राजनीति विज्ञान की प्रकृति- विज्ञान अथवा कला |राजनीति विज्ञान, विज्ञान है या नहीं है पक्ष में प्रमाण | Nature of political science
राजनीति विज्ञान की प्रकृति- विज्ञान अथवा कला
राजनीति विज्ञान की प्रकृति- विज्ञान अथवा कला
राजनीति विज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाए या कला की श्रेणी में, यह बात आज भी पूर्ण स्पष्ट नहीं है। इसका कारण यह है कि आज भी कुछ विद्वान इसे विज्ञान स्वीकार करने में हिचकते हैं, जबकि कुछ विद्वान इसे विज्ञान मान चुके हैं। इस पर विचार करने से पूर्व यह उचित है कि पहले 'विज्ञान' शब्द की परिभाषा पर विचार कर लिया जाए।
विज्ञान की परिभाषा -
प्राकृतिक विज्ञानों के विचारक अपने विषयों को ही विज्ञान स्वीकार करते हैं; जैसे- रसायनशास्त्र, भौतिक विज्ञान, गणित, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि विषय ही विज्ञान हैं, परन्तु विज्ञान की परिभाषा को सामान्यतया अब दूसरे रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। विज्ञान की सामान्य परिभाषा है कि, “विज्ञान किसी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को कहते हैं।"
इस परिभाषा की अंग्रेजी के शब्दकोष चैम्बर्स डिक्शनरी से भी पुष्टि की जा सकती है, उसके अनुसार,
"विज्ञान वह ज्ञान है जो पर्यवेक्षण और प्रयोग पर आधारित हो, भली-भाँति परीक्षित तथा क्रमबद्ध हो और सामान्य सिद्धातों में समाहित हो।" विज्ञान की परिभाषा गार्नर ने इन शब्दों में दी है, “विज्ञान उस एकीकृत ज्ञान भण्डार को कहते हैं जिसकी प्राप्ति विधिवत पर्यवेक्षण, अनुभव और अध्ययन द्वारा हुई हो और जिसके तथ्यों का उनमें परस्पर उचित सम्बन्ध स्थापित करके क्रमबद्ध वर्गीकरण किया गया हो। "
उक्त परिभाषाओं से विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं-
1. विज्ञान में प्रयोगात्मक विधियों को काम में लाया जाता है।
2. निश्चित विधि तथा तर्क के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों की स्थापना की जाती है।
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विज्ञान की परिभाषा कर लेने के पश्चात् अब देखना होगा कि क्या राजनीति विज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाए या नहीं। इसको कुछ विद्वान विज्ञान स्वीकार करते हैं; जैसे- अरस्तू ने इसे सर्वोच्य और पूर्ण विज्ञान माना है। बर्नाडशा इसे मानवीय सभ्यता को सुरक्षित रख सकने वाला विज्ञान कहते हैं। इनके अतिरिक्त बोदां, हॉब्स, मॉन्टेस्क्यू, ब्राइस, ब्लुटूश्ली, जैलीनेक, डॉ0 फाइनर, लास्की जैसे विद्वान भी इसे विज्ञान की श्रेणी में रखते हैं, जबकि इसके विपरीत बकल, कॉम्टे, मेटलैण्ड, लियर्ड, केटलिन, मोस्का, ब्रोमन, बर्क जैसे विद्वान राजनीति विज्ञान को विज्ञान स्वीकार नहीं करते हैं। अब इन दोनों पर विस्तार से विचार कर लेना उचित होगा।
राजनीति विज्ञान, विज्ञान नहीं है
