गांधीवाद के अनुसार राज्य के स्वरूप और कार्य | गांधीवादी राज्य के कार्यों की आलोचना उपयोगिता |Forms and functions of the state according to Gandhism
गांधीवाद के अनुसार राज्य के स्वरूप और कार्य
गांधीवाद के अनुसार राज्य के स्वरूप और कार्य
1. गांधीजी एवं राज्य
2 राज्य का स्वरूप
3 राज्य का संगठन
4 राज्य के कार्य
.5 गांधीवादी राज्य के कार्यों की आलोचना
6 गांधीवाद की
उपयोगिता
गांधीवाद के अनुसार राज्य के स्वरूप और कार्य
- राज्य के गांधीवादी कार्यों का सीधा सम्बन्ध महात्मा गांधी के राज्य संबंधी विचारों से लिया जा सकता है। परन्तु राज्य के कार्यों के संबंध में कोई विचार से पूर्व हमें गांधीवाद से संबंधित सामान्य बातों पर ध्यान देना आवश्यक होगा।
- महात्मा गांधी तत्वशास्त्र तथा राजनीति दर्शन के क्षेत्रों में क्रमबद्ध ढंग से चिंतन करने वाले व्यक्ति नहीं थे। उनके दर्शन में ऐसा कुछ नवीन विचार प्रतीत नहीं होता है। महात्मा गांधी ने अपने विचारों में किसी प्रकार की नवीनता से इंकार किया है। वह एक मात्र संदेशवाहक थे। जिनके ऊपर एक ओर भारतीय हिन्दू धर्म ग्रन्थों- रामायन, गीता का इत्यादि का प्रभाव था, दूसरी ओर अन्य धर्मों इस्लाम, ईसाई, बौद्ध धर्म का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। कुछ विदेशी विद्वानों-सुकरात टालस्टाय तथा रस्किन इत्यादि का भी प्रभाव उनके ऊपर पड़ा था। यही कारण है कि उनके सम्पूर्ण विचारों में जीवन का एक दर्शन मिलता है जो नैतिकता एवं धार्मिकता की भावना से जुड़ा हुआ है तथा लक्ष्य राजनीतिक सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का निदान करना है। यही कारण है कि लोग उनके विचार को उनके नाम से सम्बद्ध करके उन्हें गांधीवाद राजनीतिक दर्शन, गांधीवादी राजनीतिक विचारधारा अथवा गांधीवाद इत्यादि की संज्ञा देते हैं। प्रस्तुत इकाई में हमें गांधी जी के राज्य संबंधी विचारों को ध्यान में रखते हुए उसके कार्यों पर प्रकाश डालना है.
1 गांधीजी एवं राज्य
गांधी जी के राज्य संबंधी
विचारधारा मूलतः अराजकतावादी है। उनका मत था कि राज्य एवं राजकीय शक्ति की
आवश्यकता इसलिए पड़ती है क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है। यदि मानव जीवन इतना पूर्ण हो
जाय कि वह स्वसंचालित हो सके तो राज्य एवं राजकीय शक्ति की समाज को कोई आवश्यकता न
रहेगी। गांधी जी के विचारा में ऐसी स्थिति मानव की प्राकृतिक स्वतंत्रता की स्थिि
होगी क्योंकि उस दशा में एक ऐसी विवेकपूर्ण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी
जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के हितों में हित साधन में बाधा न डालते
हुए स्वयं अपना शासन बन जायेगा। परन्तु उस सम्बन्ध में गांधीजी को आदर्श के साथ साथ
यथार्थ का भी ज्ञान था। वे मानते थे कि वास्तविक मानव जीवन में पूर्ण अराजकता संभव
नहीं है। अतः व्यक्तिवादियों की भांति वे यह मानते थे कि एक आवश्यक बुराई के रूप
में राज्य का बने रहना आवश्यक है, पर उसका कार्यक्षेत्र न्यूनतम होना चाहिये
जिससे व्यक्ति को अधिकतम स्वतंत्रता प्राप्त हो सके तथा उसे पूर्ण स्वालम्बन पूर्ण
जीवन बिताने का अवसर प्राप्त हो सके।गांधीजी के अनुसार अपने वर्तमान रूप में
केद्रीकृत व संगठित हिंसा का प्रतीक है। जितनी अधि शक्ति उसके हाथ में रहती है, वह व्यक्ति के
