सम्प्रभुता की वर्तमान स्थिति | सम्प्रभुता और पर्यावरणीय समस्याएँ |सम्प्रभुता और नव उपनिवेशवाद | Current state of sovereignty
सम्प्रभुता की वर्तमान स्थिति
सम्प्रभुता की वर्तमान स्थिति
1 सम्प्रभुता और भूमण्डलीकरण
- वर्तमान युग अन्तराष्ट्रीयता का युग कहा जा सकता हैं। विज्ञान प्रौद्योगिकी, संचार, यातायात के साधनो के विकास ने सम्पूर्ण संसार को एक 'विश्व गाव' के स्थिति में ला दिया हैं। जिससे सम्पूर्ण मानवता मानवीय प्रष्नों पर एक-दूसरे के करीब आयी हैं। आज विश्व के किसी कोने में उत्पन्न समस्या न केवल किसी एक राज्य को प्रभावित करती हैं बल्कि सम्पूर्ण विश्व समुदाय को प्रभावित कर देती हैं। विश्व में आपसी संयोजन जो वास्तविकता और आवष्यकता दोनों है। ने राज्य की सम्प्रभुता के समक्ष कई चुनौतिया पेश की हैं। आज राज्य के सम्प्रभुता का अर्थ वाह्य क्षेत्र में उसकी स्वेच्छा चारिता या जो चाहे वह करने की इच्छा से नही लगाया जा सकता हैं। वर्तमान भौतिकता के युग में राज्यो के मध्य परस्पर निर्भरता बढी हैं। जिससे राज्यों के कार्या पर भी इसका पडा हैं। दुनिया का शक्तिषाली से शक्तिशाली राज्य भी विश्व जनमत के नाराजगी की कीमत पर कोई कार्य करने का फैसला नही कर सकता ।
विश्व के देशों में व्यापार भी अप्रत्याशित रूप में बढ़ा हैं। जिसको नियन्त्रित व निर्देषित करने के लिये जनवरी 1995 में की स्थापना की गयी। जिसका मूल सिध्दान्त हैं कि ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश का स्थपना की जाय जिससे वस्तुओं, सेवाओं तथा विचारों का निर्वाध रूप से आना-जाना हो सके। इस संगठन के मार्गदर्षन में विश्व के देशों के मध्य कई सन्धियां हुई हैं। जिससे भूमण्डलीकरण स क्त हुआ हैं। इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि भूमण्डलीकरण हमारे समय की सच्चाई बन चुका हैं। ऐसी सच्चाई जिससे राज्य और उसकी सम्प्रभुता को लेकर बहुत से प्रश्न उभर कर सामने आये। हैं इस सन्दर्भ में निम्न पहलुओं की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक हैं -
(1) विश्व स्तरीय गठबन्धनो में वृद्धि से राष्ट्रीय सरकार के राजनीतिक प्रभावों और शक्तियों में अभूतपूर्व कमी आयी है क्योकि खुली अर्थव्यवस्था के कारण वस्तुओं, सेवाओं, विचारों और संस्कृतियों का प्रवाह बढ़ा है। परिमाण स्वरुप इनको नियन्त्रित करने की राज्य की भूमिका सिमट कर रह गयी है।
(2) उच्च स्तरीय गठबन्धनो के कारण राज्य के परम्परागत कार्य क्षेत्र जौसे रक्षा, संचार आदि भी अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के अभाव में पूरे नही हो सकते क्योकिं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तकनीकि के तीव्र विकाश ने सुरक्षा की अवधारणा को लगभग समाप्त सा कर दिया। वर्तमान युग में दुनिया का शक्तिषाली से शक्तिशाली राज्य भी विश्व समुदाय के सहयोग के बिना अपने आष्वस्त नहीं है। सुरक्षा के प्रति आश्वश्त नहीं है .
