गांधीजी की जीवनी का अंतिम भाग | Gandhi Biography Last Part in Hindi
गांधीजी की जीवनी का अंतिम भाग
गांधीजी की जीवनी का अंतिम भाग
- गांधीजी ने 'राजनीति' से संन्यास ले लिया था। लेकिन वास्तव में वे भारतीय जनजीवन की समस्याओं से गहराई से जुड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध ने उन्हें राजनीतिक अखाड़े में फिर लाकर खड़ा कर दिया। भारतीयों से पूछे बिना ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी युद्ध में झेंक दिया। बोअर युद्ध में गांधीजी की भूमिका से अंग्रेज परिचित थे। वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने युद्ध की घोषणा के अगले दिन गांधीजी को शिमला बुलाया। युद्ध के विनाश की दुखी मन से चर्चा करते हुए गांधीजी ने इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति जताई। वे बिना शर्त इंग्लैंड का समर्थन देने को तैयार थे। वे नहीं चाहते थे कि इंग्लैंड की मजबूरी का फायदा उठाया जाये, यह उनके सिद्धांत के खिलाफ था। दूसरी ओर कांग्रेस चाहती थी कि शर्त विशेष पर ही इंग्लैंड को समर्थन दिया जाये।
- 14 सितंबर 1939 को कांग्रेसी नेताओं ने घोषणापत्र जारी कर दिया, जिसमें हिटलर के हमले की निंदा की गई और कहा गया कि 'एक स्वतंत्र भारत' अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों का समर्थन करेगा। इस घोषणा पत्र में गांधीजी के दृष्टिकोण का समावेश नहीं था। कांग्रेस को 'नहीं' में उत्तर दे दिया गया, साथ ही कहा गया कि ब्रिटेन ऐसी भारतीय सरकार को सत्ता नहीं सौंप सकता, जिस पर भारतीय जनता के बड़े हिस्से को आपत्ति हो। संकेत गैर-कांग्रेसी और कांग्रेस विरोधी मुस्लिमों की ओर था, जिनकी कमान मोहम्मद अली जिन्ना के हाथ में थी।
- गांधीजी को यह कहते हुए बीस बरस से भी ज्यादा समय हो गया था कि हिंदु-मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। लेकिन सांप्रदायिकता का रंग बार-बार चढ़ता रहा। अंत में गांधीजी ने 'भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन एक साथ दो खतरों का हल था - पहला जापानी आक्रमण से देश की रक्षा और आपसी फूट को मिटाकर एकता स्थापित करना। एक बार फिर गांधीजी ने 'सत्याग्रह' शुरू किया। लोगों को तैयार करने लगे गांधीजी। इस आंदोलन ने देश के वातावरण को गरम कर दिया था। 7 अगस्त 1942 को बंबई में एक ऐतिहासिक बैठक हुई। बैठक में फैसला लिया गया कि,"यदि ब्रिटिश राज्य को भारत से तुरंत हटाया नहीं गया तो गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया जायेगा।"
- गांधीजी किसी भी योजना पर कार्य करने से पहले एक बार वाइसराय से मिलना चाहते थे। उसने गांधीजी से वार्ता करना उचित नहीं समझा। उसने कड़े हाथ से काम लेने का फैसला लिया। 9 अगस्त की सुबह कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारीयों की खबर में पूरा देश जलने लगा। बंगाल, बिहार, बंबई आदि स्थलों पर जनता ने थाने, डाकघर, अदालतें, रेलवे स्टेशन आदि जला डाले। खूब उपद्रव हुआ। इन उपद्रवों की जिम्मेदारी के संबंध में पूना स्थित आगा खाँ काफी लंबा पत्र-व्यवहार हुआ।