स्वाभाविक विकास में उतना ही बाधक सिद्ध होता है। अतः यदि व्यक्ति को अपने
स्वाभाविक विकास का अवसर मिलना है तथा उसके लिए वे परिस्थितियां सुलभ होती है, जिनमें वह जीवन
के चरम उद्देश्य को प्राप्त कर सके तो यह आवश्यक है कि समाजिक व्यवस्था प्रधानतः
सत्य एवं अहिंसा पर आधारित हो तथा राजकीय शक्ति (जिसका आधार हिंसा है) का प्रयोग
न्यूनतम हो ।
2 गांधीजी के अनुसार राज्य का स्वरूपः
- गांधीजी ने अपने राज्य की कल्पना रामराज्य (आर्दश राज्य अथवा पृथ्वी पर ईश्वरीय राज्य) के रूप में की थी। उनका विश्वास था कि रामराज्य में जनता की नैतिक शक्ति का प्रभुत्व होगा तथा हिंसा व्यवस्था के रूप में राज्य का विनाश हो जायेगा । किन्तु वे राज्य की शक्ति को तत्काल समाप्त करने के पक्ष में नहीं थे। यद्यपि उनका अंतिम लक्ष्य नैतिक एवं दार्शनिक अराजकतावाद है परन्तु तात्कालिक लक्ष्य राज्य को अधिकाधिक पूर्णत्व की ओर ले जाना है। गांधीजी ने यंग इंडिया (9 मार्च 1992) में एक लेख लिखकर स्वराज्य तथा आदर्श समाज का भेद बतलाया। आदर्श समाज में रेलमार्ग, अस्पताल, मशीने, सेना, नौसेना, कानून तथा न्यायालय नहीं होगें । परन्तु उन्होंने बल देकर कहा कि स्वराज्य में ये पांचों प्रकार की चीजें रहेंगी। स्वराज्य में कानून तथा न्यायालयों का काम जनता की स्वतंत्रता की रक्षा करना होगा, वे नौकरशाही के हाथों में उत्पीड़न का साधन न रहेंगे।
- राज्य के स्वरूप की चर्चा करते हुए उन्हें पाश्चात्य लोकतंत्र की भर्त्सना की जिसके अन्तर्गत पूंजीवाद का असीम प्रसार हुआ जिसके फलस्वरूप दुर्बल, जातियों का डटकर शोषण किया गया। कुछ लोकतांत्रिक राज्यों ने तो फांसावादी तरीके भी अपना लिये। लोकतंत्र का जो व्यावहारिक रूप हमें देखने को मिलता है वह शुद्ध नाजीवाद अथवा फासीवाद है। अधिक से अधिक वह साम्राज्यवाद की पूजीवाद एवं फासीवाद प्रवृत्तियों को छिपाने का आवरण है।
3 गांधीजी के अनुसार राज्य का संगठन:
- महात्मा गांधी ने अपने राज्य का संगठन पिरामिड आकार में माना है जिसके अन्तर्गत देश, राज्य, क्षेत्रीय स्तर, गांव तथा मोहल्ले के शासन का संगठन हो सकेगा। आज के राज्य में शासन शक्ति का प्रयोग ऊपर से नीचे के ओर होता है परन्तु गांधीजी के मतानुसार ऐसे राज्य में शासन की गांव ही रहेगी। गांव के वयस्क स्त्री पुरूष मिलकर ग्राम पंचायत का चयन करेंगे तथा शासन करेंगे। इस पंचायत के द्वारा ही कानून का निर्माण किया जायेगा तथा करारोपण किया जायेगा। गांधीजी के अनुसार 'मूल इकाई यदि मेरा स्वप्न पूरा हो जाये तो सात लाख गांवों में प्रत्येक गांव समृद्ध प्रजातंत्र बन जायेगा। उस प्रजातंत्र का कोई व्यक्ति अनपढ़ अथवा बेकार न रहेगा बल्कि किसी न किसी काम में लगा होगा। ग्राम पंचायत के ऊपर अन्य पंचायतों का गठन किया जायेगा जो ग्राम पंचायतों के साथ समन्वय स्थापित करते हुए अपना दायित्व निभायेंगी। ऐसी पंचायतें क्षेत्रीय स्तर प्रांतीय स्तर तथा राष्ट्रीय स्तर पर गठित की जायेंगी। प्रत्येक संस्था अपने से ऊपर की संस्था का नियंत्रण करेगी तथा निचली संस्था के प्रति उत्तरदायी होगी। गांधी जी का सपना था कि इसी आधार पर विश्व राज्य का संगठन किया जा सकेगा।
गांधीजी के अनुसार राज्य के कार्य