- कल, कॉम्टे, मेटलैण्ड आदि विचारक इस विषय को विज्ञान स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि उनके अनुसार विज्ञान ज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत कार्य और कारण में सदैव निश्चि सम्बन्ध पाया जाता हो और जिसके निष्कर्ष निश्चित एवं शाश्वत हों। इस आधार पर वे राजनीतिविज्ञान को विज्ञान स्वीकार नहीं करते हैं। कॉम्टे का विचार है कि, “राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ उसकी अध्ययन विधियों, सिद्धान्तों एवं निष्कर्षों के सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं। इसमें विकास की निरन्तरता का अभाव है जिनके आधार पर भविष्य के लिए ठीक निष्कर्ष निकाले जा सकें।“ बकल के अनुसार, “ज्ञान की वर्तमान दशा में राजनीतिविज्ञान का विज्ञान होना तो दूर रहा, यह कलाओं में भी सबसे पिछड़ी हुई कला है। “
- विज्ञान शब्द इस विषय के साथ जुड़ने पर मेटलैण्ड को बहुत दुःख है। उनके शब्दों में, “जब मैं राजनीतिशास्त्र शीर्षक के अन्तर्गत प्रश्न देखता हूँ तो मुझे प्रश्नों पर नहीं बल्कि शीर्षक पर आश्चर्य होता है।“ मेटलैण्ड के अनुसार राजनीति विज्ञान, विज्ञान हो ही नहीं सकता ।
इन विद्वानों ने अपने कथन के पक्ष एवं समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं-
1. सुनिश्चित परिभाषित शब्दावली का अभाव-
राजनीति विज्ञान में हम एक निश्चित परिभाषिक शब्दावली का अभाव पाते हैं। इसे राजनीति, राजनीतिक दर्शन तथा राजनीति विज्ञान आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इसके अनेक ऐसे शब्द हैं जिनके वास्तविक अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद पाये जाते हैं। विज्ञान में H2O का अर्थ प्रत्येक स्थान पर एक ही होगा, चाहे वह ब्रिटेन हो या भारत किन्तु राजनीति विज्ञान में स्वतंत्रता, समानता, न्याय, सम्प्रभुता, लोकतंत्र, लोकमत, संघवाद एवं अधिकार आदि के भिन्न-भिन्न देशों में विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न अर्थ लगाए जाते हैं। इस तरह जिस विषय का अपना कोई स्पष्ट एवं निश्चित स्वरूप ही न हो, उसे विज्ञान की संज्ञा कैसे दी जा सकती है।
2. सर्वमान्य नियमों तथा तथ्यों का अभाव-
- भौतिक तथा प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति इसमें सर्वमान् नियमों, तथ्यों तथा सिद्धान्तों का निर्धारण नहीं हो पाता है। विज्ञान में कुछ निश्चित नियम तथा सिद्धान्त होते हैं जो सर्वमान्य एवं सार्वभौम होते हैं। उदाहरणार्थ, ज्यामिति का यह नियम अटल एवं सर्वमान्य है कि, “एक त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण के बराबर होता है ।" किन्तु राजनीतिविज्ञान में ऐसा नहीं है। इसी तरह गति विज्ञान के नियमानुसार, “प्रत्येक क्रिया की उतनी ही विपरीत प्रतिक्रिया होती है “ का नियम भी अटल एवं शाश्वत है। इसी तरह इसमें गणितके 2 और 2 चार अथवा भौतिक विज्ञान के 'गुरूत्वाकर्षण नियम' की भाँति किन्हीं सर्वमान्य एवं शाश्वत नियमों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। यदि एक ओर आदर्शवादी राज्य की सर्वोच्च सत्ता को मान्यता देते हैं तो दूसरी ओर, साम्यवादी तथा अराजकतावादी इसको अमान्य करते हैं।
- यदि बेंजामिन फ्रैंकलिन, लास्की और एबेसीज जैसे विद्वान एक सदनीय व्यवस्थापिका के पक्षधर हैं। तो लैकी, सिजविक तथा ब्लटंश्ली आदि इसके घोर विरोधी हैं। यदि एक पक्ष के लिए प्रजातंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति है तो दूसरे पक्ष के लिए वह बहुत बुरी तथा निकृष्ट शासन पद्धति है। अन्य तथ्यों तथा सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार के मतभेद एवं विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं।
