राजनीति विज्ञान का उद्भव (Origin of Political Science in Hindi)
राजनीति विज्ञान का
उद्भव
राजनीति विज्ञान की
प्राचीनता एक सर्वमान्य तथ्य है, जिसने प्राचीन काल में प्लेटो व अरस्तू से लेकर वर्तमान युग
तक उल्लेखनीय प्रगति की है। यूनानियों को इसके जनक होने का श्रेय जाता है क्योंकि
यूनानियों ने ही सबसे पहले राजनीतिक प्रश्नों को आलोचनात्मक और तर्क सम्मत चिन्तन
की दृष्टि से देखा।
शब्द राजनीति विज्ञान अंग्रेजी भाषा के शब्द Political Science का हिन्दी
रूपान्तरण है, जिसकी उत्पति
यूनानी भाषा के शब्द पोलिस से हुई है। यूनानी भाषा में पोलिस का अभिप्राय है
नगर-राज्य 500 ई0पू0 पहले यूनानी लोग इन्हीं
छोटे-छोटे नगर राज्यों में ही रहते थे और इन नगर राज्यों की स्थिति एवं राजनीतिक
गतिविधियों से सम्बन्धित ज्ञान को 'राजनीति' (पोलिटिक्स) कहा जाता था। स्पष्ट है कि 'राजनीति' उतनी ही पुरानी है जितना
कि मानव संगठन राजनीति ने सदा ही सामाजिक जीवन में निर्णायक भूमिका निभाई है।
वर्तमान समय में यह भूमिका लगातार बढ़ती ही जा रही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि
प्राचीन यूनानी चिंतन में व्यक्ति, राज्य (नगर- राज्य) और समाज एक दूसरे के पर्याय थे। राजनीति, समाज और व्यक्ति को
निर्देशित करने वाले आदर्श थे- सदगुण, अच्छाई, भलाई और ज्ञान। यानि की राजनीति की यूनानी अवधारणा मुख्य
रूप से नैतिक, दार्शनिक, आदर्शवादी, प्रत्ययवादी और आदर्शमूलक
रही ।
कालान्तर में राजनीति
विज्ञान के जीवन काल में कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव आये जहाँ पर महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए
जैसे यूनानी काल की समाप्ति के बाद रोमन काल, इन दो कालों के राजनीतिक चिन्तन में तात्विक अन्तर देखने को
मिलते हैं। प्राचीन यूनानियों की दार्शनिक अवधारणा से अलग प्राचीन रोमवासियों ने
राजनीति की न्यायवादी या कानूनी व्याख्या दी। उनके लिए राजनीति एक ऐसी गतिविधि थी, जिसका सम्बन्ध 'साम्राज्य' से था। ज्ञातव्य है कि
रोमन काल में शनैः-शनैः नगर राज्य लुप्त होने लगे थे और उनके स्थान पर 'साम्राज्यों' की स्थापना प्रारम्भ हो
रही थी, जिसका नियमन, कतिपय सामान्य और तय
नियमों द्वारा होता था। रोम में राजनीतिक सिद्धान्त में बराबर यह प्रयास रहता था
कि नागरिक कानून को प्राकृतिक कानून के आदर्श के पास लाया जाए। इस प्रकार
पाश्चात्य जगत के राजनीतिक चिंतन / सिद्धान्तों में दार्शनिक और कानूनी दोनों ही
प्रकार की अवधारणा के दर्शन होते हैं।
इसी प्रकार मध्य काल (500 ई0 से 1400 ई0 तक) का राजनीति विज्ञान
अथवा राजनीति, धर्म के चारों ओर
बुनी गई। फलतः राजनीति की मध्ययुगीन संकल्पना (अवधारणा) सामन्तवादी युग में मूलतः
धर्मशास्त्रीय आदेशात्मक और संकीर्ण थी क्योंकि राजनीतिक सत्ता स्वतंत्र नहीं थी, वह चर्च के अधीन थी और
चर्च सवौच्च धार्मिक संगठन था ।
किन्तु पुनर्जागरण व
धर्मसुधार आन्दोलनों से आधुनिक युग शुरूआत ने राजनीति विज्ञान को एक नयी आबो-हवा
दी। राजनीति में धर्म निरपेक्षता का वातावरण, मानव चिन्तन, लौकिक चिन्तन, वैज्ञानिक सोच, तार्किक चिन्तन का जन्म हुआ। औद्योगिक क्रान्ति ने राजनीतिक
