गांधीजी अप्रैल 1893 में
दक्षिण अफ्रीका गये थे। जनवरी 1915 में महात्मा बनकर वे भारत लौटे। अब उनके जीवन
का एक ही मकसद था - लोगों की सेवा। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में जितने लोकप्रिय थे, उतना भारत में नहीं, क्योंकि अभी तक उनका संघर्ष, सत्याग्रह, आंदोलन दक्षिण अफ्रीका
में बसे भारतीयों के लिए ही सीमित था। रवींद्रनाथ टगौर ने इस महात्मा की भारत
वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण भी दिया। गांधीजी
शांति निकेतन और भारतीय परिस्थिती से ज्यादा परिचित नहीं थे। गोखले की इच्छा थी कि
गांधीजी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। अपने राजनीतिक गुरू गोखले को
उन्होंने वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन
करेंगे। इस दौरान'केवल उनके कान खुले
रहेंगे, मुँह पूरी तरह बंद रहेगा।' एक तरह से यह गांधीजी का एक वर्षीय 'मौन व्रत' था।
वर्ष की समाप्ति के समय
गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गये। उन्होंने इस सुंदर
जगह पर साबरमती आश्रम बनाया। इस आश्रम की स्थापना उन्होंने मई 1915 में की थी। वे
इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित
करते थे। आरंभ में इस आश्रम से कुल 25 महिला-पुरुष स्वयंसेवक जुड़े। जिन्होंने
सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प
लिया। इन स्वयंसेवकों ने अपना पूरा जीवन 'लोगों की सेवा
में' बिताने का निश्चय किया।
गांधीजी का 'मौन व्रत' समाप्त हो चुका था। पहली
बार भारत में गांधीजी सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916
के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और
अंग्रेज अधिकारीयों की उपस्थिति में उन्होंने भाषण दिया। इस अवसर पर वाइसराय भी
स्वयं उपस्थित था। एक हिन्दू राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में
अंग्रेजी भाषा में बोलने की अपनी विवशता पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने भाषण की
शुरूआत की। उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरातों तथा धूमधाम से आयोजनों में होने
वाली फिजूल खर्ची की चर्चा की। उन्होंने कहा,"एक ओर तो अधिकांश
भारत भूखों मर रहा है और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बर्बादी की जा रही है।"
उन्होंने सभा में बैठी राजकुमारीयों के गले में पड़े हीरे-जवाहरातों की ओर देखते
हुए कहा कि 'इनका उपयोग तभी है, जब ये भारतवासियों की दरिद्रता देर करने के काम
आयें।' कई राजकुमारीयों और अंग्रेज अधिकारीयों ने सभा
का बहिष्कार कर दिया। उनका भाषण देश भर में चर्चा का विषय बन गया था।
भारत में गांधीजी का पहला
सत्याग्रह बिहार के चम्पारन में शुरू हुआ। वहाँ पर नील की खेती करने वाले किसानों
पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ
बगान मालिक भी जुल्म छा रहे थे। गांधीजी स्थिति का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। उनके
दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएँ
बताईं। उधर पुलिस भी हरकत में आ गई। पुलिस सुपरिटेंडंट ने गांधीजी को जिला छोड़ने
का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट
में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधीजी के
समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए मेजिस्ट्रेट ने
बिना जमानत के गांधीजी को छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार
सजा की माँग की।
फैसला स्थगित कर दिया
गया। इसके बाद गांधीजी फिर अपने कार्य पर निकल पड़े। अब उनका पहला उद्देश लोगों को
'सत्याग्रह' के मूल सिद्धातों
से परिचय कराना था। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से
स्वतंत्र होना। गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहाँ
किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को
साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल
खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। लोगों को उनके
अधिकारों का ज्ञान कराया गया।
चंपारन के इस गांधी
अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सारे भारत का ध्यान अब चंपारन पर था।
सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी
इसका सदस्य बनाया गया।। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त
कर दिया गया। जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के
मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारन ही
भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना।
गांधीजी चंपारन में ही थे, तभी अहमदाबाद के मिल-मजदूरों द्वारा तत्काल
साबरमती बुलाया गया। मिल-मजदूरों के खिलाफ मिल-मालिक कठोर कदम उठाने जा रहे थे।
दोनों पक्षों के बीच गांधीजी को सुलह करानी थी। जाँच-पड़ताल और दोनों पक्षों से
बातचीत करने के बाद गांधीजी का निर्णय मजदूरों के पक्ष में गया। लेकिन मिल-मालक
मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने के लिए तैयार न थे। इसलिए गांधीजी ने मजदूरों का
उत्साह घटता गया और हिंसा की आशंका बढ़ने लगी। गांधीजी ने इसे बनाये रखने के लिए
खुद उपवास पर बैठ गये। इसके बाद मालिकों और मजदूरों का एक बैठक हुई जिसमें बातचीत
करके समस्या का हल निकाला गया और हड़ताल समाप्त हो गई।
गुजरात के खेड़ा जिले के
किसानों की फसलें बरबाद हो चुकी थी। गरीब किसानों को सरकार द्वारा लगान चुकाने के
लिए दबाव डाला जा रहा था। गांधीजी ने खेड़ा जिले में एक गांव से दूसरे गांव तक की
पदयात्रा आरंभ की। गांधीजी ने 'सत्याग्रह' का आवाहन किया। उन्होंने किसानों से कहा कि वे
तब तक सत्याग्रह के मार्ग पर चलें, जब तक सरकार उनका
लगान माफ करने की घोषणा न करे। चार महीने तक यह संघर्ष चला। इसके बाद सरकार ने
गरीब किसानों का लगान माफ करने की घोषणा की। गांधीजी एक बार फिर सफल हुए।
Post a Comment