3. प्रयोग व पर्यवेक्षण सम्भव नहीं-
- इसमें भौतिक तथा प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति प्रयोग एवं पर्यवेक्षण की सुविधाएं प्राप्त नहीं हैं। इसमें हम भौतिक, रसायन, जीव एवं मौसम विज्ञानों आदि की भाँति प्रयोगशालाओं में जाकर तथ्यों तथा पदार्थों के सम्बन्ध में कोई निश्चित एवं सन्तोषजनक समाधान नहीं निकाल सकते हैं क्योंकि इसका सम्बन्ध मानव एवं उससे सम्बन्धित विचारधाराओं से होता है जिनका प्रयोग प्रयोगशालाओं या वेधशालाओं में सम्भव नहीं है। अर्थात विज्ञान में हम ताप या गैस का दबाव सही-सही माप सकते हैं क्योंकि वे निर्जीव और भावनाहीन होती हैं, जबकि मानव के आवेग, उत्तेजना, भावना अभिलाषा, क्रोध, प्रेम और विचार का ठीक-ठीक और बार-बार नहीं माप सकते हैं, क्योंकि मानव का स्वभाव परिवर्तनशील, प्रतिक्रियावादी और भावना प्रधान होता है। ब्राइस के शब्दों में, “भौतिक विज्ञान में एक निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बार-बार प्रयोग किया जा सकता है किन्तु राजनीति में एक प्रयोग बार-बार नहीं दोहराया जा सकता है।"
4. भविष्यवाणी सम्भव नहीं-
- विज्ञान में निश्चित नियम होने से शत-प्रतिशत सही भविष्यवाणी की जा सकती है; जैसे- ज्योतिष विद्या के आधार पर बहुत समय पूर्व चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण की भविष्यवाणी की जाती है और जो पूर्णतया सत्य सिद्ध होती है। परन्तु ऐसी भविष्यवाणी हमारे विषय के सम्बन्ध में नहीं की जा सकती है। राजनीतिविज्ञानी यह नहीं बता सकता कि किस निश्चित विचार का जनता पर क्या असर होगा या किस देश में कब जन असन्तोष फैलकर क्रान्ति लाएगा और कब जन-समर्थन सरकार को मिलेगा। इसी आधार पर बर्क ने कहा था कि, “राजनीति विज्ञान में भविष्यवाणी करना मूर्खता है।“ लॉस्की के भी कहा है कि, “हम अनुभव के आधार पर भविष्यवाणी कर सकते हैं। हमारी भविष्यवाणी तथ्यों के अभाव एवं अनिश्चितता के कारण सीमित है। "
5.कार्य-कारण में निश्चित सम्बन्ध का अभाव -
- विज्ञान की एक विशेषता यह है कि उसमें प्रत्येक कार्य का एक निश्चित और स्पष्ट कारण होता है। उदाहरण के लिए, यदि जल को एक निश्चित मात्रा तक गर्म किया जाए तो वह वाष्प बन जाता है और यदि निश्चित मात्रा तक ठंडा किया जाए तो बर्फ बन जाता है। इसका कोई अपवाद नहीं है । परन्तु राजनीतिविज्ञान में कार्य-कारण का सम्बन्ध इतना स्पष्ट और निश्चित नहीं हो सकता है। यह कहना कठिन होगा कि कौन-सी राजनीतिक घटना किस कारण से हुई? क्योंकि प्रत्येक राजनीतिक घटना के अनेक जटिल कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय स्वतंत्रता के पीछे किसी अकेले कारण को बताना सही नहीं होगा अथवा किसी देश में होने वाली क्रान्ति के पीछे किसी अकेले कारण को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। अतः राजनीतिविज्ञान में कार्य का कारण उतना निश्चित और स्पष्ट नहीं होता है जितना कि प्राकृतिक विज्ञानों में होता है।
6. निश्चित अध्ययन पद्धति का अभाव-
