राज्य की सम्प्रभुता पर बहुलवादी आक्षेप | बहुलवाद की मूल मान्यताएँ समालोचना | Bahulvaad Ki Aalochna
राज्य की सम्प्रभुता पर बहुलवादी आक्षेप , बहुलवाद की मूल मान्यताएँ समालोचना
राज्य की सम्प्रभुता पर बहुलवादी आक्षेप
बहुलवादियों ने अनेक आधारों पर राज्य सम्प्रभुता के परंपरागत अद्वैतवादी सिद्धान्त को अतार्किक ठहराते हुए अपनी विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास किया है। उनके द्वारा राज्य की सम्प्रभुता पर निम्नलिखित आक्षेप लगाये गये है:
(1) बहुलवादियों के अनुसार वर्तमान में सामाजिक जीवन की जटिलताओं तथा मानव की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के कारण राज्य के लिए यह असम्भव सा हो गया है कि वह मानव जीवन के समस्त उद्देष्यों की पूर्ति कर सके। ऐसे में व्यक्ति अपनी आवष्यकतानुसार अनेक प्रकार के संघो निर्माण करता है। जिनमें सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, व्यवसायक, आर्थिक आदि प्रमुख हैं। मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए यह आवष्यक है कि ये समुदाय राज्य से स्वतन्त्र रह कर अपने दायित्यों को निर्वहन करें । लास्की ने लिखा है कि आवष्यकताओं के दृष्टि से पूर्ण होने के लिए सामाजिक संगठन के ढाँचे का स्वरुप घीय होना चाहिए। राज्य मानव जीवन के केवल राजनीतिक आवश्यकताओं को पूरा करता है जबकि अन्य समुदायों द्वारा सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और मनोविनोद सम्बन्धी आवष्यकताओं को पूरा किया जाता है। वर्तमान युग सामूहिक रुप से ये सभी समुदाय राज्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं। ये समुदाय इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि इनमें से कुछ की उत्पत्ति तो राज्य से भी पूर्व हुई है। परिवार और धर्म ऐसे ही समुदाय हैं। इन समुदायो ने कई बार अपने हित में राज्य को झुकाने के लिए बाध्य भी किया है जैसे अमेरिका के रेलवे श्रमिक संघो ने अमेरिकन सरकार को विवष कर ऐसा कानून बनवाया कि उनसे 8 घण्टे से अधिक काम न लिया जा सके।
(2).बहुलवादियों के अनुसार इतिहास इस बात का साक्षी है कि पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राज्य की सत्ता उस रुप में कभी नहीं रही है जिस रूप में इसकी कल्पना परम्परावादी सम्प्रभुता के सिद्वान्तकारों ने की है। प्राचीन यूनान यद्यपि अरस्तू नें राज्य को सर्वोच्च समाजिक संगठन माना था फिर भी राज्य तत्कालीन परम्पराओं और नियमों की अवहेलना नहीं कर सकता था न ही वह राज्य के कानूनों से ही ऊपर था। प्राचीन भारत में तो राजा के ऊपर धर्म का नियन्त्रण था अर्थात राजा कोई भी अधार्मिक कृत्य नहीं कर सकता था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रभुसत्ता का सिद्धान्त राज्य के लिए कभी भी आवश्यक नहीं रहा है।
(3) बहुलवाद के समर्थकों का मानना है कि यदि राज्य को सम्प्रभुता दे दी जाय तो वह निरंकुष हो जाता है। अत्यधिक शक्तिषाली राज्य व्यक्ति के विकास के लिए बाधक साबित होता है। राज्य हित व्यक्तिगत हित की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है अर्थात व्यक्ति राज्य के हित का साधन मात्र बन कर रह जाता है जबकि व्यक्ति राज्य के लिए नहीं बल्कि राज्य व्यक्ति के हितों की पूर्ति हेतु होता है। इसके अलावा राज्य को निरंकुषता प्राप्त होने पर व्यक्ति के लिए इस समय कठिनाई उत्पन्न हो जायेगी जब कभी राज्य और अन्य समुदायों में टकराव हो जाय। इस स्थित में व्यक्ति को अपने विवेकानुसार भक्ति निर्धारित करने का अधिकार केवल बहुलवादी राज्य में ही सम्भव होगा ।
