सम्प्रभुता के लक्षण | सम्प्रभुता के विविध रूप | लौकिक सम्प्रभुता |Characteristics of Sovereignty
सम्प्रभुता के लक्षण , सम्प्रभुता के विविध रूप , लौकिक सम्प्रभुता
सम्प्रभुता के लक्षण
1 निरंकुशता
- इसका अर्थ है कि सम्प्रभुता सर्वोच्च, सम्पूर्ण, निरंकुश तथा असीमित होती है। इसकी असीमितता के दो पहलू है - आन्तरिक और वाह्य आन्तरिक क्षेत्र में राज्य की सत्ता सर्वोपरि और पूर्ण रूप से अमर्यादित है। इसलिए राज्य आन्तरिक क्षेत्र के लिए कोई भी कानून बना सकता है किसी भी कानून को बदल सकता है तथा उनका पालन न करने वालों को कोई भी दण्ड से सकता है। वाह्य दृष्टि से भी प्रभुसत्ता स्वतन्त्र होती है। इसलिए वह विदेश नीति का निर्धारण स्वतन्त्रता पूर्वक कर सकता है। युद्ध व सन्धि के सम्बन्ध में भी उसका निर्णय अन्तिम होता है। न तो कोई दूसरा राज्य और न ही कोई अर्न्तराष्ट्रीय संगठन इस सन्दर्भ में कोई दबाव डाल सकता है।
- सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्प्रभुता असीम व निरंकुशता होती है लेकिन व्यवहार में परम्पराएं, रीति- रीवाज, जनमत, , नैतिक व प्राकृतिक नियम तथा अर्न्तराष्ट्रीय कानून सम्प्रभुता पर प्रतिबन्ध आरोपित करते है । ब्ल्ली का कथन है कि “ संसार में पूर्ण स्वतन्त्रता जैसी कोई वस्तु नही है यहाँ तक कि राज्य भी सर्वषक्तिमान नही है क्योंकि वाह्य रूप से यह दूसरे राज्यों के अधिकारों से सीमित है और अन्दर से स्वयं अपने स्वभाव और सदस्यों के अधिकारों द्वारा मर्यादित है।
2 सर्वव्यापकता
- सर्वव्यापकता का आषय है कि राज्य अपने निष्चित भौगोलिक सीमा के अर्न्तगतसभी व्यक्तियों ,संस्थाओं, संघो, तथा अन्य व्यवस्थाओं पर अपना पूर्ण अधिकार रखता है। उस सीमा में रहने वाले सभी लोग राज्य निर्मित कानून को मानने के बाध्य होते है। सम्प्रभुता से मुक्त होने का दावा कोई भी नही कर सकता है। लेकिन इसके अपवाद स्वरूप गिलक्राइस्ट ने ' राज्येत्तर सम्प्रभुता के सिद्धान्त की तरफ संकेत किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी राज्य में जो दूसरे राज्यों के राजदूत दूतावास होते हैं। उन पर उसी राज्य के कानून व सम्प्रभुता लागू होती है जिस राज्य के वे होते है।
3 अदेयता
- सम्प्रभुता सदैव राज्य से संलिप्त रहती है। अतः राज्य इसे किसी दूसरे को नही दे सकता है। इसे दूसरे को देने का अर्थ है कि राज्य का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। अर्थात राज्य आत्महत्या की कीमत पर ही इसे किसी दूसरे को दे सकता है। लाइबर के शब्दो में ' जैसे एक बृक्ष अपने उगने, पनपने, और फलने फूलने के अधिकार को नहीं छोड़ सकता है अथवा एक व्यक्ति विना अपना विनाष किए अपने जीवन व व्यक्तित्व को अपने से अलग नही कर सकता है ठीक उसी प्रकार राज्य से सम्प्रभुता को अलग नही किया जा सकता है।
4 स्थायित्व