चिन्तन में नयी धाराएँ जोड़ दी - व्यक्तिवाद, उदारवाद; किन्तु मार्क्सवादी चिन्तन ने पूँजीवाद का विरोध किया; नया चिन्तन सामने आया-
समाजवाद, साम्यवाद।
मार्क्सवादी चिन्तन ने दुनियॉ दो धड़ों में बॉट दी। कई चिन्तकों को लगा कि राजनीति
विज्ञान ने ऐसा चिन्तन, दर्शन व
सिद्धान्त मार्क्सवाद के रूप में ढूँढ लिया है जो तत्कालीन समस्याओं का एकमात्र
समाधान है। किन्तु ऐसा नहीं हुआ; लगभग 1903 ई0 में शिकागों
विश्वविद्यालय (अमेरिका) के युवा राजनीतिक अध्येताओं ने एक प्रतिक्रियावादी
आन्दोलन शुरू कर दिया।
प्लेटो से लेकर वर्तमान 19वीं शदी के आखिरी वर्षों तक के राजनीतिक चिन्तन
को नकार दिया। घोषणा की कि अभी तक राजनीति विज्ञान में जितना अध्ययन हुआ, उन्होंने जो तकनीकें
अपनायी; सब व्यर्थ और
अनुपयोगी हैं। दरअसल ये समय समाज विज्ञानों के जीवन का वह दौर था, जहाँ सारे सामाजिक विषय 'विज्ञान बनने की दौड़ में
शामिल थे। ऐसे में शिकागों के राजनीतिक अध्यताओं को लगा कि उनका विषय भी 'विज्ञान' बनाया जाये। परिणाम
स्वरूप राजनीति विज्ञान में व्यवहारिकतावादी आन्दोलन का प्रवेश हुआ। यही वह
परिवर्तन सीमा है जिससे पूर्व का राजनीति विज्ञान परम्परागत राजनीति विज्ञान' और जिसके बाद का राजनीति
विज्ञान आधुनिक राजनीति विज्ञान कहलाता है। उल्लेखनीय है लम्बे समय तक राजनीति
विज्ञान, राजनीतिक
सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन
समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयुक्त किये जाते रहे। यद्यपि बाद में कई विद्वानों
ने इनमें भेदक रेखा खींचने का सार्थक प्रयास किया।
एक विषय बरबस ध्यान
खींचता है कि आज जब दुनियॉ 'ग्लोबल विलेज' का रूप ले चुकी है, इंटरनेट जैसी संचार तकनीक फैल चुकी है, ऐसे में राजनीति विज्ञान
और विशेष रूप से आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों की क्या प्रासंगिकता है?
'आधुनिक राजनीतिक
सिद्धान्त' विषय के अन्तर्गत
प्रायः उन सिद्धान्तों का समावेश किया जाता है जिनकी रचना सन् 1903 ई0 के बाद हुई है। यह
अत्यन्त व्यापक क्षेत्र है जिसे निश्चित सीमाओं में बाँध पाना कठिन है।
व्यवहारिकतावादी आन्दोलन से लेकर वर्तमान में नारीवादी आन्दोलन तक सभी इसकी सीमा
में समाये हुए हैं। जहाँ तक विषय की प्रासंगिकता का प्रश्न है इसमें कोई संदेह
नहीं होना चाहिए कि आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त पूर्णतया प्रासंगिक हैं। यद्यपि यह
सत्य है कि समाज विज्ञान होने के नाते इन सिद्धान्तों में उतनी निश्चितता व
स्पष्टता नहीं है जितनी प्राकृतिक विज्ञानों के विषय में होती है।
यद्यपि व्यवहारिकतावाद की
अपनी कुछ कमियाँ रही हैं किन्तु इसने राजनीति विज्ञान को निश्चित रूप से एक नयी
दृष्टि प्रदान की। अब राजनीति में अध्ययन इकाई मनुष्य का राजनीतिक व्यवहार बनाया
गया। वस्तुतः मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार को जाने बगैर राजनीति के सम्बन्ध में लिए
गये निर्णय सदैव असफल होगें। अतः इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है व्यवहारिकतावादी
सिद्धान्त न केवल आज प्रासंगिक है बल्कि सदैव प्रासंगिक रहेगा।
इसी प्रकार यदि डेविड
ईस्टन के व्यवस्था सिद्धान्त को लें तो यह 1950 के दशक, जब इसे ईस्टन ने प्रतिपादित किया, से अधिक आज प्रासंगिक नजर
