ऑस्टिन का सम्प्रभुता सिद्धान्त विशेषताएँ : सम्प्रभुता के प्रेरक तत्व धारणा |Features of Austin's Sovereignty Theory
ऑस्टिन का सम्प्रभुता सिद्धान्त विशेषताएँ : सम्प्रभुता के प्रेरक तत्व धारणा
ऑस्टिन के सम्प्रभुता के प्रेरक तत्व
ऑस्टिन हाब्स के विचारों
से प्रभावित तथा वेन्थम के विचारों का समर्थक था । वस्तुतः उसने इन्ही दो विचारको
के विचारों का विकास तथा पुष्टि की है। उसके सुलझे हुए विचार ही उसकी नवीनता थे।
इस सम्बन्ध मे गार्नर ने लिखा है कि “प्रभुत्व की जो धारणा विष्लेश णवादी विधान
विषेश ज्ञो और सम्भवतः उनमें से सबसे प्राचीन ऑस्टिन की है उसका गत अर्द्ध शताब्दी
के कानूनी विचारों पर प्रभाव पड़ा है ऑस्टिन के विचारो को हाब्स तथा बेन्थम से
प्रेरणा मिली है।” बेन्थम ने कहा था कि एक राजनीतिक समाज या राज्य वही होगा जहां
एक व्यक्ति या बहुसंख्यक लोग एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह की आज्ञा पालन करने के
अभ्यस्थ हों क्योंकि उसका आदेश ही कानून होगा। इस प्रकार वह आदेश देने वाला
सर्वोच्च सत्ताधारी होगा और सम्प्रभुता उसी में निहित होगी। वह शक्ति के आधार पर
अपनी आज्ञाओं का पालन करवायेगा। बेंथम का यही सिद्धान्त ऑस्टिन के सिद्धान्त का
आधार है। लेकिन ऑस्टिन ने बेंथम के सिद्धान्त को पूर्णता प्रदान की है। उसने
सम्प्रभुता के नाकारात्मक पक्ष के साथ-साथ इसके सकारात्मक पक्ष की विस्तृत चर्चा
की है। सकारात्मक कानून को स्पष्ट करते हुये वह कहता है कि यह ऐसा कानून है जिसमें
किसी प्रभुसत्ता सम्पन्न व्यक्ति या व्यक्तियो के समुदाय ने स्वाधीन राजनीतिक समाज
के किसी सदस्य या सदस्यो के लिए निर्धारित किया हो शर्त यह है कि कानून बनाने वाला
व्यक्ति या व्यक्तियो का समुदाय उस समाज में सर्वसत्ता सम्पन्न या सर्वोच्च हो।
आगे वह कहता है कि राज्य जो सकारात्मक कानून लागू करता है यदि वे ईष्वर के कानून
या सामाजिक कानूनो के विरूद्ध हो तो ऐसी स्थिति मे राज्य निर्मित कानून ही
सर्वोपरि होगा। इस तरह उसने विधि शास्त्र तथा न्यायषास्त्र के क्षेत्र में
नैसर्गिक अधिकारों और कानून के झाड़-झंखाड़ को साफ कर दिया जो लम्बे अर्से से उसे
घेरे हुये था।
ऑस्टिन की सम्प्रभुता सम्बन्धी धारणा
- सम्प्रभुता के एकलवादी, अद्वैतवादी, औपचारिक तथा कानूनी धारणा की सर्वोत्तम व्याख्या एक अंग्रेज न्यायविद् जॉन ऑस्टिन ( 1790-1859) ने 1832 में अपनी पुस्तक 'लेक्चर्स ऑन जुरिसप्रुडेंस' में की। उनकी व्याख्या में वैज्ञानिक स्पष्टता और पूर्णता है जो प्रभाव पूर्ण है। इस धारणा के विकास के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य था परम्पराओं और कानूनों में अन्तर स्पष्ट करते हुए परम्पराओं पर कानून की श्रेष्ठता स्थापित करना। इस दृष्टि से उन्होंने विधियों के दो रूप माना मानवीय विधि तथा ईष्वरीय विधि इनमें विरोध की स्थिति में मानवीय विधि को सर्वोच्चता प्राप्त होनी चाहिए। इस तरह वह मध्ययुग मे फैले हुए धर्म के प्रभाव को पूर्णतः नकार देता है। कानून के सम्बन्ध में उसका कहना था कि प्रत्येक सकारात्मक कानून अथवा केवल निष्चित रूप से तथाकथित प्रत्येक कानून को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न व्यक्ति अथवा संगठन उस स्वतंत्र राजनीतिक समाज के एक सदस्य अथवा सदस्यों पर लागू