(4) आधुनिक लोकतन्त्रों की सफलता एवं सुदृढ़ता के लिए भी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण, आवष्यक माना जाता है जबकि परम्परागत सम्प्रभुता सिद्धान्त सारी शक्तियाँ राज्य में केन्द्रित करने का पक्षपोषण करता हैं। इसके अलावा मानव मस्तिष्क स्वकेन्द्रित होता है अतः वह कभी नहीं चाहता है कि उसके मामले में निर्णय लेने का अधिकार पूर्णरूपेण किसी दूसरे को प्राप्त हो जबकि सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में सारे निर्णय राज्य द्वारा ही लिए जाते हैं। अपने मामले में निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त हो इसके लिए राज्य शक्ति का विकेन्द्रीकरण आवष्यक है। यह स्थिति बहुलवाद में ही सम्भव है।
(5) बहुलवादियों के अनुसार कानून सम्प्रभु का आदेष मात्र नही है जैसा की राज्य सम्प्रभुता के समर्थक मानते है बल्कि कानून के विकास व निर्माण में राज्य इच्छा के अलावा अन्य कई चीजो का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसके अलावा राज्य कानून से उच्च भी नही होता है। वह तो देष क और सामाजिक परिस्थितियो के अनुरुप कानून का उदघोषक मात्र होता है और शासक स्वयं भी देष के संवैधानिक विधि के अधीन होता है। डच महोदय ने कहा कि कोई भी कानून केवल इस कारण मान्य नही होता कि उसे राज्य ने बनाया है। कानून का पालन तो व्यापक जनसमुदाय केवल इसलिए करता है क्योकि उसे यह प्रतीत होता है कि वह उसके हितो के सबसे अनुकुल है। जैसे चोरी, हत्या या बलात्कार को राज्य का कोई भी आदेष वैधानिक नही बना सकता क्योकि यह जन सामान्य के दृष्टि में अनैतिक है। इस प्रकार राज्य को कानून निर्माता या कानून से ऊपर नही माना जा सकता और नहीं वह सम्प्रभु हो सकता है।
(6) वर्तमान युग अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है जिसमें प्रत्येक राज्य परस्पर निर्भर हैं। आज दुनिया का कोई भी देष पूर्ण अर्थिक सन्तुष्टता का दावा नही कर सकता। इस स्थिति में राज्य को यदि सम्प्रभुता प्राप्त होगी तो राज्यो में आपसी विवाद या संघर्ष बढेगा जो विष्व शान्ति तथा समृद्धि के लिए घातक सिद्ध होगा इसके अतिरिक्त शान्ति व सहयोग बढाने के उद्देष्य से निर्मित अन्तर्राष्ट्रीय संगठन व कानून भी राज्य सम्प्रभुता को सीमित करते है। इसलिए विष्व के देषो के मध्य न केवल राजनीतिक क्षेत्र में सहयोग देखने को मिलता है बल्कि आज विष्व के देषो मे सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक सहयोग अति आवश्यक हो गया | इसके लिए राज्य के साथ-साथ अन्य समुदायो के भी सुद्दढ़ किया जाना आज की आवष्यकता बन चुका है।
बहुलवाद की मूल मान्यताएँ
शाब्दिक दृष्टि से एक के स्थान पर अनेक की स्थापना ही बहुलवाद है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बहुलवाद वह राजनीतिक विचारधारा या सिद्वान्त है जो राज्य की सर्वोच्चता (सम्प्रभुता ) को अस्वीकार करता है तथा उसके स्थान पर समाज के विभिन्न समुदायो को शक्ति व स्वतन्त्रता देने का प्रबल समर्थन करता है। ये समुदाय न केवल अपने अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होगें बल्कि ये राज्य के समकक्ष भी होगें। बहुलवाद के समर्थको की कुछ मूल मान्यताए है जिनमे से प्रमुख का उल्लेख निम्नलिखित रूपो मे किया जा सकता है