- भौतिक विज्ञानों की अध्ययन पद्धति निश्चित होती है, इस कारण इनका अध्ययन निष्कर्ष सही निकालता है। राजनीति विज्ञान की अनेक अध्ययन पद्धति हैं जिससे इसके परिणाम अनिश्चित होते हैं। इसकी कार्यविधि, प्रक्रिया, आदर्श और निष्कर्ष एक समान नहीं हो पाते हैं। चार्ल्स ए0 बीयर्ड के शब्दों में, “राजनीति और इतिहास के प्रत्येक वर्णन में अस्पष्टता रहती है और रहनी भी चाहिए क्योंकि इनके विद्यार्थी मानव कार्यों का अध्ययन करते समय उस मानसिक दशा में नहीं रहते जिस प्रकार कि भौतिकी की समस्याओं का अध्ययन करते समय मग्न रहते है।"
7. अध्ययन विषय आत्मपरक है, वस्तुपरक नहीं
- प्राकृतिक विज्ञान वस्तुपरक होता है। इसकी अध्ययन वस्तु निर्जीव होने के कारण अनुसंधानकर्ता मानवीय भावनाओं से परे रहते हुए तटस्थता के साथ अध्ययनरत बना रहता है, लेकिन राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय मानव है, अतः यह आत्मपरक होता है। इसलिए अध्ययनकर्ता का तटस्थ रहना बहुत कठिन होता है।
उपर्युक्त तथ्यो के कारण हम राजनीति विज्ञान को अन्य प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों की भाँति विशुद्ध विज्ञान नहीं मान सकते हैं। इसी आधार पर विलोबी का कथन है कि, “राजनीति का विज्ञा बनना न तो सम्भव है और न ही वाछंनीय। " इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिकता का सर्वथा अभाव है।
राजनीति विज्ञान, विज्ञान' है
राजनीति विज्ञान को विज्ञान न मानने के समर्थन में जो तर्क दिए गए हैं उनमें सत्यांश अवश्य हैं, लेकिन वे पूर्णतया सत्य सत्य नहीं हैं। वर्तमान समय के शोधों से राजनीतिक विज्ञान का जिस तीव्र गति से विकास हुआ है तथा इसके अध्ययन के लिए जो वैज्ञानिक अध्ययन पद्धतियाँ प्रयोग की गई हैं, उनसे राजनीतिविज्ञान, विज्ञान सिद्ध होता है। विज्ञान के तत्वों की विवेचना और सूक्ष्म अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि विज्ञान की बहुत-सी मान्यताएँ और तत्व राजनीति विज्ञान पर भी लागू किए जा सकते हैं। राजनीतिविज्ञान के विज्ञान होने के पक्ष में कुछ तथ्य निम्न प्रकार हैं
1. सुस्पष्ट, सुनिश्चित एवं क्रमबद्ध अध्ययन-
विज्ञान का महत्वपूर्ण लक्षण है कि वह क्रमबद्ध ज्ञान होता है। यह लक्षण राजनीतिविज्ञान में भी पूर्ण रूप से पाया जाता है। राजनीतिविज्ञान में राज्य का उद्भव, विकास के चरण, सरकार के प्रकार, अन्य राजनीतिक संस्थाओं, विचारधाराओं का क्रमबद्ध ज्ञान उपलब्ध है। राजनीतिविज्ञान का आज जो भी अध्ययन किया जाता है उसका आधार भूतकालीन ज्ञान ही है। विषय के अधिकांश नियम स्थापित हो गए हैं। इसकी सभी बातों का एक क्रमबद्ध ज्ञान के रूप में अध्ययन किया जा सकता है।
2. पर्यवेक्षण तथा प्रयोग सम्भव -
विज्ञान की भाँति राजनीति विज्ञान में भी बहुत कुछ पर्यवेक्षण एवं प्रयोग सम्भव हैं। राजनीति विज्ञान अपने आप में एक अनूठी तथा विशाल प्रयोगशाला है जहाँ विभिन्न सिद्धान्तों तथा शासन पद्धतियों का सफल परीक्षण एवं प्रयोग किया जा सकता है। राजनीति विज्ञान में तो पर्यवेक्षक एवं प्रयोगों की व्यवस्था रहती है। जैसे लोकतंत्रात्मक तथा अन्य शासन पद्धतियों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति अन्य पद्धतियों की अपेक्षा कहीं अधिक लोकप्रिय एवं लोकहित के प्रति सजग रहती है। संघवाद, बहुलवाद, समाजवाद, साम्यवाद, लोकप्रिय सम्प्रभुता तथा लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा आदि का राजनीति में समावेश एक प्रयोग के तौर पर ही हुआ है तथा उन्हें अत्यधिक सफलता भी प्राप्त हुई है।