करता है। जिसमें वह व्यक्ति अथवा संगठन सर्वोपरि अथवा सम्प्रभु होता है। कानूनी सम्बन्धी उसका यह विचार ही उसके सम्प्रभुता सिद्धान्त का आधार है। सम्प्रभुता को परिभाषित करते हुए उन्होने लिखा है कि “एक राजनीतिक समाज में सम्प्रभुता उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह में निहित होती है जिसकी आज्ञाओ का पालन समाज का बहुसंख्यक भाग स्वभावतः करता हो और जो स्वयं किसी के आदेश पालन का अभ्यस्थ न हो। ऐसा व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह सम्प्रभु कहलाता है और वह समाज उस सम्प्रभु सहित एक स्वतंत्र राजनीतिक समाज अर्थात राज्य कहलाता है। आगे वह लिखते हैं कि उस निष्चित सर्वोच्च व्यक्ति पर समाज के दूसरे लोग निर्भर होते हैं । उस निश्चित सर्वोच्च व्यक्ति के प्रति दूसरे व्यक्तियों की स्थिति अधीनता तथा निर्भरता वाली होती है।
ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की विशेषताएँ
ऑस्टिन के सम्प्रभुता
सम्बन्धी विचारो का विष्लेशण करने पर उसमे कुछ विषेशता परिलक्षित होती है। जिनमें
से कुछ प्रमुख निम्नलिखित है-
1 सम्प्रभुता राज्य का एक आवश्यक गुण है
सम्प्रभुता स्वतंत्र
राजनीतिक समाज अर्थात राज्य का अनिवार्य गुण है। यह राज्य के चार मूल घटकों मे से
एक है। इसके बिना राज्य के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। सम्प्रभुता के
अन्त का अर्थ राज्य का अन्त होगा। यदि राज्य एक निकाय है तो सम्प्रभुता उसकी आत्मा
है। ऑस्टिन के अनुसार प्रत्येक राजनैतिक समाज मे सम्प्रभुता का होना उसी प्रकार से
आवष्यक है जैसे कि पदार्थ किसी पिण्ड में आकर्षण के केन्द्र का होना। इस प्रकार
प्रत्येक स्वतंत्र रातनीतिक समाज अर्थात राज्य में आवष्यक रूप से कोई व्यक्ति या
व्यक्ति समूह सम्प्रभु होता है।
2 सम्प्रभुता निश्चित व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह में निहित होती है
सम्प्रभुता राज्य के किसी निष्चित व्यक्ति या व्यक्ति समूह में निहित होती है। जिन्हें पहचाना जा सकता है और जो अपने विवेक के अनुसार इसका प्रयोग कर सकता है। सम्प्रभुता का प्रयोग किसी ऐसे स्थान द्वारा नही हो सकता है जिसका रूप निष्चित अथवा संगठित न हो। इसलिए ऑस्टिन ने कहा है कि सम्प्रभुता का निवास न तो समान्य इच्छा में है, न जनमत में, न निर्वाचक समूह में क्योंकि इनमे से कोई भी निश्चयात्मक समूह नहीं है इस प्रकार ऑस्टिन ने सामान्य इच्छा, जनमत तथा नैतिक नियमों की उपेक्षा का प्रयास किया है। गार्नर ने ऑस्टिन के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यह सर्वोच्च शक्ति न तो सामान्य इच्छा हो सकती है जैसा कि रूसो ने बताया है न ही यह मनुष्यों का समूह हो सकती है न चुनाव मण्डल हो सकता है न तो लोकमत और नैतिक भावना और न ही साधारण सूझ-बूझ और ईष्वरीय इच्छा जैसे अनिष्चित वस्तुओं में हो सकती है। अपितु यह एक ऐसा निश्चित व्यक्ति या शक्ति होनी चाहिए जो स्वयं किसी भी बैद्यानिक प्रतिबन्ध के अधीन न हो ।
3 सम्प्रभुता निरंकुश व असीमित है
सम्प्रभुता की निरंकुशता
व असीमितता का आशय उसकी सर्वोच्चता से है। अर्थात वह आन्तरिक तथा वाह्य दोनों
क्षेत्रों में निर्वाध, निरंकुश तथा असीमित होती है। राज्य के सभी
प्राधिकार उसी से प्राप्त होते हैं। यह राज्य की सीमा के अन्तर्गत समस्त