- लॉर्ड लिनलिथगो ने जब अहिंसा में गांधीजी की आस्था और ईमानदारी में ही संदेह प्रकट कर दिया तो महात्माजी का हृदय फट सा गया। इस आत्मिक कष्ट से शांति पाने के लिए उन्होंने 10 फरवरी 1943 से इक्कीस दिन का उपवास आरंभ कर दिया। कैद में गुजारे ये वक़्त गांधीजी के लिए बड़े दुखदायी साबित हुए। गिरफ्तारी के छः दिन बाद उनके 24 वर्ष से सहयोगी रहे तथा सेक्रेटरी की भूमिका निभा रहे महादेव देसाई हार्ट फेल होने से चल बसे। इसी दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उन्होंने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मानो गांधीजी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो।
- कस्तूरबा की मृत्यु के 6 सप्ताह बाद मलेरिया ने गांधीजी को भी अपनी चपेट में ले लिय। तेज बुखार रहने लगा। सरकार के लिए उनकी रिहाई उनके जेल में मर जाने से कम परेशानी का कारण होती। उन्हें बिना शर्त के 6 मई को जेल से रिहा कर दिया गया। वे काफी कमजोर हो चुके थे। कुछ समय तो उनही स्थिति बेहद खराब हुई, लेकिन धीरे-धीरे देश कामों में ध्यान देने लायक शक्ति उनमें आ गई थी। उन्होंने देश की दशा देखी। गांधीजी की इच्छा थी कि वे वाइसराय लॉर्ड वॉवेल से मिलें, लेकिन वॉवेल ने बातचीत करने से साफ मना कर दिया। गांधीजी जानते थे कि ब्रिटिश मुस्लिमों की माँगों को प्रोत्साहित कर रही है ताकि हिंदुओं के साथ मतभेद के अवसर बने रहें। वे उनकी 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति से पूरी तरह परिचित थे। गांधीजी हिंदु-मुस्लिम एकता के पक्ष में थे। दोनों समुदायों को एकता की कड़ी में पिरोने के लिए उन्होंने उपवास भी रखा। उन्होंने काफी प्रयास किया किंतु मुस्लिमों के नेता जिन्ना 'मुस्लिमों के लिए अलग राज्य' से कुछ कम पाकर समझौता करने को बिलकुल तैयार न थे। जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य की माँग रखी।
- ब्रिटिश सरकार भारत की स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी। चारों ओर उसके खिलाफ भारतीयों ने मोर्चा खेल दिया था। 1945 में ब्रिटेन में हुए चुनावों में चर्चिल हार गये, लेबर सरकार सत्ता में आई। नया प्रधानमंत्री भारत को अपने हाथ से निकलना नहीं देना चाहता था। लॉर्ड वॉवेल को वापस भारत भेजा गया। वापस आने पर उसने एक नयी योजना की घोषणा की। जिसके अनुसार नये संविधान की शुरूआत के रूप में प्रांतीय और केंद्रिय विधान सभाओं के चुनाव होने थे। इंग्लैंड से एक कैबिनेट मिशन आया। इस मिशन का उद्देश भारतीय नेताओं से बातचीत कर संयुक्त भारत के लिये संविधान बनाना था। लेकिन कांग्रेस और मुस्लिमों को एक साथ लेकर चलने में वे नाकाम रहे। मुस्लिमों की राय भारत से अलग होने की थी।
- 12 अगस्त 1946 को वाइसराय ने वार्ता के लिए जवाहरलाल नेहरू को आमंत्रित किया। उधर जिन्ना ने 'सीधी कार्रवाई दिन' का ऐलान कर दिया। बंगाल में काफी खून-खराबा हुआ। देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। गांधीजी के समझ में नहीं आ रहा था कि अलग से मुस्लिम राष्ट्र की माँग क्यों की जा रही है? उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना से अनुरोध करते हुए कहा था, ूयदि तुम चाहो तो मेरे टुकड़े कर लो, पर भारत को दो हिस्सों में न बाँटो।" गांधीजी दिल्ली की भंगी बस्ती में रहने चले गये, जहाँ दिन-प्रतिदिन हिंसा के खिलाफ उनका स्वर जोर पकड़ता गया।
