जलवायु परिवर्तन की ओर संवेदनशीलता |जलवायु परिवर्तन की ओर अनुकूलन | Climate Change and Adaptation
जलवायु परिवर्तन की ओर संवेदनशीलता और अनुकूलन
जलवायु परिवर्तन की ओर संवेदनशीलता
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है तथा जलवायु का प्रभाव पारिस्थितिकी व्यवस्था और समाज पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से पड़ता है। जल एक अत्यंत मौलिक और गंभीर प्राकृतिक स्रोत है और जलवायु परिवर्तन में यह उच्चतम संवेदनशील है। यह देखा गया है कि जलवायु परिघटना में तीव्रता से परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं, कि विश्व जल विज्ञान चक्र में तीव्रता से परिवर्तन हो रहा है तथा इसके जल की मात्रा एवं उसकी गुणवत्ता दोनों चाहे भूमि की सतह या भूतल का जल हो सम्पूर्ण तारामण्डल पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इन परिवर्तनों का प्रभाव पीने का पानी, भोजन, उतपादन, निर्माण सफाई कार्य करने के लिए जल स्रोतों की उपलब्धता पर पड़ा है। इसके साथ ही व्यापक जनसंख्या विशेषकर विकासशील और कम आय वाले देशों के प्रयोग के लिए जल, भोजन और आजीविका एवं स्वास्थ्य की असुरक्षा की संवेदनशीलता में बेहद वृद्धि हुई है।
संवेदनशीलता का अर्थ एवं परिभाषा
- आई.पी.सी.सी. (IPCC) की पाँचवी रिपोर्ट (2007) में आंकलन करते हुए संवेदनशीलता की परिभाषा प्रस्तुत की है। "जलवायु परिवर्तन की ओर संवेदनशीलता की व्यापक रूप से पूर्ववृत्ति अथवा झुकाव को विपरीत या विषय प्रभाव कहते हैं। संवेदनशीलता संकल्पना और तत्वों की विभिन्नताओं को समाहित करती है व गंभीरता या अति संवेदनशीलता हानि व घातकता को सम्मिलित करती है तथा जिसमें क्षमता की कमी और स्वीकार्यता का सामना करना कठिन होता है । "
- अतः संवेदनशीलता का जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में यह अर्थ है कि जलवायु स्थितियों में जो परिवर्तन हो रहा है, उसका सामना करना संभव नहीं है। परिवर्तन इतने अधिक हो गए हैं, कि लोग उनका सामना और स्वीकार करने में नितांत असमर्थ दिखाई देते हैं। उनके लिए इतना ही है कि जलवायु परिवर्तन बहुत ही संवेदनशील हो चुका है। इस तरह से आई.पी.सी.सी. के अनुसार संवेदनशीलता उस हद या दर को कहते हैं, जो विपरीत प्रभाव को झेलने के योग्य नहीं रहता। जिसके बाद एक प्रबंधन संवेदनशील होता है और जलवायु परिवर्तन इस परवर्तिन में जलवायु भिन्नता और जलवायु चरम सीमा शामिल है।" संवेदनशीलता व्यवहार व विशालता का कार्य है तथा जलवायु परिवर्तन की दर है जिसमें गंभीरता और स्वीकार्यता की पद्धति होती है जिसे व्यवस्था कह सकते हैं (आई.पी.सी.सी. 2007) जलवायु की चिन्ता कोई मामूली अन्दाजा नहीं है बल्कि यह आई.पी.सी.सी. के तत्वादान के अंतर्गत सैकडों वैज्ञानिकों की खोज के आधार पर निर्धारित की गई है। आई. पी.सी.सी. की स्थापना यू. एन. ई. पी. (UNEP) और डब्ल्यू. एम. ओ. (WMO) के द्वारा की गई है, जिसको संयुक्त राष्ट्र जेनेवा महासभा ( Geneva Conference) 1988 द्वारा संदर्भित या नामित किया है। जलवायु परिवर्तन आई.पी.सी.सी. ने मनुष्य या मानव द्वारा निर्मित विश्व पर्यावरणात्मक चुनौती के रूप में मान्यता दी है जलवायु परिवर्तन पर कार्य करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास किए गए हैं, जिसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकार करते हुए इस पर कार्य आरंभ किया गया है, इसी संदर्भ में आई.पी.सी.सी. ने अपनी पाँचवीं रिपोर्ट प्रकाशित की है और अब वह छटवीं रिपोर्ट तैयार करने में व्यस्त है जिसे वह सन् 2019 में प्रस्तुत करेंगे।