यद्यपि इसमें पदार्थ विज्ञानों की भाँति प्रयोगशालाओ में बैठकर पूर्ण निश्चितता एवं सरलता से प्रयोग तो नहीं किये जा सकते, फिर भी राजनीति विज्ञान में प्रयोग होते रहे हैं और होते जा रहे हैं। गार्नर के शब्दों में, “प्रत्येक नवीन कानून का बनना, प्रत्येक नई संस्था का गठन तथा प्रत्येक नई बात का प्रारम्भ एक प्रयोग ही होता है।" भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तर्गत अपनाया गया अहिंसात्मक सत्याग्रह, भारतीय शासन तथा राजनीति में पंचायती राज, सामुदायिक विकास योजना तथा प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना आदि इसी प्रकार के राजनीतिक प्रयोगों के ही उदाहरण हैं।
3. सर्वमान्य नियमों तथा सिद्धान्तों की क्षमता-
राजनीति विज्ञान में भी प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों की भाँति कुछ सामान्य नियम एवं शाश्वत सिद्धान्त हैं। राज्य, विधि, न्याय, शिक्षा तथा क्रान्तियों आदि के सम्बन्ध में कुछ ऐसे सार्वजनिक एवं शाश्वत नियम एवं निश्चित सिद्धान्त हैं जो प्रत्येक परिस्थिति तथा देश में लागू होते है। इनके आधार पर कुछ सामान्य निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं। प्लेटो का न्याय एवं शिक्षा सिद्धान्त, अरस्तू का राज्य वर्गीकरण तथा क्रान्ति का सिद्धान्त, रोमन-विधि सिद्धान्त, बोदों का सम्प्रभुता सिद्धान्त, रूसो तथा लॉक की स्वतंत्रता सम्बन्धी धारणा तथा गाँधी जी के सत्याग्रह सम्बन्धी विचार प्रायः सर्वमान्य तथा शाश्वत सिद्धान्तों के रूप में हैं।
4. कार्य-करण सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है-
पदार्थ विज्ञानों की भाँति राजनीति विज्ञान में भी कार्य-करण सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं। अनुभव यह दर्शाता है कि जब भी कोई शासक अत्याचारी, अनुत्तरदायी एवं क्रूर होता है एवं शासन व्यवस्था जनहितकारी नहीं होती तो वहाँ फ्रांस, रूस, भारत तथा अन्य एशियाई तथा अफ्रीकी देशों की भाँति क्रान्तियाँ तथा विद्रोह अवश्य होते हैं। बंग्लादेश तथा अफगानिस्तान की क्रान्तियाँ इसका एक प्रमुख तथा ताजा उदाहरण हैं । क्रान्ति सम्बन्ध में कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। इस तरह इसमें यद्यपि पदार्थ विज्ञानों की भाँति प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता, फिर भी विशेष घटनाओं के अध्ययन से कुछ सामान्य परिणाम एवं निष्कर्ष तो निकाले ही जा सकते हैं। ब्राइस द्वारा इस तथ्य को स्वीकार किया गया है।
5. भविष्यवाणी की क्षमता-
जहाँ तक भविष्यवाणियों का सम्बन्ध है, इसमें प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति तो भविष्यवाणी नहीं की जा सकती किन्तु इसमें भी भविष्यवाणियाँ हो सकती हैं और बहु सत्य भी सिद्ध होती हैं। उदाहरणार्थ, वर्तमान में देश में होने वाले चुनावों के सम्बन्ध में विभिन्न सर्वेक्षणों द्वारा भविष्यवाणियाँ की जाती रही हैं और बहुत-सी भविष्यवाणियाँ सत्यता की कसौटी पर खरी भी उतरी हैं। डॉ0 फाइनर के मतानुसार, “इसमें हम निश्चिततापूर्वक भविष्यवाणियों नहीं कर सकते किन्तु सम्भावनाएँ तो व्यक्त कर ही सकते हैं। लार्ड