(3) भूमण्डलीकरण के वर्तमान युग में जिसके मूल मे सूचना प्रौद्योगिकी एवं सशक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था है ने राष्ट्रों के लिए लगभग यह असम्भव सा बना दिया है कि वे भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था से अलग रहकर अपनी अर्थव्यवस्था का कुश ल तरीके से संचालन कर सके। विकासषील या अल्पविकसित देशों के सम्प्रभुता का उपयोग सदा से एक समस्या रहा है क्योंकि वे अपने विकास एवं सुरक्षा संम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विकसित देशों पर निर्भर होते है। अतः उनकी इच्छा या हित के अनुरूप कार्य करना लगभग इनकी बाध्यता सी है।
(4) भूमण्डलीकरण न केवल सम्प्रभुता के स्थानीय (क्षेत्रीय) तत्वो को दुष्प्रभावित किया है बल्कि उसने तो सम्प्रभुता के पहचान और संशाधन पर भी कुठाराघात किया है। जिससे एक ऐसी स्थित उत्पन्न हो गयी है जिसमें किसी राज्य के द्वारा लिया गया निर्णय उसकी इच्छा की अभिव्यक्ति प्रतीत नही होते। राष्ट्रीय सीमाओ का खुलापन राज्य मे निहित असीमित संशोधन रूपी वर्फ को पिघला दिया है। जिससे सम्प्रभुता के पहचान के तत्व को भारी क्षति पहुंची है।
अतः भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ मे यह कहना उचित होगा कि वर्तमान समय में सम्प्रभुता समायोजन दौर से गुजर रही है। जिसमे इसके आन्तरिक स्वरूप तथा वाह्रय स्वरूप में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। यह सम्प्रभुता के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आवष्यक भी है। क्योंकि वर्तमान में किसी राष्ट्र के आन्तरिक प्रष्नो पर भी मानव सुरक्षा हेतु अन्य देषो का सहयोग आवष्यक हो गया है वहीं वाह्य क्षेत्र में राष्ट्रो के सहयोग बनाये रखने के लिए भी राष्ट्रों के शक्ति को सीमित करना आवष्यक हो गया है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सम्प्रभु राज्य अब आन्तरिक तथा वाह्य दोनों क्षेत्रों में नवीन रूप धारण कर रहे है। इसके लिए जहां वह अपनी कुछ पारम्परिक क्षमताओं में कमी कर रहे है। वहीं वह इनकी कीमत पर नयी क्षमताओं (सामर्थ्य) को प्राप्त भी कर रहे हैं। इसके लिए वह अपने कुछ कार्य अन्तर्राष्ट्रीय और पारराष्ट्रीय संस्थाओ को हस्तान्तरित कर रहे है। वहीं इन संस्थाओ के सदस्य के रूप में वे इनके कार्यों व दायित्वों का निरीक्षण करने के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में सहभागी हो रहे है।
सम्प्रभुता और पर्यावरणीय समस्याएँ
वर्तमान में पर्यावरणीय समस्याएं समूची मानवता व विश्व समुदाय के लिए चिन्ता का सबस बनती जा रही हैं। क्योकि पर्यावरणीय घटनाएं राज्यो की सीमाएं नही पहचानती हैं। इसलिए कभी-कभी ऐसा देखने को मिलता है कि किसी राज्य के पर्यावरण प्रतिकुल कृत्य उससे मीलों दूर बसे राज्यो के Sarus को दूषित कर देता है। ऐसे में यह आवष्यक हो गया है कि इन संकटो का समाधान सभी राष्ट्रों द्वारा समूह भाव से खोजा जाय। इस स्थिति के गंभीरता के एहसास का ही परिणाम है कि 1992 में 'रियो' में पर्यावरण सुरक्षा को दृष्टिगत रखकर एक सम्मेलन आहुत किया गया । तत्पष्चात् 1999 में सियेटल तथा 2001 में जनेवा में भी सम्मेलन किया गया । जो राज्यो की संरचना को चुनौती पेश किया। 1992 में रियो सम्मेलन की कुछ प्रमुख घोषणाएं निम्नलिखित है:
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ घोश णा-पत्र व अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के सिद्धान्तों के अनुसार राज्य के लिए अपने संसाधनो का प्रयोग करने का सर्वोच्च अधिकार रखता है फिर भी यह उसका दायित्व है कि पर्यावरण के प्रति होने वाले किसी भी नुकसान को रोके ।
(2) अल्पविकसित देशों की पर्यावरणीय स्थिति अत्यन्त नाजुक है। इसलिए इसकी तरफ अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए जिससे इनकी जरूरतो को भी प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जा सके।
(3) पारिस्थितिकी तन्त्र को संरक्षित एवं पुर्नस्थापित करने हेतु राज्य भूमण्डलीय भागीदारी की भावना रखते हुए आपसी सहयोग करेगें। इस सम्बन्ध में विकसित देशों की भूमिका अधिक सहयोगात्मक होनी चाहिए क्योकि उनके कृत्य पर्यावरणीय संकट के लिए अधिक जिम्मेदार हैं।
(4) सभी राज्य अपने पर्यावरणीय विवादों का हल संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र के अनुसार शांतिपूर्ण तरीके से ही करेगें।