जलवायु परिवर्तन राष्ट्रीय संदर्भ (National Context)
- जलवायु परिवर्तन भारत में स्पष्टतया बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है भारत जलवायु परिवर्तन अधिक प्रभावित रहता है, यह केवल इसलिए ही नहीं है कि यहाँ पर जलवायु सम्बन्धी अनेक उच्च श्रेणी की आपदाएँ आती रहती हैं जिनका हम सामना करते हैं। ( भारत का 65 प्रतिशत क्षेत्र सूखा पीड़ित क्षेत्र 12 प्रतिशत खाद्य संभावित क्षेत्र और 8 प्रतिशत चक्रवात और बवण्डर संभावित संवेदनशील क्षेत्र हैं बल्कि यहाँ लोगों की अर्थव्यवस्था इस पर निर्भर करती है और यहाँ की अधिकतर जनसंख्या जलवायु गंभीरता वाले क्षेत्र में रहती है अथवा उससे सम्बन्धित है (अर्थात् कृषि, वन, पर्यटन, पशुपालन और मछली पालन ) । भारत जलवायु परिवर्तन की संवेदनशीलता वाले देशों में सबसे प्रमुख है ( बीरनाइट और मालोन —Beernaert and Malone. 2005 ) । भारत सरकार इस विषय पर बहुत गंभीर है, इसका साक्ष्य पर्यावरण और वन मंत्रालय का यह कथन है। जो इस विषय को संदर्भित करता है। मंत्रालय का मानना है कि भारत जैसा कोई और अन्य देश विश्व में नहीं है, जिसमें संवेदनशीलता के इतने सारे आयाम हों। हमारे हिमालय की 7000 कि.मी. लम्बी तटीय पट्टी मौजूद है, जिसमें संयोग से हमारे मुख्य खनिज पदार्थ व्यापकता से भरे पड़े हैं। हमारे विभिन्न व बहुआयामी क्षेत्रों में जलवायु का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है । कठोर परिश्रम पर वैज्ञानिक आधारित आकलन के द्वारा हमारी स्वीकार्यता या अपनाई गई कार्यनीति को प्रकाशित किया गया है तथा उसको निश्चित किया गया है .
जलवायु परिवर्तन की ओर संवेदनशीलता : कुछ अत्याधिक संवेदनशील क्षेत्र
- जलवायु परिवर्तन की संवेदनशीलता के अत्याधिक संवेदनशील क्षेत्र (Hotspots) या बिन्दु की पहचान वर्तमान ज्ञान और जानकारी के आधार पर की गई है, जिसका तत्कालीन वर्षों में विकास संभव हुआ है ( एंथोनी स्मिथ Anthony Smith, 2009) एशियाई विकास बैंक (2009) के अनुसार निचले तटीय क्षेत्र, डेल्टा क्षेत्र और अर्ध सूखा क्षेत्र आदि जलवायु के संवेदनशील विशेष क्षेत्र हैं। ज्वलंत क्षेत्र को विशेष क्षेत्र अथवा इलाकों के रूप में परिभाषित किया गया है, जोकि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक या अधिक प्राकृतिक घातक या भयानकता के उच्च जोखिम वाले क्षेत्र होते हैं जिनका विपरीत प्रभाव अत्यधिक हो सकता है अथवा अन्य की तुलना और अधिक घातक हो सकते हैं। इसके साथ ही पश्चिमी तटीय क्षेत्र, गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा, महानदी डेल्टा, पूर्वी तट पर कृष्णा और गोदावरी और राजस्थान का सूखा क्षेत्र, यह सभी संवेदनशील क्षेत्र में सम्मिलित हैं तथा इसके दूसरी ओर आई. एन.सी.सी.