राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - दैवी सिद्धान्त, प्रमुख तत्व आलोचना उपयोगिता |Theories of origin of the state Divine principle
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - दैवी सिद्धान्त, प्रमुख तत्व आलोचना उपयोगिता
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त
1 दैवीय सिद्धान्त के प्रमुख तत्व
2 दैवीय सिद्धान्त की आलोचना
3 दैवीय सिद्धान्त की
उपयोगिता
राज्य की उत्पत्ति का
सामाजिक समझौता सिद्धान्त
1 थामस हाब्स का सामाजिक समझौता
2 लॉक का सामाजिक समझौता
3 जीन जैम्स रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त
4 सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना
5 सिद्धान्त की
उपयोगिता
राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त
- राज्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह एक रहस्यपूर्ण तथा विवादों से घिरा हुआ विषय है। राजनीतिक चेतना के उदय से सम्बन्धित परिस्थितियों के विषय में हमे वास्तव में कोई ज्ञान नही है। चूँकि आधुनिक राज्य लम्बे विकास का परिणाम है, अतएव इसकी उत्पत्ति के सन्दर्भ में इतिहास तथा समाजशास्त्र के अभिलेखो का अध्ययन करना आवश्यक माना जाता है। इस दृष्टि से राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ प्रमुख सिद्धान्त उभरकर सामने आये है। प्रस्तुत इकाई में हम राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त तथा सामाजिक समझौता सिद्धान्त का अध्ययन करेंगे।
- राज्य की उत्पत्ति के बारे में दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त सबसे प्रथम या पुराना सिद्धान्त है। यह राज्य को दैवीय निर्मित अथवा ईश्वरीय निर्मित संस्था मानता है। यह सिद्धान्त हमें बतलाता है कि ईश्वर राजा के रूप में अपने प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है, अतएव वह ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी है आम जनता के प्रति नही । आम जनता का परम कर्तव्य यही है कि वह राजा की आज्ञाओं का पालन करे।
- राज्य की उत्पत्ति के
दैवीय सिद्धान्त का समर्थन विविध धर्मग्रंथों में भी किया गया है। हिन्दू, यहूदी, ईसाई, मुसलमान तथा
विश्व के अन्य सभी धर्मो के लोग इस मत को मानते है कि राजनीतिक सत्ता ईश्वरी वरदान
है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम ईसाइयों के धर्म ग्रंथ "न्यू
टेस्टामेंट" द्वारा किया गया था। ईसाई सन्तों ने घोषणा की थी, 'राजा के प्रति
विद्रोह की भावना ही ईश्वर के प्रति विद्रोह है तथा जो ऐसा करेगा, उसे मृत्यु
मिलेगी । '
- यहूदी धर्म की पुस्तक" ओल्ड टेस्टामेंट" में भी राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। सेंट आगस्टाइन तथा पोप ग्रेगरी ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया था। महाभारत, मनुस्मृति आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथो में भी इसका समर्थन किया गया है। इसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। कि राजा का निर्माण इन्द्र, मित्र, वरूण, यम आदि देवताओं के अंश को लेकर हुआ है तथा राजा मनुष्य के रूप में एक महत्वपूर्ण देवता है। भारत में कुछ शासकों जैसे राम एवं कृष्ण को ईश्वरीय प्रतिनिधि माना जाता है। चीन में सम्राट को स्वर्ग का पुत्र के रूप में माना गया। इसी प्रकार मित्र एवं जापान में भी राजा सूर्य पुत्र माना जाता है। मुस्लिम मत में भी इस्लामी राज्य का ध्येय धरती पर अल्लाह का शासन बनाये रखना है।
इंग्लैण्ड के शासक जेम्स प्रथम ने अपनी पुस्तक The True Law of Free Monarchies में सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहा था, राजाओं को सच्चे अर्थ में देवता माना जाता है क्योंकि वे ईश्वरीय सत्ता के समान धरती पर शासन करता है। राजा लोक पृथ्वी पर ईश्वर की जीवित प्रतिमायें है।
