राज्य के कार्यों के मार्क्सवादी सिद्धान्त |मार्क्सवादी की आलोचना | Marxist theory of state functions
राज्य के कार्यों के मार्क्सवादी सिद्धान्त
राज्य के कार्यों के मार्क्सवादी सिद्धान्त
- राज्य के कार्यों के मार्क्सवादी सिद्धान्त का अध्ययन करने के लिए हमें मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचारों का पुनरावलोकन करना होगा। हम लोगों ने पिछले अध्याय में राज्य की उत्पत्ति सम्बन्ध मार्क्स के विचारों का अध्ययन किया उससे यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि राज्य न तो मानवीय चेतना की उपज है न लोगों की सहमति पर आधारित कृत्रिम संगठन है न यह रक्त संबंध, धर्मबल एवं सहमति आदि तत्वों से प्रभावित बहुत लम्बे विकास का परिणाम मात्र है तथा न ही यह सकारात्मक भलाई का उपकरण है। वास्तव में राज्य एक ऐसा संगठन है जो वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त का पोषण करने वाला मार्क्स के अनुयायी लेनिन की यह मान्यता है कि “परस्पर विरोधी वर्गों वाले समाज में राज्य एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व बनाये रखने के लिए एक राजनीतिक उपकरण है।” इस दृष्टि से राज्य के कार्यों का संबंध जीवन के भौतिक साधनों की उत्पादन प्रक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है जहां प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग राज्य की शक्तियों का प्रयोग स्वहित में करता है तथा सामाजिक उत्पादनों का निर्धारण उत्पादक शक्तियों द्वारा राज्य के गैर सम्पन्न व्यक्तियों के शोषण द्वारा किया जाता है।
- आदिमकालीन साम्यवादी व्यवस्था में राज्य न था, न ही उत्पादन के साधन थे और न ही वर्ग संघर्ष था। परन्तु उत्पादन के नये साधनों (जैसे पशुपालन प्रणाली, खेती तथा उद्योगों के विकास) के आविष्कार द्वारा महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक विभाजन विकसित हुए। इसके साथ ही निजी सम्पत्ति की व्यवस्था का उदय हुआ जिसने सम्पन्न वर्ग के द्वारा गैर सम्पन्न वर्ग के शोषण का मार्ग खोल दिया। पहला शोषणयुक्त राज्य वह था जिसमें दास रखने की परंपरा सामने आई। इसके उपरांत सामंती राज्य आया जो कृषि प्रणाली पर आधारित था। औद्योगिक प्रणाली के विकास के उपरांत पूंजीवाद राज्य स्थापित हुआ । यद्यपि इन तीनों प्रकार के एक ही प्रकार के कार्य थे- लोगों को दवाये रखना तथा श्रमिकों द्वारा अपने को शोषण से मुक्त कराने के प्रत्येक प्रयास को कुचल देना ।
मार्क्सवादी राज्य के कार्य
मार्क्सवादी राज्य के कार्य निम्नलिखित हैं
1. राज्य शक्ति का प्रतीक
जंगली जनजातियों के समाज में रहने वाले सशस्त्र लोगों के प्रत्यक्ष संगठन से भिन्न, यह एक सार्वजनिक शक्ति है जो सामान्य जनता से संबंधित नहीं है। इसका प्रयोग एक विशिष्ट वर्ग द्वारा किया जाता है। एक स्थायी प्रशासनिक सेवा, सशस्त्र लोगों के लिए विशिष्ट दल (सेना, पुलिस, गुप्तचर दल) राज्य के दण्डकारी सूचना देने वाले, अंग (बंदी गृह, नजरबंदी, गृह तथा कैद में रखने के अन्य स्थान ) सब उसी सार्वजनिक शक्ति के अनिवार्य तत्व हैं।
2. राज्य द्वारा करारोपण:
राज्य के द्वारा अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए जनता पर करारोपण किया जाता है। राज्य के खर्च का वहन करने के लिए समाज के अधिकाधिक संसाधनों का उपयोग किया जाता है। समाज पर बढ़ता कर भार इस बात का प्रतीक है कि संपन्न वर्ग अपनी सुख सुविधाओं के लिए गैर सम्पन्न वर्ग का शोषण करना चाहता है।
3. प्रादेशिक आधार पर विभाजन:
राज्य की जनता रक्त सम्बन्धों के आधार पर नहीं बल्कि प्रादेशिक आधार पर विभाजित होती है। राज्य का प्रादेशिक आधार पर विभाजन संबंधों के विकास के आधार पर होता है। राज्य के द्वारा अपने हितों को ध्यान में रखकर एक निश्चित क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा इस प्रकार दिया जाता है जिससे कि सत्ताधारी वर्ग के द्वारा गैर सम्पन्न वर्ग का शोषण किया जा सके। देश के भीतर राज्य की यही गतिविधि रहती है। राज्य के बाहर भी यह वर्ग अपने उन पडोसियों पर दबाव डालकर, जो अपनी रक्षा करने में सक्षम नहीं है, अपने हितों की बढ़ोत्तरी करता जाता है। इसी के सहारे वह अपने पड़ोसी राज्यों पर कब्जा भी करता जाता है। इस प्रकार राज्य की शक्ति बढ़ती जाती है। अतएव राज्य आर्थिक आधार पर बना राजनीति ढांचा है । यह आर्थिक दृष्टि से प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग सत्ता का संगठन है जो राज्य के माध्यम से राजनीतिक सर्वोच्चता भी प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार राज्य का मूल तत्व शासक वर्ग का संगठन है जिसका लक्ष्य उसके मौलिक हितों की रक्षा करना है। तथा सबसे बढ़कर, सम्पत्ति का ऐसा रूप है जिसका यह वर्ग प्रतिनिधित्व करता है।
अतः मार्क्सवादियों का मानना है कि राज्य का अस्तित्व अनादि काल से नहीं है। आर्थिक विकास की अवस्था में समाज के विभाजन के परिणामस्वरूप राज्य का जन्म हुआ । उत्पादन के विकास के दौर में ऐसी अवस्था आ जायेगी जब न तो वर्गों और न ही राज्य का अस्तित्व रह जायेगा। राज्य का पतन हो जायेगा तथा उत्पादकों के स्वतंत्र एवं समान सहयोग पर आधारित वर्गविहीन एवं राज्यविहीन समाज का गठन होगा।
मार्क्सवादी की आलोचना
राज्य के कार्यों की मार्क्सवादी धारणा की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है-
1. राज्य शोषण एवं दमन का उपकरण मात्र नहीं
यह कहना गलत है कि राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण एवं दमन का उपकरण मात्र है। यह जनकल्याण का अभिकरण है तथा जैसा कि अरस्तू का मानना है इसका अन्तिम लक्ष्य नागरिकों के लिए उत्तम जीवन संभव बनना है।
2. राजनीतिक ढ़ांचा शोषण पर आधारित नहीं :
शोषण के यथार्थ को संपूर्ण राजनीतिक ढांचे के निर्माण एवं रक्षण का एकमात्र निर्णायक तत्व नहीं मानना चाहिए। छोटों पर बड़ों का प्राधिकार शोषण नहीं था परन्तु इसने राज्य के निर्माण में भूमिका निभाई। इसी प्रकार राज्य के निर्माण में न्याय तथा सामाजिक क्रियाकलापों की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। जिसके बिना राज्य का निर्माण असंभव था।
3. राज्य दमन का उपकरण नहीं
राज्य को दमन का उपकरण मानना गलत होगा। यह सत्य है कि अपने शत्रुओं से निवटने तथा नियम नून को लागू करने के लिए राज्य बल एवं दमन का प्रयोग करता है परन्तु केवल बल एवं दमन से राज्य की जनता को आज्ञापालन के लिए बाध्य करना असंभव है। राज्य को सशक्त बनाने में परम्पराओं मान्यताओं रीति रिवाजों की भी भूमिका होती है।
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