ए. - INCCA (2012) ने केवल चार क्षेत्रों की पहचान की है अथवा उनको माना है, जिनके नाम हैं तटीय क्षेत्र, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तथा जैव-विविधता पर आधारित जलवायु परिवर्तन संवेदनशील क्षेत्र के रूप में हिमालय के क्षेत्र सम्मिलित है ओर पश्चिमी शुष्क भूमि जोकि भारत की महत्वपूर्ण जीव भौतिकी स्थल है। इन चिन्हित क्षेत्रों से बाहर रखा गया है। फोरसाइट ग्रुप (Foresight Group 2011 ) ने शुष्क भूमि पहाड़ी क्षेत्र एवं ऊँचे नीचे तटीय मैदान, तथा जलवायु परिवर्तन के संवेदनशील क्षेत्र मानक के रूप में, इनकी पहचान की हैं जोकि अभी तक वास्तविकता के अपूर्ण प्रतिनिधि समझे जाते हैं तथा इनकी पहचान करने में भिन्नता होती हैं। यहाँ पर यह टिप्पणी करना सार्थक रहेगा कि जलवायु परिवर्तन मानक अभी तक वास्तविकता के अपूर्ण प्रतिवेदन हैं और संवेदनशीलता तथा ज्वलंत क्षेत्र अथवा विशेष क्षेत्र के पहचान किए गए क्षेत्र भिन्न तरह से स्वीकार या निश्चित किए गए हैं (इरीकीसेन एवं अन्य, Erickesen et al. 2011)।
भारतीय हिमालय क्षेत्र आई. एच. आर. (Indian Himalayan Region - IHR)
- पश्चिमी और पूर्वी हिमालय राज्यों के चारों और फैला हुआ है तथा पर्वतीय एवं निचले प्रवाह में समुदायों के लिए कठिन पारिस्थितिकी सेवाएं उपलब्ध कराई गए हैं भारतीय हिमालय क्षेत्र व्यापक क्षेत्र में फैला हुआ है, इसमें लगभग 17 प्रतिशत क्षेत्र स्थायी रूप से बर्फ ग्लेशियर से ढका हुआ है और 30 • 40 प्रतिशत क्षेत्र मौसमी बर्फ से ढका हुआ, यह केवल ठण्डे मौसम में बर्फ से ढ़का होता है। इससे जल कुण्डों अथवा गहरे तालाबों का निर्माण होता है। इससे बारह मासों यानी पूरे वर्ष तक नदियों को पानी मिलता रहता है। अर्थात् वे नदियाँ हमेशा पूरे पानी के साथ हमेशा बहती रहती है जो पीने का पानी, कृषि और जल विद्युत निर्माण में काम आता है जिनका स्रोत हिमालय और हिमालया से निकलने वाली नदियाँ होती हैं भारतीय हिमालय क्षेत्र में देश की लगभग 4 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है और यहीं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका कमाती हैं यहाँ पर औसतन भूमिधारक बहुत कम हैं फिर भी प्रत्येक परिवार के पास हेक्टेयर से कम भूमि ही होती हैं अधिकतर कृषि की आय जीवन निर्वाह योग्य ही होती है और अच्छी फसल पैदा होने के लिए समुचित मौसम की आवश्यकता होती है। यदि अच्छा मौसम रहेगा तो अच्छी फसल होगी अन्यथा किसान को हानि होगी। पशुधन के लिए पशुओं को चारा प्राकृतिक स्रोतों से ही मिलता है, जिसमें वन क्षेत्र शामिल हैं, जिससे किसानों के पशुधन को चारा प्राप्त होता है।
- हिमालय की चोटी से निकलने वाली नदियाँ दक्षिण एशिया की नदियों में प्रमुख स्थान रखती हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिए बहुत ही संवेदनशील हैं (आई. सी. आई. एम. ओ. डी. - ICIMOD, 2007) | यहाँ पर खाद्य और जीवन निर्वाह का साधन एक मात्र कृषि पर निर्भर करता है, यहाँ का जीवन कृषि कार्य तक ही सीमित है यहाँ पर कृषि करने योग्य भूमि का अभाव है और सामान्य रूप से कृषि उत्पादनों की संख्या भी बहुत ही कम है ( तिवारी और जोशी, Tiwari & Joshi 2012)। अभी कुछ समय पहले ही की