- चूंकि गांधीजी के राज्य में शासन की मूल इकाई ग्राम पंचायत होगी, अतएव यह गांव पंचायत का ही दायित्व होगा कि वह गांव के बच्चों को शिक्षा का प्रबंध करे स्वास्थ्य का ध्यान रखे, समाज के कमजोर वर्गों तथा अस्पृश्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करे। ग्राम पंचायत का ही दायित्व होगा कि वह गांवों में कृषि का प्रबंध करे तथा कृषक वर्ग की समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करे। गांवों के युवा वर्ग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गांवों में कुटीर उद्योगों का प्रबंध करे। इसके साथ ही गांवों की सुरक्षा का दायित्व भी पंचायतों का ही होगा। गांवों में यातायात डाक तथा संचार के अन्य साधनों का भी प्रबंध करना ग्राम पंचायत का दायित्व होगा।
- महात्मा गांधी ने हरिजन सेवक में लिखा था “ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक जैसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर भी निर्भर नहीं करेगा और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए- जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य हो - वह परस्पर सहयोग से काम लेगा।" गांधीजी का विश्वास था कि गांवों की आत्मनिर्भरता राज्य को आत्म निर्भर एवं सशक्त बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगी। उस प्रकार राज्य का कार्यक्षेत्र स्वतः सीमित हो सकेगा तथा उसी के साथ राज्य की शक्तियों को भी सीमित किया जा सकेगा।
5 गांधीवादी राज्य के कार्यों की आलोचना:
महात्मा गांधी ने राज्य
के संगठन एवं कार्यों का वर्णन किया है उसको भारतीय संदर्भ में काफी प्रासंगिक एवं
परिवेशयुक्त माना जा सकता है। भारत गांवों का देश है जो मुख्यतः कृषि पर आध
अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध है। परन्तु इसके बावजूद गांधी दर्शन में कुछ आधारभूत
कमियां है जिस कारण उसकी आलोचना की जाती है।
1. अव्यवहारिक एवं मौलिकताविहीन दर्शन:-
आलोचक गांधीवाद को अव्यवहारिक एवं मौलिकता विहीन दर्शन का नाम देते हैं। उनके मतानुसार गांधीवादी विचारधारा स्वयं में एक मौलिक विचार नहीं है वरन वह विभिन्न लेखकों, दार्शनिकों एवं विद्वानों के विचारों का संकलन मात्र है। इसके अतिरिक्त यह दर्शन व्यवहारिक भी नहीं है तथा आदर्शवाद के झमेले में पड़कर यथार्थवाद से दूर हो गया है।
2. अराजकतावाद का समर्थन उचित नहीं:-
महात्मा गांधी ने राज्य को मानवीय आवश्यकता के प्रतिकूल बताया है तथा अराजकतावाद का समर्थन किया है। वह मानवीय विवेक एवं क्षमता में वृद्धि के आधार पर राज्य का विरोध करना चाहते हैं जो उचित नहीं प्रतीत होता । मानव जाति इतिहास इस बात का गवाह है कि सामाजिक व्यवस्था एवं अनुशासन को मात्र मानव बुद्धि सहारा देकर नहीं बनाये रखा जा सकता है। अतएव राज्य का अस्तित्व मानव जीवन के लिए परमावश्यक है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि राज्य एक नैतिक एवं स्वाभाविक संस्था है।
3. राज्य शक्ति पर आधारित संगठन नहीं:-
राज्य को शक्ति पर आधारित संगठन मात्र ही मानकर इसका विरोध अनुचित
है। राज्य की शक्ति का प्रयोग राज्य के नियमों एवं कानूनों को बाध्यकारी बनाने के
लिए आवश्यक है । आवश्यकता तो इस बात की है कि राज्य की शक्ति का समुचित
औचित्यपूर्ण ढंग से प्रयोग किया जा सके जिससे मानव स्वतंत्रता एवं अधिकारों में