1 दैवीय सिद्धान्त के प्रमुख तत्व:
दैवीय सिद्धान्त के
प्रमुख तत्व इस प्रकार हैं:
1. राज्य ईश्वरीय संस्था है।
2. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है।
3. ईश्वर के द्वारा ही राजा को शक्ति प्रदान की जाती है।
4. ईश्वर का प्रत्येक कार्य सृष्टि के हित में होता है इसलिए ईश्वर के प्रतिनिधि राजा के समस्त न्यायसंगत एवं जनहित में होते हैं।
5. राजसत्ता पैतृक होती
है अर्थात् पिता के बाद पुत्र सत्ता का अधिकारी होता है। 6. राजा की आलोचना या
निन्दा करना धर्म के विरूद्ध है।
2 दैवीय सिद्धान्त की आलोचना
दैवीय सिद्धान्त की निम्न
आधारों पर आलोचना की जाती है
1.दैवी सिद्धान्त पूर्व
रूप से अनैतिहासिक एवं अवैज्ञानिक सिद्धान्त है। सम्पूर्ण मानव इतिहास में तथ्य का
कहीं प्रमाण नहीं मिलता कि राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा की गई है। यह सिद्धान्त
मानव संवेदनाओं, जिज्ञासाओं तथा आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं प्रतीत होता । यह
सिद्धान्त मानव अनुभव के विरूद्ध है, अतएव स्वीकार करने योग्य
नहीं है।
2. इस सिद्धान्त को तर्क
की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। सभी धार्मिक ग्रंथों में ईश्वर को प्रेम एवं करुणा का
भण्डार बताया गया है परन्तु व्यवहार में अब तक अनेक शासक अन्यायी, अत्याचारी एवं
क्रूर प्रकृति के हुए हैं। ऐसी परिस्थितिायें में ऐसा शासक ईश्वर का प्रतिनिधित्व
कैसे कर सकता है? अतः तार्किक दृष्टि से यह सिद्धान्त अनुचित एवं
अमान्य प्रतीत होता है।
3. यदि राजा को वास्तव में ईश्वर का प्रतिनिधि अथवा जीवित रूप माना जाये तो ऐसे शासक के निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी बनने का भय रहता है। इतिहास गवाह है कि ऐसे शासकों ने जनता को ईश्वरीय प्रकोप दिखाकर उनपर अनेक अत्याचार किये। अतः यह सिद्धान्त स्वीकार करने योग्य नहीं है।
4. यह सिद्धान्त राज्य को पवित्र संस्था मानता है, अतएव इसके स्वरूप में परिवर्तन करना सम्भव नहीं माना जाता। इस दृष्टि से यह सिद्धान्त रूढ़िवादी कहा जा सकता है क्योंकि परिवर्तनों के अभाव में राज्य मानव में राज्य मानव जीवन के लिए अनुपयोगी हो जायेगा ।
5. आधुनिक लोकतांत्रिक युग में यह सिद्धान्त सर्वथा अप्रासंगिक है क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता स्वयं शासक का चुनाव करती है तथा गलत कार्य करने पर उसे हटा सकती है । परन्तु दैवीय सिद्धान्त इन मान्यताओं को अस्वीकार करता है क्योंकि वह गलत कार्य किये जाने पर भी राजा का विरोध करने का अधिकार जनता को नहीं प्रदान करता। अतः यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं प्रतीत होता।
6. यह सिद्धान्त आधुनिक
संप्रभु राज्यों के लिए अमान्य है क्योंकि उसमें शासक किसी न किसी रूप में जनता से
जुड़े होते हैं तथा धर्म को राजनीति से अलग करके देखा जाता है।
3 दैवीय सिद्धान्त की उपयोगिता:
समस्त कमियों के बावजूद यह सिद्धान्त अनेक दृष्टि से उपयोगी भी है.-
1. इस सिद्धान्त ने शासक
जनता सम्बन्धों में उत्तरदायित्व की भावना को बढ़ाया। राजा एवं प्रजा दोनों को ही
इसके अन्तर्गत कुछ निश्चित मानदण्डों के अनुरूप व्यवहार करने की सीख मिली।
2. इस सिद्धान्त ने राजा
को ईश्वरीय प्रतिनिधि बतलाकर जनता को राजभक्ति एवं आज्ञापालन का पाठ पढ़ाया जो
आधुनिक राज्य का एक आवश्यक गुण माना जाता है।
3.जैसा कि प्रो०
गिलक्राइस्ट का मानना है यह सिद्धान्त गलत एवं विवकेशून्य भले ही हो, अराजकता का अन्त
करने का श्रेय इसे ही जाता है।
4.यह सिद्धान्त इस तथ्य का भी प्रतिपादन करता है कि चूँकि राजा का ईश्वर के प्रति नैतिक उत्तरदायित्व होता है, अतएव राजा को भी नैतिक मानदण्डों का प्रयोग करते हुए शासन शक्ति का उचित रूप में प्रयोग करना चाहिये।
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