19वीं सदी के उत्तरार्ध में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध करने वाले बुद्धिजीवियों में पंडिता रमाबाई का नाम उल्लेखनीय है जिन्हें प्राय: भारत की प्रथम फेमिनिस्ट की उपाधि से सम्बोधित किया जाता है.
पंडिता रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 में महाराष्ट्र के एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम अनंत शास्त्री डोंगरे था एवं उनकी माता का नाम लक्ष्मीबाई था. आनंद शास्त्री डोंगरे संस्कृत के एक प्रकांड विद्वान् होने के साथ-साथ एक अग्रणी समाज सुधारक थे. जब इन्होंने अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ाना चाहा, तो ब्राह्मणवादी पुरुषवादी मानसिकता के कारण इसका विरोध किया गया एवं इन लोगों को गाँव से निकाल दिया गया. इन्होंने तब जंगलों में रहना शुरू किया एवं इसी दौरान पंडिता रमाबाई का जन्म हुआ.
पंडिता रमाबाई प्रमुख तथ्य
पंडिता रमाबाई के बचपन का नाम रमा डोंगरे था. संस्कृत और वेदों के अच्छे ज्ञान के कारण उनके नाम के आगे पंडिता लगा. इसके साथ ही आगे चल कर उन्हें सात भाषाओं (कन्नड़, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी और हिब्रू इत्यादि में) विशेषज्ञता हासिल हो गई. केशव चंद्र सेन ने इनके ज्ञान से प्रभावित होकर इन्हें पंडिता की उपाधि प्रदान की थी.
महाराष्ट्र में आए एक अकाल के कारण इनके माता-पिता और छोटी बहन का देहांत हो गया जिसके उपरांत वह अपने भाई के साथ कोलकाता गई. पंडिता रमाबाई ने कथाओं और प्रवचन के माध्यम से अपना और अपने भाई का जीवनयापन करना प्रारम्भ किया.
पंडिता रमाबाई की विद्वता ने तत्कालीन बंगाल के ब्राह्मणों में हलचल मचा दी. बंगाल के ब्राह्मण के द्वारा आमंत्रित किए जाने पर उन्होंने अपना भाषण दिया, जिसके उपरांत कोलकाता विश्वविद्यालय ने उन्हें पंडिता और सरस्वती की उपाधि प्रदान की.
आगे चलकर पंडिता रमाबाई ने रूढ़िवादिता पर प्रहार करते हुए एक कायस्थ वकील विपिन बिहारी मेधावी से शादी कर ली. अन्तर्जातीय विवाह होने के कारण तात्कालिक समाज द्वारा इस का प्रखर विरोध किया गया. पंडिता रमाबाई और उनके पति ने बाल विधवाओं के लिए विद्यालय खोलने की योजना बनाई थी, किन्तु जल्द ही उनके पति की मृत्यु हो गई.
अपने पति की मृत्यु के बाद इन्होंने महिला शिक्षा, बाल विवाह एवं विधवाओं के कल्याण हेतु अपने आप को समर्पित कर दिया. पंडिता रमाबाई ने पुणे में आर्य महिला समाज की स्थापना की एवं मिशनरी गतिविधियों में शामिल हो गई.
पंडिता रमाबाई ने तात्कालिक पुरुषवादी एवं ब्राह्मणवादी समाज की परम्पराओं एवं मान्यताओं पर तर्कों के साथ आलोचना करना प्रारम्भ किया एवं महिलाओं की निम्न स्थिति पर सवाल उठाना शुरू किया. उन्होंने न केवल महिलाओं की शिक्षा की वकालत की, बल्कि उन्हें अध्यापन, मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्र में आगे आने की आवश्यकता पर बल दिया. पंडिता रमाबाई द्वारा स्थापित आर्य महिला समाज में लड़कियों की शिक्षा, बाल विवाह को रोकने, विधवाओं के कल्याण इत्यादि के लिए कार्य किया जाता था.
1882 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में आधुनिक शिक्षा हेतु एक कमीशन की स्थापना की जिसमें पंडिता रमाबाई ने सक्रिय भूमिका निभाई एवं अपनी एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने महिला शिक्षकों, महिला डॉक्टरों और महिला इंजीनियरों की आवश्यकता पर बल दिया. इनके द्वारा दिए गए सुझाव महारानी विक्टोरिया तक पहुँचे एवं इनके सुझावों को लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल में ना केवल अपनाया गया, बल्कि आगे चलकर ब्रिटिश सरकार के द्वारा सामाजिक कार्य हेतु पंडिता रमाबाई को 'कैसर-ए-हिन्द' की उपाधि भी दी गई.