घटना है, कि यहाँ की जनसंख्या में वृद्धि देखी गई है तथा यहाँ परम्परागत संसाधनों का प्रयोग किया जाने लगा है, अब लोग यहाँ आकर बसने लगे हैं, बाजार अर्थव्यवस्था में वृद्धि का रिकार्ड किया गया है और तेजी से शहरीकरण हो रहा है। पर्यटकों की संख्या में अकस्मात वृद्धि हुई है. इसलिए हिमालय में प्राकृतिक संसाधनों का लोगों द्वारा बड़ी संख्या में दोहन किया जा रहा है। इन परिवर्तनों के कारण हिमालय की चोटी की जल व्यवस्था को हानि और अवरोधों के परिणामस्वरूप प्राथमिक पारिस्थितिकीय सेवाओं पर दबाव पड़ा है, जिससे सीधा ही ऊर्जा के क्षेत्रों को आघात लगा है, जैव विविधता को बेहद हानि उठानी पड़ रही हैं. इस तरह से हम देखते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों और आसपास की निचली भूमि पर निवास करने वाले लोगों की आजीविका और खाद्य पदार्थों की बेहद कमी सामने आ रही है, जिससे यहाँ के निवासियों का जीवन कष्टमय हो गया है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन से यहाँ के उच्च वार्षिक तापमान के माध्यम से परम्परागत कृषि व्यवस्था पर दबाव पड़ रहा है, यहाँ तक कि बर्फ और ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, वर्षा की व्यवस्था अनियमित हो गई है तथा इसमें कभी बेहद वृद्धि होती है और कभी लगातार वर्षा होती है, इससे यहाँ की सभी जलवायु व्यवस्था बिगड़ गई है। इसके साथ अत्यधिक मौसम की घटना दुर्घटनों की गंभीरता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है (आई.सी.आई.एम.- ओ. डी, ICIMOD, 2007) हाल के वर्षों के दौरान भारतीय मानसून पूरे क्षेत्र में अत्यधिक " परिवर्तित हुआ है तथा इन सबके परिणामस्वरूप पूरे वर्ष में होने वाली वर्षा में बाधा आई है, उसमें रूकावट देखी गई है। इसके साथ ही वर्षा के दिनों की संख्या भी कम हुई है, जिससे जल की उपलब्धता भी कम हुई है और जल स्रोतों तथा जल संसाधनों को हानि हुई है, उनमें कमी आई है (बन्धोपाध्याय एवं अन्य Bandyopadhyay et al. 2002)। इन सब परिवर्तनों से पेयजल की उपलब्धता में कमी आई है और खाद्य उत्पादन में गिरावट स्पष्ट रूप से देखी गई है जो वास्तव में बहुत ही भयानक है जिसका सामना करना आसान ही नहीं बहुत कठिन भी है। इसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादों में कमी आना तथा स्थानीय जनसंख्या की संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है, खाद्य पदार्थों से पूरा क्षेत्र असुरक्षित हो गया है अर्थात खाद्य पदार्थ बहुत कम हो गए हैं और स्वास्थ्य को बचाने या जोख उठाने पड़ रहे हैं (आई.पी.सी.सी., IPCC, 2014 ) । इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हो गया है, कि संकटपूर्ण संरचना में जो उत्पन्न हो गया है उन विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तनों का सूक्ष्म क्षेत्रीय विश्लेषण किया जाना आवश्यक हैं, और इसका प्रमुख क्षेत्रों में पड़ने वाले प्रभाव का आंकलन करना आवश्यक है, जैसे कि कृषि, खाद्य, समुदाय का स्वास्थ्य और सशक्त परम्परागत अनुकूलन रचनातंत्र तथा निदान और उपायपूर्ण तरीकों के प्रभाव अनुकूलन ढाँचा को विकसित करना नितांत आवश्यक हैं।
जलवायु परिवर्तन की ओर अनुकूलन