(1) बहुलवादियों की मान्यता है कि मानव जीवन बहुआयामी होता है इसलिए उसकी तरह-तरह की आवष्यकताएं होती है इन सभी आवष्यकताओं को अकेले राज्य पूरा नहीं कर सकता। अतः इन समुदाय का महत्व राज्य से कम नही होता है। राज्य मानव जीवन के राजनीतिक पहलू से सम्बधि है और बहुलवादियो के अनुसार उसे केवल अपने क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिए। जिससे अन्य समुदाय स्वतन्त्र रूप से मानवीय जीवन के अन्य सभी पहलुओ का यथोचित विकास कर सकें। इस प्रकार बहुलवादी अन्य समुदायों को भी राज्य के समकक्ष तथा राज्य के समान ही अपने - अपने क्षेत्रों मे पूर्ण शक्ति देने का समर्थन करते हैं। लास्की के शब्दो मे "समुदायो के अनेक प्रकारो मे राज्य भी एक है और अन्य समुदायो की तुलना मे वह व्यक्ति की भक्ति का उच्चतर अधिकारी नहीं है। “
(2) बहुलवादी राज्य और समाज में अन्तर करते हैं तथा समाज को राज्य की अपेक्षा अधिक व्यापक संगठन करार देते हैं। समाज इतना व्यापक होता है कि राज्य रूपी संगठन भी उसी मे समाहित होता है। समाज अनेक समुदायों का समुच्चय होता है राज्य भी उन्ही मे एक है। राज्य समाज का एक ऐसा अंग है जो उद्देष्य और कार्यक्षेत्र के दृष्टि से समाज का साथी नही हो सकता है। मैकाइवर ने लिखा है कि राज्य एक ऐसा संगठन है जिसे समाज का समकालीन या सम विस्तार नहीं कहाँ सकता है राज्य का निर्माण तो समाज के अन्तर्गत एक निष्चत व्यवस्था के रूप में कुछ विषेष उद्देष्य की प्राप्ति हेतु ही किया गया है। लास्की का दावा है कि हम ब्रह्माण्ड नहीं है बल्कि अनेक ब्रह्माण्ड है और संगठन भी उतने ही वास्तविकता लिए हुए हैं जितना कि राज्य । संगठनो का भी अपना एक संगठनात्मक ढाँचा होता है जो अपने आन्तरिक मामले में उतना ही स्वयत होते हैं जितना कि राज्य होते हैं। राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है जबकि संगठनो की सदस्यता ऐच्छिक होती है। राज्य का स्वरूप क्षेत्रीय सीमाओं द्वारा निर्धारित होता है जबकि संगठनो का क्षेत्र विभिन्न राज्यो की सीमाओ से परे भी देखने को मिलता है। मैकाइबर के शब्दो में यदि राज्य भंग होता है तो यह प्रकृति के अट्टहास की तरह है यदि यह दो टुकडो मे बंटता है तो यह हिंसा और प्रतिरोध परिणाम है जबकि अन्य संगठनो के मामले में एसा नही देखने को मिलता है।
(3) बहुलवादी नियन्त्रित सम्प्रभुता का समर्थन करते है और कहते हैं कि सम्प्रभुता आन्तरिक तथा वाह्य दोनों क्षेत्रों में सीमित होती है। वाह्य क्षेत्र में अनियन्त्रित सम्प्रभुता मानवता के लिए विनाशकारी साबित होगी जैसा कि दो विष्वयुद्वो के रूप में देखने को मिला हैं। वर्तमान परमाणु बम के युग में वाह्य निरपेक्ष प्रभुसत्ता राष्ट्रो के अस्तित्व के लिए घातक साबित होगी आन्तरिक क्षेत्र में भी सम्प्रभुसत्ता अपने नागरिक तथा समुदायो के अधिकारों से सीमित होते हैं। व्लंटषली ने उचित ही कहा है कि राज्य सर्वसत्तावान नही है क्योकि वह बाहरी क्षेत्र में अन्य राज्यों के अधिकारो से सीमित है तथा आन्तरिक क्षेत्र मे वह स्वय अपनी प्रकृति तथा अपने नागरिको के अधिकारो से सीमित है।
(4) बहुलवादी केन्द्रीयकृत शासन नही बल्कि विकेन्द्रीकृत शासन सत्ता को स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि क्षेत्रीय या स्थानीय समस्याए भी कम महत्व की नही होती हैं। इनका समाधन केन्द्रीकरण द्वारा नही बल्कि विकेन्द्रीकरण द्वारा ही सम्भव है। इनका मानना कि राज्य सत्ता व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर विभिन्न समुदायो में विभक्त कर दी जानी चाहिए। इस प्रकार एक एसे सामाजिक संगठन की स्थापना की जाय जिसमे सत्ता का स्वरूप अनिवार्य रूप से संघात्मक अर्थात विभिन्न स्तरों पर विभाजित हो। इस प्रकार का संघात्मक सामाजिक संगठन ही मानव जीवन के चहुमुखी विकास को सुनिष्चित करेगा। जिससे मानव को संतुष्टि प्राप्त होगी और वह आत्मिक विकास भी करेगा।