- तभी दिल को दहला कर रख देने वाला समाचार आया। पूर्वी बंगाल के नोआखली जिले में कई निर्दोष नागरिक सांप्रदायिक दंगे में मारे गये। अब गांधीजी के लिए शांत बैठे रहना असंभव था। उन्होंने निश्चय किया कि दोनों धर्में के बीच गहराती जा रही खाईं को वे अवश्य पाटेंगे, भले ही उसके लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़े। उनका कहना था, ूयदि भारत को आजादी मिल भी गई और उसमें हिंसा होती रही तो वह आजादी गुलामी से भी बदतर होगी।" नोआखली में मुस्लिम सरकार सत्ता में थी, गांधीजी ने वहाँ पदयात्रा करने का निर्णय लिया। जब वे कलकत्ता में थे तो उन्हें समाचार मिला कि नोआखली का बदला लेने के लिए बिहार में भी हिंसा का घिनौना कार्य किया गया। गांधीजी का दिल रोने लगा। यह वही स्थल था जहाँ से इस महात्मा ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह शुरू किया था। गांधीजी ने बिहारियों को चेतावनी देते हुए कहा कि, "यदि हिंसक कार्रवाई जल्द नहीं रोकी गई तो वे तब तक उपवास रखेंगे जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो जाती।" गांधीजी के इस प्रण को सुनते ही तुंत बिहार में हिंसा रोक दी गई। गांधीजी नोआखली रवाना हो गये।
- वहाँ के हालात ने उन्हें विचलित कर दिया। जिस क्षेत्र में वे प्रेम व भाईचारे का मंत्र ले गये थे। वहाँ तो एक समुदाय दूसरे समुदाय के खून का प्यासा हुआ था। कई लोगों की हत्याएँ हुई। महिलाओं पर बलात्कार हुए और कईयों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। गांधीजी के रोंगटे खड़े हो गये। पुलिस सुरक्षा को इंकार करते हुए, केवल एक बंगाली स्टेनोग्राफर को साथ लिए 77 वर्ष का यह महात्मा गाँव-से-गाँव तक, घर-से-घर तक की पदयात्रा कर रहा था। गांधीजी दोनों धर्मों के बीच प्रेम का सेतु (पुल) बनाना चाहते थे। वे फलाहार ही करते और हिंदु-मुस्लिम के दिलों को एक करने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे। "मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य है कि ईश्वर हिंदुओं और मुस्लिमों के दिलों को मिलायें। एक दूसरे के प्रति उनके मन में कोई डर या दुश्मनी न रहे।"
- नोआखली में 7 नवंबर 1946 से 2 मार्च 1947 तक गांधीजी रहे। इसके बाद वे बिहार चले गये। यहाँ भी उन्होंने वही किया, जो नोआखली में किया था। गाँव-से-गाँव तक की पदयात्रा की। लोगों को उनकी गलती का एहसास कराने के साथ जिम्मेदारियों से भी परिचित कराया। घायलों के इलाज के लिए उन्होंने रूपए इकट्ठे करने शुरू किये। यह गांधीजी का ही प्रभाव था कि एक धर्म की महिलाएँ दूसरे धर्म के लोगों के इलाज के लिए अपने गहने तक उतार कर दे रहीं थी। गांधीजी ने बिहार के लोगों से कहा, "यदि दुबारा उन्होंने हिंसा का मार्ग अपनाया, तो वे गांधीजी को हमेशा के लिए खो देंगे।"
- नये वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने मई 1947 में गांधीजी को दिल्ली बुलाया। जहाँ कांग्रेसी नेताओं के साथ जिन्ना भी उपस्थित थे। जिन्ना मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे। गांधीजी ने जिन्ना को समझाने का लाख प्रयास किया पर वह टस-से-मस नहीं हुए।