- अनुकूलन (Adaptability) की परिभाषा आई.पी.सी.सी. (2014) द्वारा इस प्रकार दी गई है, कि "मानव व्यवस्था में वास्तविक या संभावित जलवायु और इसके प्रभावों के बीच समायोजन करने की प्रक्रिया है हानि को संयत करना या लाभकारी अवसरों का शोषण या दोहन करने की दिशा में कार्य करना है।" प्राकृतिक प्रणाली में वास्तवकि जलवायु और इसके प्रभावों के बीच समायोजन की प्रक्रिया है संभावित जलवायु के समायोजन को सुगम बनाने के लिए मानव हस्तक्षेप करना है। मानव व्यवस्था में अनुकूलन संयत हानि सुविधाजनक अवसरों के शोषण को रोकने के मानव हस्तक्षेप करना है। प्राकृतिक प्रणाली मानव हस्तक्षेप संभावित जलवायु का सुगम समायोजन और इसके प्रभावों को दर्शाना है। यू.एन.एफ.सी.सी.सी. UNFCCC के अनुसार अनुकूलन की परिभाषा इस प्रकार दी गई है, कि विघटन और हानि जैसे कार्य को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के परिणामों से देशों और समुदायों को बचाने के लिए प्रतिरोध के व्यावहारिक कदम उठाना अथवा उनको सुरक्षित करना है।
अनुकूलन प्रक्रिया के चरण
आधारिक या निम्न स्तर से अनुकूलन की दिशा का निम्न विवरण है और वे चित्र बने रहते हैं जब अनुकूलन का नियोजन राष्ट्रीय, राज्य, जिला, खण्ड या पंचायत स्तर पर हो
- अनुकूलन की आवश्यकता की पहचान करना (Identifying Adaptation Needs)
- अनुकूलन के विकल्पों का मूल्यांकन (Appraising Adaptation Option)
- अनुकूलन के विकल्पों की पहचान करना (Identifying Adaptation Options)
- नियोजन और कार्यान्वयन करना (Planning and Implementing)
- पर्यवेक्षण और मूल्यांकन करना (Monitoring and Evaluation)
भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन की ओर अनुकूलन
- भारतीय हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन एक उच्च संवेदनशील स्थिति है, इसलिए यहाँ पर समुदायों और प्राकृतिक प्रणाली या व्यवस्था को विस्तृत रूप से तैयार करने के माध्यम से वर्तमान और भविष्य में आने वाले जोखिम को रोकने के लिए तुरंत कार्रवाई करने की अत्यंत आवश्यकता है। वर्तमान वैज्ञानिक साक्ष्य हमें सुझाव देते हैं कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप, हिमालय की पारिस्थितिकी में अस्थिरता पैदा हो गई है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों के संयोजन और उसके वितरण में भारी रूकावट सामने आई है, जिसमें कि जल, वन और कृषि जैव विविधता सम्मिलित है। अतः भारतीय हिमालय क्षेत्र में वर्तमान और भविष्य में आने वाले जलवायु परिवर्तन के जोखिमों को रोकने के लिए अनुकूलन व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है तथा इसके लिए विस्तृत व्यापक तैयारी करने की आवश्यकता है (भारत सरकार, GOI, 2010 ) । आई.पी.सी.सी. (2014) के अनुसार अनुकूलन की आवश्यकता उस समय पैदा हुई जब जलवायु परिवर्तन के पूर्व संभावित जोखिम या अनुभव प्राप्त प्रभावों को रोकने के लिए आवश्यकता अनुभव की गई, जैसे कि पारिस्थितिकी प्रणाली और उनकी सेवाओं सहित मानव जनसंख्या तथा सम्पत्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता पड़ी ।
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