पंडिता रमाबाई के प्रयासों का नतीजा था कि 1886 में भारत की प्रथम महिला डॉक्टर बनने की उपलब्धि आनंदीबेन जोशी को हासिल1883 में पंडिता रमाबाई इंगलैण्ड गई। और वहाँ पर जाकर ईसाई धर्म का अध्ययन किया. कुछ समय बाद ईसाई धर्म को अपना लिया एवं स्वयं को शैक्षणिक कार्यों से जोड़ लिया. उनके इस कदम पर तात्कालिक लोगों के द्वारा काफी आलोचना की गई, लेकिन वहीं दूसरी ओर ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले दम्पत्ति जैसे लोगों ने रमाबाई का समर्थन किया.
पंडिता रमाबाई ने ब्रिटेन प्रवास के दौरान 'द हाई कास्ट हिंदू विमेन'पुस्तक को लिखा, जिसमें उन्होंने एक हिन्दू महिला होने के दुष्परिणामों के वृहद रूप में चर्चा की. इस पुस्तक में बाल विवाह, सती प्रथा, जाति प्रथा, शिक्षा से वंचित किया जाना इत्यादि जैसे मुद्दों को शामिल किया गया. 1886 में पंडिता रमाबाई अमरीका पहुँची. उल्लेखनीय है कि जब स्वामी विवेकानंद शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अपना व्याख्यान दिया, तब वहाँ पर रमाबाई की अगुवाई में कई महिलाएं उनके खिलाफ प्रदर्शन करते हुए यह प्रश्न उठाया कि यदि हिन्दू धर्म इतना महान् ही है, तो वहाँ पर महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? इसके साथ ही स्वामी विवेकानंद के भाषण में महिलाओं की अनदेखी पर भी पंडिता रमाबाई के द्वारा उठाए गए. पंडिता रमाबाई ने स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान पर टिप्पणी करते हुए कहा कि "वह हिन्दू धर्म के बाहरी खूबसूरती को बौद्धिक विमर्श एवं बाहर की खूबसूरती से न देखें, बल्कि उस भव्य धर्म के नीचे काली गहरी कोठरिया को भी देखें जहाँ पर महिलाओं और निम्न जातियों पर शोषण किया जाता है."
उल्लेखनीय है कि स्वामी विवेकानंद और पंडिता रमाबाई के बीच व्यापक असहमति थी. हालांकि दोनों तात्कालिक मुद्दों पर अपने विचारों को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे जहाँ स्वामी विवेकानंद धर्म की तार्किक व्याख्या कर रहे थे वहीं पंडिता रमाबाई महिला अधिकारों की वकालत कर रही थीं.
पंडिता रमाबाई के प्रयासों के फलस्वरूप अमरीका में रमाबाई एसोसिएशन' की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य भारत में चल रहे विधवा आश्रम के लिए संसाधनों को इकट्ठा करना था. बाद में उन्होंने भारत लौटकर विधवाओं हेतु समर्पित 'शारदा सदन' की स्थापना की. इसके साथ ही उन्होंने महिलाओं को सहारा देने हेतु 'कृपा सदन' नाम के एक महिला आश्रम को स्थापित किया.
जीवन भर महिला अधिकारों एवं भारत के सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध प्रखर आवाज उठाने वाली पंडिता रमाबाई की मृत्यु 5 अप्रैल, 1922 हो गई.
इनकी लोकप्रियता के कारण ब्रिटिश सरकार के द्वारा सामाजिक कार्य हेतु पंडिता रमाबाई को 'कैसर-ए-हिन्द' की उपाधि भी दी गई. इनके जीवन के संघर्ष को देखते हुए शुक्र ग्रह के एक क्रेटर का का नाम रमाबाई मेधावी रखा गया. इसी के साथ यूरोपियन चर्च के द्वारा 5 अप्रैल को उनकी याद में फीस्ट डे मनाया जाता है. भारत सरकार के द्वारा 1989 में रमाबाई की स्मृति में एक डाक टिकट चलाया गया.
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