- आखिर वह दिन भी आ गया, जब भारत आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। गांधीजी ने इस दिन आयोजित किये गये समारोह में भाग न लेकर कलकत्ता जाना उचित समझा। जहाँ सांप्रदायिक दंगों की आग सब कुछ तहस-नहस कर रही थी। गांधी के वहाँ जाने पर धीरे-धीरे स्थिति शांत हो गई। कुछ दिन वहाँ पर गांधीजी ने प्रार्थना एवं उपवास में गुजारें। दुर्भाग्य से 31 अगस्त को कलकत्ता दंगों की आग में जलने लगा। सांप्रदायिक दंगों की आड़ में लूट, हत्या, बलात्कार का भीषण कांड शुरू हुआ। अब गांधीजी के पा एक ही विकल्प था 'अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक व्रत करना।' गांधीजी की इस घोषणा ने सारी स्थिति ही बदल डाली। उनका जादू लोगों पर चल गया। 4 सितंबर को विभिन्न धर्मों के नेताओं ने उनसे इस धार्मिक पागलपन के लिए माफी माँगी। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि अब कलकत्ता में दंगे नहीं होंगे। नेताओं की इस शपथ के बाद गांधीजी ने व्रत तोड़ दिया। कलकत्ता तो शांत हो गया किंतु भारत-पाक विभाजन के कारण अन्य शहरों में दंगों ने जोर पकड़ लिया।
- गांधीजी सितंबर 1947 में तब दिल्ली लौटे तो उस शहर में भी सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर हुए निमर्म अत्याचार ने आग में घी का काम किया। दिल्ली के सिखों और हिंदुओं ने बदले की भावना से कानून को अपने हाथ में ले लिया। मुस्लिमों के घरों को लूटा गया, धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुँचाया गया, हत्याओं का दौर शुरू हुआ। सरकार सख्त कदम उठाना चाहती थी, लेकिन जनता के सहयोग के बिना वह कुछ भी कर पाने में असमर्थ थी। इस डरावने और अराजकता के माहौल में गांधीजी निडर होकर रास्ते पर आ खड़े हुए। लोगों के बीच इस तरह आने का साहस कर ना उसी महात्मा के वश की बात थी।
- गांधीजी का जन्मदिन आ गया। 2 अक्तूबर को पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विश्व में उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाने वाला था। गांधीजी को बधाइयाँ देने वालों का ताताँ बँध गया। गांधीजी ने कहा, "बधाई कहाँ से आ गई? इधर देश जल रहा है। चारों ओर हिंसा का साम्राज्य है। मेरे हृदय में जरा भी प्रसन्नता नहीं...। लोगों को इस तरह लड़ते-झगड़ते देख मुझे और जीने की बिलकुल इच्छा नहीं होती।"
- गांधीजी की पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। उनके दिल्ली में होने के बावजूद हिंसा-लूटपाट रूकने का नाम नहीं ले रहा था। अभी भी शहर के मुसलमान निडर होकर दिल्ली की सड़कों पर नहीं चल सकते थे। गांधीजी पाकिस्तान भी जाना चाहते थे ताकि वहाँ के पीड़ितों के लिए भी कुछ कर सकें। लेकिन दिल्ली के हालात काफी नाजुक थे। ऐसे बुरे दौर में दिल्ली को छोड़ना उनके लिए संभव नहीं था। गांधीजी स्वयं को असहाय महसूस करने लगे। 'मैने अपने आपको कभी भी इतना असहाय महसूस नहीं किया था।' वे 13 जनवरी 1948 को उपवास पर बैठ गये। उन्होंने यह भी कहा, 'ईश्वर ने मुझे व्रत रखने के लिए ही भेजा है।' उन्होंने लोगों सं कहा कि वे उनकी चिंता न करें, बल्कि 'नई रोशनी' की खोज में जुटें।