बाधा न पड़े। राज्य की शक्ति के पीछे भी मानव की इच्छा है। ब्रिटिश विचारक टी० एच०
ग्रीन का मानना उचित ही है 'इच्छा न कि शक्ति राज्य का आधार है।'
4. ग्राम स्वराज्य की धारणा स्पष्ट नहीं:-
गांधीवाद के अन्तर्गत लोकतंत्र की सफलता तथा जनता के विकास के
लिए गांवों को स्वायत्तशासी बनाना आवश्यक है। यह विचार कितना भी उचित हो, व्यावहारिक तौर
पर यह कमजोर दिखाई देता है। गांवों के विकास का ढांचा किस प्रकार तैयार होगा तथा
उसके संसाधनों का निर्माण किस प्रकार होगा, इस संबंध में निश्चित
धारणा का निर्माण करना सरल नहीं है।
5. पिरामिड संरचना उपयोगी नहीं:-
- राज्य एवं शासन की व्यवस्था के लिए गांधीजी पिरामिड संरचना का विचार देते हैं परन्तु यह एक अव्यावहारिक कल्पना है। शासन के इतने स्तरों का निर्माण करना तथा उनमें समन्वय बनाना और कोई सरल कार्य नहीं है। आधुनिक राज्य के स्वरूप को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ऐसे राज्य में नौकरशाही का प्रभुत्व होगा तथा उसके परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा।
6.मानव नैतिकता पर अनुचित बल:-
- महात्मा गांधी मानव नैतिकता को ऊँचा स्थान देते हैं। यही कारण है कि ग्राम -
स्वराज पर बल देते हुए उन्होंने मानव सहयोग एवं नैतिकता को महत्वपूर्ण बताया है ।
परन्तु प्रश्न यह उठता है कि यह सहयोग किस रूप में होगा? तथा कहां तक वह
अमीरों एवं गरीबों के मध्य खाई को पाट सकेगा?
7. पूंजीपतियों का समर्थन :-
- महात्मा गांधी राज्य की व्यवस्था के नाम पर पूंजीपतियों एवं मजदूरों के मध्य सहयोग की बात करते हैं। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह पूंजीवादियों के समर्थक हैं। दूसरी ओर उनके ऊपर साम्यवादी होने का भी आक्षेप लगता है क्योंकि वह सम्पत्ति के समान विभाजन एवं वितरण की बात करते हैं। वास्तविकता यह है कि सम्पत्ति मानव स्वभाव में निहित है तथा उसका उन्मूलन करना असंभव है । उस प्रकार गांधीवाद पूंजीवाद एवं साम्यवाद की धारणा के मध्य फंसकर रह जाता है।
गांधीवाद की उपयोगिता
परन्तु इस सब आलोचनाओं के बावजूद गांधीवाद का महत्व कम नहीं हो जाता। गांधीवाद अपने आप में एक महान विचारधारा है जिसका लक्ष्य न केवल भारत वरन सम्पूर्ण विश्व है। गांधी जी व्यक्ति नहीं बल्कि उसके दुगुर्गों से घृणा करते थे इसलिए उनके ऊपर पूंजीवादी या साम्यवादी होने का आक्षेप लगाना अनुचित है। उन्होंने साध्य को प्राप्त करने के लिए पवित्र साधनों पर भी बल दिया था। यही कारण है कि उन्होंने राज्य के संगठन एवं कार्यों को मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं से जोड़ने का प्रयास किया था। गांधीवाद राज्य ही आज के युग में हमें निराशावाद, भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी, गरीबी जैसी बुराइयों से बचा सकता है तथा मानवीय सहयोग एवं नैतिकता पर आध यह राज्य ही विश्व राज्य शांति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। आज के परमाणु युग, आतंकवाद के खतरे, पर्यावरण के संकट तथा भूमण्डलीकरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए विश्व के सामने आज कोई विकल्प है तो वह है गांधीवाद, गांधीवाद आज मानवता का सबसे बड़ा संदेश बन चुका है।
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