आता है। मूल्यों का सम्पूर्ण समाज के लिए आधिकारिक आबंटन होना आवश्यक है चूँकि आज
अधिकांश राज्य लोकतांत्रिक रास्ते पर चल रहे हैं। आज यदि मूल्यों का आबंटन
सम्पूर्ण समाज के लिए न होकर किसी वर्ग विशेष के लिए होता है, तो वहीं पर दंगें, हड़ताल, तालाबंदी, जलूस आदि देखने को मिलते
हैं। समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए ऐसे राजनीतिक सिद्धान्तों की नितान्त
आवश्यकता नजर आती है।
संचार क्रान्ति ने आज
दुनियाँ को वैश्विक गाँव में बदल दिया है। ऐसे में संचार की भूमिका विज्ञान में और
अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। किसी भी राजनीतिक व्यवस्था को कब, क्या और कैसे निर्णय लेने
हैं, इसका निर्धारण
पूरी व्यवस्था से प्राप्त सूचनाओं के अनुरूप होता है। | सूचना तंत्र व्यवस्था में
प्राण तत्व रक्त की भाँति है। सही सूचना, सही समय पर सही निर्णय लेने में सहायक होती है। आज आतंकवाद
के बढ़ते नेटवर्क को तोड़ने के लिए सरकार को उससे अधिक बेहतर सूचना तंत्र बनाना
होगा। चाहे मुद्दा आफेन्सिव हो या डिफेन्सिव, दोनों मामलों में सूचना तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है।
कार्ल डायच ने संचार सिद्धान्त की रचना करके न केवल राजनीति विज्ञान को बल्कि
सम्पूर्ण मानव समाज को एक महत्वपूर्ण देन प्रदान की है।
राजनीतिक विकास, राजनीतिक आधुनिकीकरण, राजनीतिक समाजीकरण, राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक भर्ती, राजनीतिक सहभागिता आदि
अनेक ऐसे आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त हैं, जिनकी वर्तमान समाज को पग-पग पर आवश्यकता पड़ती है। चुनावी
मामला हो या विदेश नीति का मामला या कोई अन्य ये सिद्धान्त मार्ग दर्शक की भूमिका
निभाते हैं। आधुनिकीकरण व विकास के मापदण्डों पर कोई देश कैसे पहुँचता है, यह जानकारी हमें यही
सिद्धान्त देते हैं।
विचारधारा, आज एक महत्वपूर्ण विषय है
जो आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों में शामिल किया जाता है। यह एक ऐसा विषय है जो
प्राचीन काल से आज तक हर समय प्रासंगिक बना रहा है। विचारधारा, मानवीय समाज को जोड़ने, एक आदर्श स्थिति तक
पहुँचने का मार्ग, मानव की पूर्णता
की दृष्टि की और इशारा करती है। व्यवहारिक दृष्टि से अपने उद्देश्यों को छिपाने का
यह एक बा विश्व के सभी देश किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित व अनुप्राणित हैं।
चाहे वह मार्क्सवादी हो, फेबियनवादी, पूँजीवादी, साम्यवादी, व्यक्तिवादी, आदर्शवादी, उदारवादी, माओवादी, या गाँधीवादी या कोई अन्य
जैसे फासीवादी, नाजीवादी। इससे
नितांत स्पष्ट है 'विचारधारा' का अध्ययन किये बगैर
राजनीतिक विज्ञान व स्वयं राजनीतिक व्यवस्थाऐं अपूर्ण ही रहेंगी। इधर 1960 के दशक से कुछ विद्वानों
ने विचारधारा के अंत का बिगुल बजाया।
डेनियल बेल यह स्पष्ट किया कि उत्तर
आधुनिकीकरण काल में सभी राज्य आर्थिक विकास व भौतिकवाद की ओर भाग रहे हैं, चाहे वे किसी भी
विचारधारा के क्यों न हों,
ऐसे में
विचारधारा का कोई महत्व नहीं रह जाता और ऐसा लगता है विचारधारा का अंत हो गया है।
किन्तु डेनियल का यह विचार विद्वानों को स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि विश्व आज भी
विचारधाराओं में बॅटा है।