- परिस्थितियाँ बदलने जा रही थीं। यह कहना मुश्किल है कि रोशनी किस-किसके दिल में उतरी। 18 जनवरी को दुख-दर्द भरे सप्ताह के बाद गांधीजी के पास विभिन्न धर्मों, संस्थाओं और हिंदु संघ 'आर एस एस' के लोग गांधीजी से मिलने दिल्ली के बिरला हाउस आये। वहाँ गांधीजी बिस्तर पर पड़े हुए थे। उन्होंने लोगों का मुस्कुरा कर स्वागत किया। सभी लोगों के गांधीजी को एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था - 'हम सब लोगों के प्राणों की रक्षा करेंगे। मुस्लिमों का विश्वास जीतेंगे। अब फिर दिल्ली में इस तरह की घटनाएँ नहीं होंगी।' गांधीजी ने अपना व्रत तोड़ दिया। संसार के विभिन्न कोने में इस घटना की चर्चा हुई।
- अब तक गांधीजी के व्रत ने विश्व के करोड़ों लोगों के दिलों को छू लिया था। लेकिन कट्टर हिंदुओं पर इसका अलग प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा कि गांधीजी ने इस तरह का व्रत करके हिंदुओं को 'ब्लैकमेल' किया है। गांधीजी के पाकिस्तान के प्रति दृष्टिकोण पर भी उनका नजरिया कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था।
- व्रत समाप्ति के दूसरे दिन हमेशा की तरह जब गांधीजी शाम की प्रार्थना में थे तो उन पर बम फेंका गया। सौभाग्य से निशाना चूक गया। गांधीजी बच गये। पर गांधीजी जरा भी विचलित नहीं हुए, वे नीचे बैठ गये और अपनी प्रार्थना जारी रखी। गांधीजी कई वर्षों से जनता के साथ प्रार्थना कर रहे थे। हर शाम वे जहाँ कहीं भी होते, वे अपनी प्रार्थना सभा खुले मैदान में रखते। जहाँ वे लोगों से वार्ता भी करते। इस प्रार्थना सभा में सभी का स्वागत था। इसमें रूढिवादिता को, किसी विशेष धर्म को कोई स्थान नहीं था। सभी लोग प्रार्थना गीत गाते। अंत में गांधीजी हिंदी भाषा में दो शब्द बोलते। यह जरूरी नहीं था कि वे किसी धार्मिक थीम पर ही बोलें, वे दिन भर की किसी भी घटना पर बोलते। यह गांधीजी का नियम था। वे किसी भी विषय पर बोलते लेकिन उनका मकसद लोगों को सही दिशा देना ही होता था।
- कई बार गांधीजी का सुनने सैकड़ों तो कई अवसरों पर हजारों की भीड़ उमड़ती। जहाँ भी उनकी प्रार्थना सभा होती उनके अनुयाइयों का ताताँ लग जाता। एक छोटे से मंच पर बैठकर गांधीजी अपनी बात कहते। हिंसा का क्रम जारी था। गांधीजी इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए लोगों से आग्रह करते रहे। पाकिस्तान के विभाजन और बदले की भावना से समाज का एक बड़ा वर्ग क्रोधित था। गांधीजी को चेतावनी दी गई कि उनका जीवन खतरे में है। पुलिस अधिकारी चिंतित थे, क्योंकि गांधीजी ने सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया। 'अपने ही देश में, अपने ही लोगों के बीच मुझे सुरक्षा लेने की आवश्यकता नहीं।' 40 वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने कहा था, "जीवन में सभी की मृत्यु निश्चित है। चाहे कोई अपने भाई के हाथों मरे, चाहे किसी रोग का शिकार होकर या फिर किसी और बहाने। मरना कोई दुख की बात नहीं है। मैं इससे नहीं डरता।"