- जिस प्रकार राज्य स्थायी होता है उसी प्रकार सम्प्रभुता भी स्थायी होती है। जबतक राज्य कायम रहेगा तबतक सम्प्रभुता भी कायम रहेगी। सम्प्रभुता का अन्त राज्य का अन्त होगा कई बार यह मान लिया जाता है कि राज्य में एक शासन या सरकार का अन्त होने या शासक की मृत्यु होने पर सम्प्रभुता का अन्त हो जाता है लेकिन यह एक भ्रम मात्र है। ब्रिटेन के बारे में यह कहावत प्रसिद्ध है कि “ राजा मृत है राजा चिंरजीवी हो।" इसका भाव यह है कि राजा की मृत्यु से भी राजपद (सम्प्रभुता का अन्त नही होता है।
5 अविभाज्यता
- सम्प्रभुता पूर्ण होती है इसलिए इसे विभाजित भी नही किया जा सकता है। सके विभाजन का अर्थ होगा एक से अधिक राज्यों का निर्माण करना । उदाहरण स्वरूप 1971 ई0 के भारत-पाक युद्ध द्वारा पाकिस्तानी सत्ता दो टुकड़ों में विभाजित हो गयी जिससे एक नये राज्य बांग्लादेष का सृजन हुआ। कालहन ने लिखा है कि सम्प्रभुता एक या सम्रग वस्तु है उसके विभाजन का अर्थ उसे नष्ट करना होगा वह राज्य में सर्वोत्तम सत्ता है और आधी सम्प्रभुता कहना उतना ही असंगत है जितना आधा वर्ग या आधा त्रिभुज कहना।
6 मौलिकता
- मौलिकता का अर्थ है सम्प्रभुता अपनी स्थिति का आधार स्वयं होती है। उसे न तो किसी ने पैदा किया है न तो बनाया है। बल्कि यह राज्य में जन्मजात होती है। अगर यह मान लिया जाय कि सम्प्रभुता राज्य को किसी द्वारा दी गयी है तो ऐसी स्थिति में यह स्वीकार करना होगा कि उसे देने वाला उसे वापस ले सकता है। जिस प्रकार किसी अमानत को रखने वाला उसका स्वामी नहीं होता उसी प्रकार किसी द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्प्रभु नही हो सकती है।
सम्प्रभुता के विविध रूप
सम्प्रभुता के रूपों को लेकर राजनीति विज्ञान के विद्वानों में पर्याप्त मतभेद देखने को मिलता है । इस मतवैभिन्यता का आधार सम्प्रभुता की प्रकृति व उसका केन्द्र विन्दु रहा है । सम्प्रभुता का वास्तव में केवल एक ही रूप हो सकता है। जिसे राज्य शक्ति कहा जाता है।
मैकाइबर ने कहा है कि “ जिन लोगो ने राज्य की सम्प्रभुता को लेकर शब्दो का भ्रमजाल रखा उनके उद्देष्य पवित्र नही है बल्कि वे केवल आदर्शवादी प्रचारक है।” इस सन्दर्भ में भ्रम को दूर करने के लिए सम्प्रभुता के कुछ प्रचलित रूपों की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है।
1 नाममात्र की सम्प्रभुता और वास्तविक सम्प्रभुता
- नाममात्र और वास्तविक सम्प्रभुता का अन्तर प्रायः संसदीय शासन व्यवस्थाओं में देखने में मिलता है। जहाँ संविधान सारी शक्तियां नाममात्र के सम्प्रभु ( औपचारिक सम्प्रभु) को देता है। जबकि व्यवहार में उन शक्तियों का प्रयोग वह नही बल्कि वास्तविक सम्प्रभु करता है। इस व्यवस्था विकास सर्वप्रथम ब्रिटीश शासन व्यवस्था में हुआ जहाँ सम्राट सम्पूर्ण सत्ता का वाहक होता है.