(5) यद्यपि बहुलवादी राज्य के सर्वोच्चता और निरंकुशता को तो अस्वीकारते है लेकिन फिर भी वे अराजकतावादियों या साम्यवादियो की भांति राज्य को समूल नष्ट नहीं करना चाहते है। वे समाज के विभिन्न संगठनो के मध्य उत्पन्न होने वाले विवादो के निस्तारण के लिए अन्य संगठनो की अपेक्षा राज्य को प्राथमिकता देते हैं। फिर भी राज्य के उग्र या निरंकुष रूप को स्वीकार नही करते हैं। कारण कहाँ जाता है कि बहुलवादी अराजकतवाद तथा अद्वैतवाद के बीच समन्वय स्थापित करते हुए अपनी धारणा को स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
(6) बहुलवाद अपने स्वरूप मे पूर्णतः लोकतान्त्रिक है क्योकि प्रारम्भ से लेकर अन्त तक वह व्यावसायिक प्रतिनिधित्व तथा गुप्त मतदान का समर्थन करता है। यह एक एसे राज्य स्थापना करता है जिसमें सत्ता नीचे से ऊपर की ओर प्रवाहित होता है। सत्ता का विभिन्न समुदायों में वर्गीकरण पूर्णतः जनतन्त्र के अनुरूप कहा जा सकता है।
बहुलवाद की समालोचना
यद्यपि बहुलवाद 20वीं शताब्दी का एक प्रमुख विचारधारा है। जो राज्य के सर्वोच्चता और निरंकुशता का प्रबल विरोध करता है। यह इसको विभाजित तथा प्रतिबन्धित भी करना चाहती है किन्तु यह कुछ काल्पनिक या गैर बैज्ञानिक उदारवादी आधरो पर खड़ा है। इसलिए आलोचको ने इसकी कटु आलोचनाएं की हैं। इनमें से कुछ प्रमुख का उल्लेख निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है:
(1) बहुलवादी राज्य की सम्प्रभुता को विभिन्न संघो या समुदायो मे विभाजित कर देना चाहते हैं । जबकि सम्प्रभुता को राज्य की आत्मा माना जाता है। इसके विभाजन का अर्थ होगा राज्य अस्तित्व को समाप्त कर देना। गिलक्राइस्ट ने कहा है कि यदि एक राज्य प्रभुसत्ता छोड़ देता है तो यह राज्य का अन्त होगा क्योंकि राज्य के विचार के लिए प्रभुसत्ता आवष्यक है। राज्य की नियन्त्रणकारी शक्ति को समाप्त करना अराजकता को जन्म देगा क्योंकि उस स्थिति में प्रत्येक संघ को अपनी इच्छानुसार कार्य करने का अधिकार होगा। नियन्त्रण के अभाव में इन संघो के मध्य टकराव उत्पन्न होग जिसकी तार्किक परिणति अराजकता होगी। गिलक्राइस्ट के षब्दो में “यदि बहुलवाद को तार्किक निष्कर्ष तक ले जाया जाय तो इसका अर्थ होगा समाज का विघटन और शन्ति एवं व्यवस्था के स्थान पर विभिन्न समुदायों द्वारा अपनी-अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष शान्ति व व्यवस्था बनाये रखने के लिए राज्य के पास नियन्त्रणकारी शक्ति का होना आवश्यक है।
(2) बहुलवाद पर एक गम्भीर आरोप यह भी लगाया जाता है कि यह अन्तर्विरोधों से परिपूर्ण है। एक तरफ तो बहुलवादी सैद्धान्तिक दृष्टि से राज्य की शक्तियों को सीमित करके शक्ति और स्वायत्तता का विकेन्द्रीकरण विभिन्न समुदायों में करना चाहते हैं तो वही दूसरी तरफ जब वे व्यवहारिक धरातल पर आते हैं तो महसूस करते कि राज्य के पास इतनी शक्ति अवश्य होनी चाहिए जिससे वह विभिन्न समुदायों के क्रियाकलापों को समन्वित करके विनियमन की भूमिका अदा कर सके। प्रश्न उठता है कि बाध्यकारी शक्ति के अभाव में राज्य इस कार्य को किस प्रकार कर पायेंगें । निस्सन्देह व्यक्ति समूहो में संगठित होता हैं और ये समूह मानव व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने में प्रशंसनीय भूमिका अदा करते है। परन्तु इससे किसी भी रूप में राज्य की प्राथमिकता प्रभावित नही होती हैं। कोकर के शब्दों में यह बड़ा मनोरंजक अन्तर्विरोध हैं। अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए वे बड़े जोष के साथ प्रभुसत्ता का विरोध करते हैं और उसे राजनीति की शब्दावली तक से निकाल देना चाहते हैं किन्तु दूसरी ओर जब वे राज्य के वास्तविक संगठन का वर्णन करते हैं तो उन्हें विवश होकर राज्य के सर्वोपरि स्थिति और प्रभुसत्ता को स्वीकार करना पड़ता है।