- गांधीजी को मृत्यु से भय नहीं था। बम फेंके जाने की घटना के दस दिन बाद 30 जनवरी 1948 के दिन गांधीजी बिरला पार्क के मैदान में प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे। वे कुछ मिनट देरी से पहुँचे। समय से पाँच-दस मिनट देरी से पहुँचने के कारण वे मन-ही-मन में बड़बड़ाने लगे। 'मुझे ठीक पाँच बजे यहाँ पर पहुँचना था।' गांधीजी ने वहाँ पहुँचते ही अपना हाथ हिलाया, भीड़ ने भी अपने हाथों को हिलाकर उनका अभिवादन किया। कई लोग उनके पाँव छूकर आशीर्वाद लेने के लिए आगे बढ़े। उन्हें ऐसा करने से रोका गया क्योंकि गांधीजी को पहले ही देरी हो चुकी थी। लेकिन पूना के एक हिंदू युवक ने भीड़ को चीरते हुए अपने लिए जगह बनाई। गांधीजी के नजदीक पहुँचते ही उसने अपनी अटॉमेटिक पिस्तोल से गांधीजी के दिल को निशाना बनाते हुए तीन गोलीयाँ दाग दी। गांधीजी गिर पड़े, उनके होठों से ईश्वर का नाम निकला - 'हे राम'। इससे पहले की उन्हें अस्पताल ले जाया जाता, उनके प्राण निकल चुके थे। प्रेम का यह पुजारी दुनिया को अलविदा कह गया।
महात्मा की हत्या पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू
अपने ही लोगों द्वारा
महात्मा की हत्या उन लोगों के लिए शर्म की बात थी जो गांधीजी के प्रेम, सत्य, अहिंसा के
सिद्धांत को न समझ सके। राष्ट्र की उमड़ी भावना को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने
दुखी, करूणाभरी आवाज में रेडियो पर कुछ यूँ कहा -
"वह ज्योति चली गई, जिसने लोगों के
अंधकारमय जीवन को रोशनी दी। चारों ओर अंधेरा हो गया है। मैं चुप नहीं रह सकता।
लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं आप लोगों से क्या कहूँ और कैसे कहूं। हम
सबके लाड़ले नेता, जिन्हें हम 'बापू' कहते थे, देश के
राष्ट्रपिता अब नहीं रहें... हमारे सिर से उनका साया चला गया। 'बापू' ने देश को जो
प्रकाश दिया था वह कोई सामान्य नहीं था। वह जीवन जीने का मंत्र देने वाली ज्योति
थी। उस रोशनी ने देश के कोने-कोने में उजाला फैलाया। संपूर्ण विश्व ने इसे देखा।
उनके सत्य, प्रेम, अहिंसा के दिपक हमेशा इस देश के लोगों को अपनी
रोशनी देते रहेंगे.....।"
ऐसे लोग मर कर भी जिंदा
रहते है। गांधीजी ने अपने दम पर विश्व को यह दिखला दिया कि प्रेम, सत्य और अहिंसा
का मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। इसी का प्रयोग करके उन्होंने देश को आजादी दिलाई।
समाज के गरीब, असहाय और अछूतों के उद्धार के लिए किये गये उनके कार्यों को
भी भुलाया नहीं जा सकता। स्वराज, सत्याग्रह, प्रार्थना, सत्य, प्रेम, अहिंसा, स्वतंत्रता के
संबंध में उनके सिद्धांत बड़े बेशकीमती रत्न हैं। गांधीजी का जीवन लोगों के लिए
था। उन्होंने मानवता के लिए अपना बलिदान दे दिया। यह भी सच है कि जिस व्यक्ति ने
सबको अपने बराबर समझा, हमारे इस युग में उसके बराबर कोई नहीं था।
जितना भी हम उनके बारे में जानते हैं, बस यही कि वह 'कथनी-करनी' में एकनिष्ठ रहने
वाले थे। सबसे बुद्धिमान, संवेदनशील, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, सिद्धांतवादी थे।
ऐसे महापुरुष बार-बार जन्म नहीं लेते। गांधीजी के विचारो पर चलकर देश की वर्तमान
और भविष्य की पीढ़ी सुनहरे भारत का सुनहरा इतिहास लिख सकती है। 'हे बापू तुम्हें
नमन!'
Post a Comment