- किन्तु लोकतन्त्र के विकास के साथ-साथ उसकी सम्पूर्ण शक्तियों का प्रयोग जनता के प्रतिनिधियों द्वारा किया जाने लगा है। इस प्रकार वहां यह देखने को मिलता है कि आज भी ब्रिटीष शासन में सारी शक्तियों को स्रोत सिद्धान्तः सम्राट ही है किन्तु व्यवहार में इन सारी शक्तियों का प्रयोग ब्रिटी प्रधानमन्त्री, मंत्रिमण्डल व संसद द्वारा किया जाता है और वह केवल नाममात्र का सम्प्रभु रह गया जबकि वास्तविक सम्प्रभु मंत्रिमण्डल व संसद है। यह अन्तर भारतीय शासन में भी देखने को मिलता है जहाँ सविधान सारी शक्तियां राष्ट्रपति को देता है जैसा कि संविधान के अनु0 53 में कहा गया है। कि संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति में निहित है। जिसका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थों के माध्यम से करेगा। लेकिन व्यवहार में इन सभी शक्तियों का प्रयोग भारतीय प्रधानमन्त्री व उसका मंन्त्रीमण्डल ही करता है। इस प्रकार राष्ट्रपति नाममात्र का सम्प्रभु है जबकि और प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिमण्डल वास्तविक सम्प्रभु है।
2 विधिक व राजनीतिक सम्प्रभु
- विधिक सम्प्रभुता एक सवैधानिक संकल्पना है जिसका आषय है कि बैधानिक सम्प्रभु को कानून बनाने की सर्वोच्च शक्ति प्राप्त है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि उसके आदेश ही कानून अर्थात राज्य के सभी कानून उसी के द्वारा निर्मित किये जाते है। इस प्रकार कानूनों का निर्माण करने वाली सत्ता ही कानूनी सम्प्रभु कहलाती है। विधिक सम्प्रभु का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटीष संसद है जो किसी भी विषय पर कोई कानून बना सकती है। इसलिए कहा जाता है कि ब्रिटीष संसद ब्रिटेन में स्त्री को पुरूष और पुरूष को स्त्री बनाने के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य कर सकती है यद्यपि कानूनी तौर पर वह इसे भी कर सकती है। इस प्रकार विधिक सम्प्रभु की शक्ति निरपेक्ष, असीमित, तथा अप्रतिबन्धित होती है। इसके विपरीत राजनीतिक सम्प्रभुता की संकल्पना अस्पष्ट और भ्रमित करने वाली है। इस सन्दर्भ में कहा जाता है कि प्रत्येक विधिक सम्प्रभु के पीछे एक राजनीतिक सम्प्रभु होता है। जिसके समक्ष समय-समय पर विधिक सम्प्रभु को झुकना पड़ता है। डायसी ख है कि जिस सम्प्रभुता को वकील लोग स्वीकार करते है उसके पीछे एक दूसरा सम्प्रभु रहता है। जिसके समक्ष बैधानिक सम्प्रभु को सिर झुकाना पड़ता है।
- राजनीतिक सम्प्रभुता निर्वाचक मण्डल या मतदाताओ में अवस्थित होती है। प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र में जहाँ जनता स्वयं शासन संचालन करती है वहाँ विधिक और राजनीतिक सम्प्रभु का अन्तर धुंंला होता है लेकिन अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र (प्रतिनिध्यात्मक शासन) में जहाँ शासन कार्य जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि करते है वहाँ राजनीतिक सम्प्रभुता मतदाताओं में निहित होती है। जिसका द नियमित अन्तराल के बाद होने वाले चुनावों में होता है। जिससे सरकारों का निर्माण होता है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि चुनाव ही वह श्रेष्ठ तरीका है जिसमें राजनीतिक सम्प्रभु की इच्छा व्यक्त होती है।
3 विधितः और वस्तुतः सम्प्रभुता