ब्राइस के शब्दों में, “भौतिक विज्ञान में भविष्यवाणी निश्चित होती है, राजनीति में सम्भावना से अधिक नहीं।" परन्तु इससे इस विषय के विज्ञान होने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि मौसम विज्ञान की भविष्यवाणियाँ पूर्ण सत्य नहीं होती हैं, लेकिन फिर भी उसे सापेक्ष सत्य के आधार पर ही विज्ञान माना जाता है, यही स्थिति राजनीति विज्ञान की है। लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “राजनीति विज्ञान की तुलना ऋतु विज्ञान जैसे पूर्ण विज्ञान से की जा सकती है।"
मतैक्यता का अभाव एवं परिभाषिक शब्दावली का अभाव होना भी कुछ अधिक सही नहीं माना जा सकता है।
वस्तुतः राजनीति विज्ञान की वैज्ञानिकता के सम्बन्ध में प्रथम पक्ष द्वारा उठायी गयी आपत्तियाँ शंकाएँ बहुत कुछ निराधार एवं बेबुनियाद प्रतीत होती हैं। भौतिक तथा प्राकृतिक विज्ञानों से भिन्न होने के बाद भी राजनीति विज्ञान एक विज्ञान है। अधिकांश राजनीतिक विचारक इसे विज्ञान मानने के पक्ष में हैं।
निष्कर्ष के रूप में हम यही कह सकते हैं कि विज्ञान के दो रूप हैं-सकीर्ण और वृहद् । संकीर्ण विज्ञान प्राकृतिक विज्ञान ही होता है क्योंकि विज्ञान की सत्यता, निश्चितता, क्रमबद्धता एवं प्रयोग की सुविधा प्राकृतिक विज्ञानों में ही मिल सकती है। दूसरी तरफ वृहद् विज्ञान से अभिप्राय है- ज्ञान की वह शाखा जो क्रमबद्ध ज्ञान प्रस्तुत करती है; जैसे- अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा विज्ञान आदि। राजनीति विज्ञान में प्राकृतिक विज्ञान की निश्चितता, शुद्धता, क्रमबद्धता तथा प्रयोग की सुविधा न होते हुए भी इसमें वैज्ञानिक पद्धतियों का प्रयोग, सामान्य सिद्धान्तों का पाया जाना, भविष्यवाणी की सम्भावना पाई जाती है। इसलिए यह विषय वृहद अर्थ में विज्ञान है, लेकिन प्राकृतिक विज्ञान की तरह शुद्ध विज्ञान नहीं है। इसे एक सामाजिक विज्ञान कहा जा सकता है, क्योंकि
1. राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध सामाजिक और राजनीतिक जीवन की जटिल समस्याओं से होता है।
2. मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील एवं जटिल होता है, इसलिए सिद्धान्त के आधार पर इसका अध्ययन नहीं किया जा सकता।
3. 4. राजनीतिविज्ञान पर अचेतन रूप में व्यक्ति के व्यक्तिगत विचारों एवं द्वेषों का प्रभाव होता है। राजनीतिविज्ञानी को अपने विषय के मौलिक पहलू को भी ध्यान में रखना होता है।
उपरोक्त अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजनीतिविज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में न आते हुए भी सामाजिक विज्ञान है। गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “यद्यपि सामाजिक विज्ञानों में प्राकृतिक विज्ञानों जैसी यथार्थता प्राप्त करना कठिन है तथापि सामाजिक समस्याओं पर वैज्ञानिक ढंग से विचार किया जा सकता है जैसा कि रसायनशास्त्र या भौतिकशास्त्र में । " लार्ड ब्राइस ने इसे ऋतु विज्ञान की भाँति अपूर्ण और अविकसित विज्ञान कहा है। सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार, “जिस प्रकार नैतिकता का विज्ञान है, उसी भाव में और उसी तरह अथवा लगभग सीमा तक राजनीति भी विज्ञान है। "
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