उपरोक्त कुछ उदाहरणों को
प्रस्तुत करने का मन्तव्य केवल इतना है कि 'आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त' विषय आज की परिस्थितियों में अधिक प्रासंगिक हो
गया है। राजनीति विज्ञान 'शासन के संचालन' का दिशायंत्र होता है।
समय-समय पर जिन सिद्धान्तों की आवश्यकता महसूस हुई, उन्हें गढ़ा गया। 'आवश्यकता अविष्कार की
जननी होती है', इस शाश्वत नियम
से राजनीति विज्ञान भी बँधा है और इसके परिणाम भी समय-समय पर सामने आये हैं चाहे
वह राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र हो या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र हो ।
आधुनिक राजनीतिक
सिद्धान्त, ऐसे विषयों से
जुड़ा है, जो न केवल
राजनीतिक अध्येताओं, शोधकर्ताओं व
विद्यार्थियों के लिए लाभदायक हैं बल्कि आम जनता की रूचि के भी हैं, जैसे राजनीतिक भागीदारी, भर्ती, मतदान आदि आम जनता से
जुड़े प्रश्न हैं।
फिर आधुनिक राजनीतिक
सिद्धान्त इस दृष्टिकोण से भी प्रासंगिक हैं कि इनके उद्भव के बाद राजनीतिक
विज्ञान को 'स्वायत्त विषय' के रूप में आवश्यक
सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो गयी। प्रत्येक विषय की स्वायत्ता की यह माँग
होती है कि उसके अपने उपकरण, तकनीके, पद्यतियाँ व सिद्धान्त हों, आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों ने इन माँगों को
पूरा किया है।
आज कोई भी विषय एकांगी
रूप से मनुष्य का सांगोपांग अध्ययन नहीं कर सकता है। अतः राजनीति विज्ञान के नये
परिप्रेक्ष्य में अंतः अनुशासनीय पद्वति पर जोर दिया गया। अंत अनुशासनात्मकता
आधुनिकता का लक्षण है, अतः यह स्वतः
सिद्ध है कि आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त प्रासंगिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
इधर दुनियॉ भर में
विश्वविद्यालयों में जिस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्तों की रचना हेतु बैंच / विभाग
स्थापित किये गये हैं, उनसे भी आधुनिक
राजनीतिक सिद्धान्तों की उपयोगिता स्पष्ट होती है।
आधुनिक राजनीतिक
सिद्धान्त, 'समस्या समाधान' के फार्मूले पर आधारित
है। यहाँ केवल 'आदर्श' की कल्पना नहीं की जाती
बल्कि समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान ढूँढा जाता है। कोई भी अनुशासन जब 'समस्या समाधान' के साथ जुड़ जाता है तो
उसकी प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। आज आधुनिक राजनीति विज्ञान में न्याय, समानता, स्वतंत्रता, क्रान्ति जैसे विषयों पर
चर्चा होती है। समस्या के कारण ढूढे जाते हैं, उनके परिणामों पर चर्चा होती है, फिर समाधान की तलाश शुरू
होती है, तब कहीं राजनीतिक
सिद्धान्त अस्तित्व में आता है, मुद्दा चाहे आरक्षण का हो, लिंगभेद का, नारी - पराश्रितता का या कोई अन्य, हमारे पास आज राजनीतिक
सिद्धान्त है जो इन समस्याओं से निपटने के लिए दिशा निर्देशन करते हैं।
आधुनिक राजनीतिक
सिद्धान्त व्यापक विषय है,
जो अपने कलेवर
में स्थानीय से अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश तक को समेटे हुए है। इस स्थिति में इसकी
प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाना, उचित प्रतीत नहीं होता है।
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