(3) बहुलवादी विचारधारा की यह मान्यता भी भ्रामक प्रतीत होती हैं कि समाज के विभिन्न संगठनों का कार्य क्षेत्र पूर्णतः पृथक होता हैं और मानवीय कार्यो को ऐसे विभागो में विभक्त किया जा सकता है जिसका एक-दूसरे से कोई सम्बन्ध न हो। जबकि वर्तमान सामाजिक जटिलताओं में मानव के सर्वांगीण विकास के लिए आवष्यक है कि व्यक्ति के लिए कार्य करने वाले सभी समुदायों में आप सहयोग और समन्वय होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जबकि इन संगठनों को नियन्त्रित व निर्देशित करने की शक्ति किसी एक संगठन या समुदाय के पास अवश्य हों। यह धारणा राज्य के सर्वोच्चता की उपादेयता को स्वयं सिद्ध कर देती है।
(4) बहुलवाद की आलोचना इस दृष्टि से भी की जाती है कि यह धारणा जिस निरंकुश अद्वैतवादी सम्प्रभुता के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप अस्तित्व में आयी है। वह केवल कल्पना मात्र है। हीगल के अतिरिक्त अन्य कोई भी सम्प्रभुता का समर्थक राज्य को उतनी निरंकुशता प्रदान नहीं करता जितनी की बहुलवादियों ने कल्पना की है। बोदां, हॉब्स, रूसो, ऑस्टिन आदि ने सम्प्रभुता पर प्राकृतिक, नैतिक या व्यवहारिक कुछ न कुछ नियन्त्रण अवष्य स्वीकार किया है। कोकर के अनुसार इनमें से किसी भी दार्शनिक का यह दावा नहीं था कि सम्प्रभुता की अवज्ञा करना, उसको चुनौती देना, उसकी आलोचना करना, अथवा विरोध करना अवष्यमेव अनैतिक, तर्कहीन, असामाजिक तथा अव्यवहारिक है। आशीर्वादम ने लिखा है कि बहुलवादी जिस अद्वैतवादी शत्रु पर आक्रमण करते हैं बहुत कुछ सीमा तक वह एक कल्पानात्मक जीव है।
(5) अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर बहुलवादियों द्वारा एकलवादी सम्प्रभुता का विरोध भी त्रृटिपूर्ण है। यह सत्य है कि राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय आचार-व्यवहार और कानून का आदर करना चाहिए। लेकिन कानूनीतौर पर राज्य इन सीमाओं का पालन करने के लिए बाध्य नहीं होता है। जनता के दबाव में वह भले ही इसका पालन करें। स्वयं कई अद्वैतवादियों ने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य की सम्प्रभुता को सीमित माना है। इस प्रकार यह देखने को मिलता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से वाह्य सम्प्रभुता भले ही अक्षुण्ण प्रतीत हो व्यवहार में उस पर कई प्रतिबन्ध होते हैं।
उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी बहुलवाद के महत्व को पूर्णतः नकारा नही जा सकता है । यह सामूहिक या सामुदायिक जीवन के महत्व को स्थापित करता हैं। राज्य की निरपेक्ष सम्प्रभुता के विरूद्ध प्रजातन्त्र के अनुरूप यह राज्य शक्ति के विकेन्द्रीकरण पर बल देता है। वर्तमान जटिलतापूर्ण सामाजिक जीवन में मानवीय जीवन के सर्वांगीण विकास में समुदायों के महत्व को पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है। समाज के संघात्मक प्रवृत्तियों ने सत्ता के संघात्मक स्वरूप को अनिवार्य बना दिया है। आन्तरिक स्तर पर जनमत तथा नागरिको के अधिकार सम्प्रभु शक्ति को सीमित करते हैं तो वाह्य या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ, आसियान, सार्क आदि जैसे क्षेत्रिय संगठनों ने भी राष्ट्रीय राज्य की निरंकुशता को सीमित किया है। ये प्रवृत्तियां बहुलवादी धारणा के अनुरूप कही जा सकती है।
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