताओं के प्रकाश न मात्र होते है। हेनरीमेन ने लिखा है कि कानून को किसी भी दृष्टि से सर्वोच्च सत्ता का आदेश मात्र कहना भूल है वह तो समाज के अन्तर्गत क्रियाशील विभिन्न शक्तियों की उपज है। मै फाइवर के अनुसार तो सभी प्रथाजनित कानून स्वतः विकसित होते हैं वे संगठित करने की किसी प्रयास पूर्ण इच्छा द्वारा उत्पन्न नही होते और न ही उनकी उत्पत्ति राज्य के इच्छा से होती है। राज्य के पास प्रथा को स्थापित करने की शक्ति बहुत कम होती है और उसे नष्ट करने की उससे भी कम । आगे वह कहता है कि जब प्रथा पर प्रहार होता है तो बदले में प्रथा कानून पर प्रहार करती है। केवल उस कानून विषेश पर ही नही जो इसके विरोधी होते हैं बल्कि वह कानून पालन की भावना पर भी प्रहार करती है जो उससे महत्वपूर्ण अर्थात राज्य का आधार है।
4. सम्प्रभुता का विभाजन सम्भव है
ऑस्टिन सम्प्रभुता को अविभाज्य मानता है जबकि आलोचक उसके इस विचार से सहमत नही हैं। खासतौर पर बहुलवादियो का मत है कि समाज के अन्य संगठनो की भाँति राज्य की एक संगठन मात्र है। मानव अपने भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को संतुष्ठ करने के लिए अलग-अलग संगठनो का निर्माण करता है। यथा-सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सामाजिक संगठन, आर्थिक आवष्यकतओं की पूर्ति हेतु आर्थिक संगठन, धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धार्मिक संगठन, सांस्कृतिक आवष्यकताओं की पूर्ति हेतु सांस्कृतिक संगठन ठीक इसी प्रकार अपनी राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु राज्य का निर्माण करता है। राज्य समाज मे शान्ति व व्यवस्था रखने के साथ-साथ लोगों को सद्जीवन व समृद्धि प्रदान करने का प्रयास करता है। इसलिए व्यक्ति उसका अधिपत्य स्वीकार करता है। इसलिए बहुलवादी कहते हैं कि समाज का जो संगठन लोगो के लिए जितना उपयोगी है उसी के सापेक्ष शक्ति का विभाजन उनके मध्य कर दी जानी चाहिए। मैकाइवर ने लिखा है कि “अन्य संगठनो और राज्य के मध्य अन्तर केवल यह होता है कि अन्य संगठन प्रमुखतः अपने विषिष्ट विलेख द्वारा सीमित होते है यद्यपि उसका उद्देष्य इस तरह अधिरोपित सीमाओ के बीच व्यापक है। राज्य के कानून सार्वत्रिक होते है और उन्हें निग्रही अनुमोदन प्राप्त है। अतः राज्य को स्वयं उन हितों की चिन्ता करनी चाहिए जो सार्वजनिक हैं। बहुलवादी राज्य और अन्य संगठनो के मध्य अन्तर स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है जबकि अन्य संगठनो की सदस्यता ऐच्छिक होती है। राज्य अपने अपराधियों को फॉसी भी दे सकता है जबकि संगठन अपने विरुद्ध किये गये अपराध में इतनी कठोर सजा नही दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि वैधानिक या सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्प्रभुता भले ही अविभाज्य है लेकिन व्यवहार मे सम्प्रभुता विभाजित होती है। एकात्मक शासन जहां सारी शक्तियां केन्द्र के प होती है वहां भी शासन की शक्ति व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका में विभाजित होती है। संघात्मक शासन में तो शक्तियों का अनिवार्य रूप से विभाजन संघ व उसकी इकाईयो के मध्य होता है। संविधान केन्द्र और उसकी इकाईयो के सरकारो के अधिकार और कर्तव्य निष्चित कर देता है। बाकेर ने लिखा है कि “कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त इतना निष्फल नही हुआ जितना कि प्रभुसत्ता का सिद्धान्त । ”
5. सम्प्रभु शक्ति असीमित व निरंकुश नही है
ऑस्टिन सम्प्रभुता को असीमित सन्तावान तथा निरंकुश मानता है जबकि आलोचको का मत है कि सम्प्रभुता वैधानिक दृष्टि से भले असीमित व निरंकुश हो परन्तु राजनीतिक व ऐतिहासिक प्रतिबन्ध उसको सीमित करते है। कोई भी राज्य सर्वशक्तिमान नही होता है। प्रत्येक राज्य आन्तरिक दृष्टि से अपनी प्रजा के रीति- रीवाजो, परम्पराओं अधिकारों और उनसे किये गये समझौते द्वारा सीमित होता है। जबकि वाह्रय दृष्टि से वह दूसरे राज्यो के कानूनो, अन्तर्राष्ट्रीय कानूनो, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनो आदि द्वारा सीमित व नियंत्रित होती है। वस्तुतः वर्तमान समय में जबकि अणुबम हाइड्रोजन बम जैसे अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण हो चुका है तो समस्त मानवता से सम्बन्धित प्रनों क किसी एक राज्य की इच्छा पर नही छोड़ा जा सकता है। इसलिए लास्की ऑस्टिन के निरंकुशता की धारणा को अस्वीकार करते हुये कहता है कि मानवता के हित में सम्प्रभुता का सीमित होना आवष्यक है। वह इस बात से भली भाँति परिचित प्रतीत होते है कि सर्वशक्तिशाली स्वतन्त्र राज्यों की आपस में होड़ विश्व शान्ति और एकता के लिए घाटक है। संसार के राष्ट्रों के परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर रहने का जोरदार शब्दों में समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि निष्चित तौर पर एक ऐसे स्वतंत्र और सर्वश क्तिमान राज्य की कल्पना मानवता के हितों के प्रतिकुल है। जो अपने सदस्यों से सरकार के प्रति पूर्ण वफादारी की माँग करते है और जो अपने शक्ति से लोगो को वफादार बनाता है। हमारे सामने समस्या यह नही है कि हम मानवता के हितो और ब्रिटेन के हितो को एक-दूसरे के अनुकूल बनायें। समस्या यह है कि हम इस प्रकार से काम करे कि ब्रिटेन की नीति में मनुष्य का निहित रहें
6. शक्ति को अत्यधिक महत्व -
ऑस्टिन के सिद्धान्त में शक्ति को अत्यधिक महत्व दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्ति दण्ड के भय से ही कानूनो का पालन करता है। इस प्रकार ऑस्टिन ने शक्ति को निर्णायक तत्व के रूप में स्वीकार किया है। इसी कारण हर्नशा ने लिखा है कि ऑस्टिन के दर्षन में हवलदारी की गन्ध आती है। वस्तुतः कानून का पालन हम इसलिए नही करते हैं कि उसकी अवज्ञा के साथ दण्ड का भय जुड़ हुआ है बल्कि उसका पालन हम इसलिए करते हैं कि वह जन कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होता है। कानूनो के पालन का आधार मात्र भय न होकर अभ्यास, आदत, स्वार्थ, भावनाएं, प्रथाएं, विष्वास, प्राचीन, मान्यताएं, रीति-रिवाज आदि है। लास्की के अनुसार ”आदेश का भाव अनिष्चित और अप्रत्यक्ष है और दण्ड का विचार घुमा-फिराकर एक चक्करदार तरीके से सोचने के षिवाय बिल्कुल शून्य ही है। ”
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