- सामान्य रूप से विधितः और वस्तुतः सम्प्रभुता एक ही होती है क्योंकि प्रायः सत्ता प्राप्त व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह कानून द्वारा मान्यता प्राप्त या स्थापित होता है। इन दोनों के मध्य अन्तर आपातकालीन स्थितियों में उत्पन्न होता है। विधितः सम्प्रभु वह होता है जो राज्य के संविधान, सुस्थापित कानून व परम्पराओं के अनुरूप पद पर आसीन होता है। इसलिए उसके पास आदेष देने तथा उसका पालन कराने का वैध अधिकार होता है। जबकि वस्तुतः सम्प्रभु वह होता है जो राज्य के सर्वोच्च पद पर गैर कानूनी अथवा असंवैधानिक ढंग से आसीन हो जाता है तत्पष्चात अपनी इच्छा को बल पूर्वक राज्य के सभी लोगों पर लागू करने लगता है। इस प्रकार कहा जा सकता है बैधानिक सम्प्रभुता का आधार कानून होता है। जबकि वास्तविक सम्प्रभुता का आधार शक्ति हो है। वह अपने शक्ति के बल पर जनता से अपनी आज्ञाओं का पालन करवाती है। भले ही उसे शासन करने या आज्ञा पालन कराने का कानूनी अधिकार नही है । इतिहास में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते है जहाँ कानूनी सम्प्रभु को अपदस्थ कर कोई व्यक्ति या समुदाय सत्ता हथिया लेता है। जैसे रूस में बोल्षेविकों द्वारा जार को अपदस्थ कर लेनिन के नेतृत्व में सत्ता पर नियंत्रण कर लिया गया। इस तरह विधितः सम्प्रभु जार थे जबकि वस्तुतः सम्प्रभुता लेनिन के हाथों में आ गयी। लेकिन यही सम्प्रभुता जब दीर्घकाल तक बनी रह जाती है तो धीरे-धीरे वह जन सहमति प्राप्त कर वैधानिक बन जाती है। क्योंकि कोई भी सम्प्रभु केवल शक्ति के आधार पर अधिक दिनों तक अपना अस्तित्व बनाये रखने में सफल नही हो सकता है।
4 लौकिक सम्प्रभुता
- लौकिक सम्प्रभुता का आषय है कि शासन की अन्तिम और सर्वोच्च शक्ति का स्रोत एंव स्वामिनी जनता ही है। आधुनिक लोकतन्त्र की धारणा लोकप्रिय सम्प्रभुता पर ही आधारित है। इसकी व सर्वप्रथम कौंसिलियर आन्दोलन के समर्थको ने पन्द्रहवीं शताब्दी में चर्च की शक्ति के खिलाफ उठायी लेकिन आधुनिक युग में इसे इसे सर्वप्रथम स्थापित करने श्रेय संविदावादी विचारक जी जैक्स रूसों को दिया जाता है। जिन्होने सामान्य इच्छा के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर इसका प्रबल पक्षपोषण किया। रूसो के अनुसार कोई भी प्रषासक अपनी इच्छा को आज्ञप्ति के रूप मे व्यक्त तो कर सकता है परन्तु कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होता है। लोकप्रिय सम्प्रभुतां लोकमत की शक्ति में सार्थक होती है। चूंकि शासक वर्ग को निष्चित अन्तराल के बाद फिर से सर्वसाधारण विष्वास प्राप्त करने के लिए चुनाव का सामना करना पड़ता है अतः वह लोकमत की उपेक्षा नही कर सकता है। लोकप्रिय सम्प्रभुता की मूल मान्यता यह है कि शासक वर्ग के द्वारा शासन कार्य सदेव जनहित को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए क्योंकि उसका अस्तित्व तभी तक बना रहेगा जबतक उसे जनसामान्य के बहुमत का समर्थन (विश्वास) हासिल है।
- गिलक्राइस्ट के अनुसार लोकप्रिय सम्प्रभुता सामान्यतया किसी व्यक्तिगत शासक या वर्ग की अपेक्षा लोगों की शक्ति है। यह लोकप्रिय सम्प्रभुता की धारणा ही आगे चलकर अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रान्ति का आधार बनी। अमेरिका के स्वतन्त्रता आन्दोलन में स्पष्ट रूप से घोषित किया गया था कि प्रत्येक मानव जन्म से ही समान रूप से जीवन, स्वतन्त्रता और प्रसन्नता प्राप्त करने का अधिकारी होता है। फ्रांसिसी क्रान्ति में घोषित किया गया कि प्रत्येक मनुष्य जन्म से स्वतन्त्रता और अधिकार में समान हैं यदि किसी राजनीतिक व्यवस्था के द्वारा स्वाधीनता, सुरक्षा और सम्पति का दमन किया जाता है तो राजनीतिक संगठन का यह दायित्व होता है कि वह संगठित रूप से उसका विरोध करे ।