इस सम्मेलन द्वारा इक्कीसवी सदी के लिए विकास की कार्यसूची तैयार करना विश्व समुदाय की ओर से किये जा रहें सर्वाधिक गम्भीर व समेकित प्रयासों में से एक था। कुछ वातो के लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण एवं साहसपूर्ण निर्णय था क्योंकि यह राष्ट्रों उच्च रुप से विश मांगो 'समुदाय के बीच मतैक्य के बिना काम चलाने में सफल रहा था। इस प्रकार पर्यावरणीय समस्याओं के निराकरण के दिषा में किये जाने वाले अन्तराष्ट्रीय प्रयोसों ने भी राष्ट्रीय सम्प्रभुता को सीमित किया है। पर्यावरण सुरक्षा के दृष्टि से राज्यो के बीच सन्धि या समझौते भी किये जा रहे हैं।
सम्प्रभुता और नव उपनिवेशवाद
आधुनिक भौतिकतावादी युग में विश्व का कोई भी राष्ट्र आत्म निर्भर होने का दावा नहीं कर सकते है। विकसित तथा अल्प विकसित राज्यो की अर्थव्यवस्थाओ में बड़े अन्तर के बावजूद वैश्विक पारस्परिक निर्भरता में बृद्धि हुई है। विकसित देश जहां कच्चे मालों की आपूर्ति तथा अपने उत्पाद की विक्री के लिए विकासषील देशों पर निर्भर है वहीं विकासशील देश आर्थिक और प्रौद्योगिकी सहायता के लिए विकसित देशों पर निर्भर हैं। प्रौद्योगिकी, राजनीतिक, शक्ति एवं सैनिक सामर्थ्य के बल पर विकसित देशों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को अपने हितो के अनुकुल कर लिया है। जिससे विकासषील देशों को गम्भीर आर्थिक क्षति हुई है।
भूमण्डलीय पारस्परिक निर्भरता या अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सभी सदस्य देशों के समान सम्प्रभु स्तर के बावजूद विकासषील देश आज भी नव उपनिवेश वाद (आर्थिक गुलामी) से पीड़ित हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से वे स्वतन्त्र राजनीतिक इकाईयां है किन्तु आर्थिक व व्यवहारिक दृष्टि से भी विकासशील देशों के चंगुल से अपने आपको नही निकाल पाये हैं। इस प्रकार साम्राज्यवाद के समाप्ति के बाद भी विकसित देश विकासशील देशों पर अपना नव औपनिवेषिक आर्थिक राजनीतिक नियन्त्रण बनाये हुए हैं। विकसित देश बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से विकासषील देशों की अर्थव्यवस्थाओं और इस प्रकार उनकी नीतियों पर अंकुश रखते हैं। इन निगमों का स्वामित्व प्राय विकसित देशों के पूजीपतियों के हाथो में होता हैं। ये पूंजीपति सरकार के अतिरिक्त व्यवस्था के प में विकासषील देशों के बाजारों अर्थव्यवस्थाओं और नीतियों का संचालन करते है। इन निगमो के पास यह सामर्थ्य है कि वे विकासशील देशों के आर्थिक विकास और प्रगति के गति को धीमी कर दें तथा अपने हित के अनुसार उनके औद्योगिक विकास की दिषा को मोड़ दें। जो निष्चित रुप से नवोदित राष्ट्रों के सम्प्रभुता में बाधक हैं।
सम्प्रभुता और अन्तर्राष्ट्रीय संगठन
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का निर्माण तीब्र गति से प्रारम्भ हुआ । श्व तथा सहयोग को बढ़ाने में इन संगठनों की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। अन्तर्राष्ट्रीय संगठनो के प्रभाव से सम्पूर्ण विश्व एक व्यवस्था के रुप में संगठित होता हुआ प्रतीत हो रहा हैं। ऐसे में राज्यो को वैसी सम्प्रभुता प्राप्त नहीं हो सकती है। जिसकी कल्पना आस्टिन ने अपने सिद्धान्त में की थी।
अन्तर्राष्ट्रीय संगठनो की सम्प्रभुता की मर्यादाओ का उल्लेख निम्न रूपों में किया जा हैं।
(1) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सहयोग बढ़ाने के उद्देष्य से की गई थी । जिससे अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के देशों का सामाजिक, सांस्कृति तथा शैक्षिक विकास हो सके। यह तभी सम्भव है जबकि राष्ट्रों के मध्य टकराव कम हो इसके लिए सदस्य देशों द्वारा स.रा. चार्टर का पालन किया जाना अनिवार्य है । जो राष्ट्रों के सम्प्रभुता को प्रभावित करेगा। ।
(2) कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संगठन क्षेत्र विशेष में ही कार्य करते हैं जैसे अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ, सार्वभौमिक डाक संघ, विश्व मौसम विज्ञान संगठन । ये संगठन विभिन्न राज्यों द्वारा इन क्षेत्रों के लिए निर्मित की जाने वाली नीतियों को प्रभावित करते हैअर्थात उन्हे मनमाने तरीके से कार्य करने के लिए अनुमति नही देते हैं।
(3) विश्व व्यपार संगठन, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश आदि संगठनो के कृत्यों पर भी विकसित देशों का प्रभुत्व स्थापित हैं। इनके माध्यम से विकसित देश विकासशील देशों को अपने हितोनुरुप नीतियां निर्मित करने के लिए बाध्य करते हैं। जिसे सम्प्रभुता के अनुकुल नहीं कहा जा सकता है।
विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठनो के क्रियाकलाप राष्ट्रों के सम्प्रभुता को सीमित करते हैं। क्योंकि इनकी नीतियो के विरुद्ध कोई भी राज्य नीतिया निर्मित नहीं कर सकता है अर्थात इनकी नीतिया व सिद्धान्त स्वतन्त्र राज्यों के लिए बाध्यकारी हैं।
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