व्यक्तियों, संस्थाओं तथा व्यक्ति समूहों से सर्वोच्च होती है। सभी लोग
सम्प्रभु के अधीन होते है। इस लिए कोई भी उसकी आज्ञा मानने से मना नहीं कर सकता
हैं और यदि कोई ऐसा करने का दुष्साहस करता है तो सम्प्रभु उसे अपनी इच्छानुसार
दण्ड दे सकता है। वाह्य क्षेत्र में कोई भी दूसरा राज्य बिना उसकी मर्जी के उसके
ऊपर अपनी इच्छा, आज्ञा, कानून या बन्धन नहीं थोप सकता है। इस प्रकार
समस्त आन्तरिक तथा वाहय शक्तियों का सृजनकर्ता सम्प्रभुता ही है। वह स्वयं कानून
का स्रोत है। इसलिए वह उससे परे है। वह औरो को आदेश देता है किन्तु स्वयं किसी से
आदेश ग्रहण नही करता है।
4 आज्ञापालन आदत का विषय है
सम्प्रभु के आज्ञाओं का
पालन समाज का अधिकाश भाग स्वभावतः करता है। दूसरे शब्दों में सम्प्रभु के प्रति
आज्ञाकारिता आदत का विशय है। इसके माध्यम से समाज इस बात का अभ्यस्थ बनता है कि वह
सत्ताधारी द्वारा दिये गये आदेश को उसी रूप में स्वीकार कर ले जिस रूप में वह उसे
दिया गया है। यदि समाज के कुछ लोग सम्प्रभु की आज्ञा का उल्लघंन करें या सम्प्रभु
के विरूद्ध क्रान्ति कर दे तो उससे सम्प्रभुता की सर्वोच्चता पर कोई आच नही आती
है। बल्कि वह यथावत सर्वश्रेष्ठ बनी रहती है।
5 सम्प्रभु कानून से श्रेष्ठ व निरपेक्ष है
सम्प्रभुता ही कानून का
आधार भी होती है। सम्प्रभु कानून का निर्माता व स्रोत होता है। दूसरे शब्दों में
कहा जा सकता है कि सम्प्रभु का आदेश ही कानून है । जो आदेश सम्प्रभु द्वारा नहीं
दिया गया है या जिसकी वह इजाजत नहीं देता है। वह कानून नहीं हो सकता है। कोई भी
परम्परा, रीति-रिवाज उस समय तक कानून नहीं बन सकता जब तक सम्प्रभु
उसे मान्यता न दे दे अर्थात प्रभुसत्ताधारी के अभाव में कानून निर्माण स्वयं सम्भव
नहीं है सम्प्रभुत्ता सभी कानूनों से भी उच्च होती है क्योंकि स्वयं द्वारा
निर्मित कानूनों को मानना उसके लिए बाध्यकारी नहीं हो सकता है। सम्प्रभुता किसी भी
दैवी, प्राकृतिक या संवैधानिक कानून से प्रतिबन्धित नहीं है ।
6 सम्प्रभु किसी दूसरे के आज्ञापालन का अभ्यस्थ नहीं होता है
सम्प्रभु स्वयं किसी
उच्चतर अधिकारी के आज्ञा पालन का अभ्यस्थ नहीं होता है अर्थात ऑस्टिन अपने प्रभु
को किसी उच्चवर अधिकारी की आज्ञा न मानने की बात कहता है क्योंकि यदि वह ऐसा करता
है तो वह स्वंय सम्प्रभु नहीं रह सकता है। इस लिए आवश्यक है कि सम्प्रभु स्वयं
किसी अन्य के आज्ञापालन का अभ्यासी नहीं होना चाहिए
7 सम्प्रभुता अविभाज्य है
सम्प्रभुता अनन्य अखण्ड व
अविभाज्य है। आस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त का एक भाव यह है कि राज्य में
निश्चित तथा सर्वोच्च शक्ति केवल एक होती है। जिसका विभाजन नहीं हो सकता है
क्योंकि वह एक इकाई है जिसको खण्डित नहीं किया जा सकता है। उसके विभाजन का अर्थ
उसका विनाश होगा। चूंकि सम्प्रभुता का निवास किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह में
होती है। अतः उसका विभाजन कई व्यक्तियों या समूहो में नहीं किया जा सकता है।
इस प्रकार ऑस्टिन के अनुसार सम्प्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति होती है जो निरंकुश, अप्रतिबन्धित, अदेय, एकल, अविभाज्य एवं स्थायी होती है ।
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