- लोकप्रिय सम्प्रभुता का विचार भले ही लोकलुभावना तथा जनसम्मान से ओत-प्रोत प्रतीत हो किन्तु इसका अर्थ अनिष्चितता से आच्छादित है अर्थात इसकी व्याख्या करना दुष्कर हो गया है। यद्यपि यह कहनाअच्छा लगता है कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था का मूल आधार जनता है। इसलिए शासन उसकी इच्छा के अनुरूप ही होना चाहिए परन्तु यहाँ प्रष्न उठता है कि जनता का अर्थ क्या है। गार्नर लिखते है कि जनता के दो अर्थ है- प्रथम राज्य में रहनेवाला सम्पूर्ण असंगठित तथा अनिचि जन समुदाय जिसमें बच्चे, बूढ़े, अपराधी, दिवालिया, तथा विदेषी आदि सम्मिलित है जिनका राजनीतिक व्यवस्था के सचालन में कोई योगदान नहीं है। यदि वे जनता के द्योतक है तो कुल मिलाकर इस धारणा का कोई अर्थ नहीं है। द्वितीय निर्वाचक मण्डल अर्थात जनता का केवल वह भाग जिसे वयस्क मताधिकार प्राप्त है किन्तु इन्हें भी जनता नही कहा जा सकता क्योकि किसी भी राज्य में मतदाताओं की संख्या कुल जनसख्यां से काफी कम होती है। इसके अतिरिक्त चुवान वहुमत के आधार पर होता है जो सम्पूर्ण जनता का अल्पमत हो सकता है। जिसे वैधानिक दृष्टि से सम्प्रभु नही कहा जा सकता है। सत्य तो यह है कि वर्तमान असमानता पूर्ण समाज में सम्प्रभुता कुछ साधन सम्पन्न लोगो के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह गयी है।
डा0 आशीर्वादम के अनुसार लोकप्रिय सम्प्रभुता का अपना कुछ विषेष गुण होता है जिसका उल्लेख निम्नरूपों में किया सकता है:
(१) शासन शासक वर्ग का हित करने वाला नही बल्कि अनिवार्य रूप से जनता के हितों की साधना करने वाला होना चाहिए।
(२ ) यदि शासक जान बूझकर जनता की इच्छाओं का दमन करता है तो जन क्रान्ति की सम्भावना प्रबल हो जाती है।
(३) जनमत की अभिव्यक्ति सरल वैधानिक साधनो के माध्यम से होनी चाहिए।
(४ ) सरकार को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाये रखने हेतु समयानुसार चुनाव स्थानीय स्वायत शासन, लोकनिर्णय, आरम्भक, प्रत्याह्वान आदि की व्यवस्था सुनिष्चित की जाय।
(५ ) शासन के द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग सविधांन के अनुरूप किया जाय स्वेच्छाचारी ढंग से नही।
इस प्रकार यह देखने को मिलता है कि लौकिक सम्प्रभुता की धारणा सम्प्रभुता का आधार जनता की शक्ति को मानती है। इस विचारधारा ने प्राचीन निरकुष राजतन्त्रों की चूले तो हिला दी किन्तु राजतन्त्र के खात्मे के बाद यह सिद्धान्त मार्ग भटक गया और आज यह अस्पष्टता के गर्त में धसा पड़ा है। वर्तमान में लौकिक सम्प्रभुता की धारणा भले ही भ्रम उत्पन्न करने वाली प्रतीत हो किन्तु इसकी लोकप्रियता को नजर अदांज नही किया सकता। इसकी सवसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह शासन का आधार जनता या जनसहमति को मानती है। यह राज्य के अस्तित्व को जनहित में स्वीकार करती है। यदि कोई राज्य अपने जनता के हितो की लगातार अवहेलना करता है तो शासन के विरूद्ध क्रान्ति का सम्भावना बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त यह सिद्धान्त इस तथ्य को भी उजागर करता है कि सरकार को अपनी शक्ति का प्रयोग वैध कानूनों के आधार पर ही करना चाहिए मनमाने तरीके से नही ।
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