27 जनवरी, 1886 को तत्कालीन बंगाल प्रांत में जन्मे राधाविनोद पाल अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय विधिवेत्ता और न्यायाधीश थे. उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज और कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा ली थी और उसके बाद 1923 से 1936 तक वह इसी विश्वविद्यालय में अध्यापक भी रहे थे. वर्ष 1941 में उन्हें कोलकाता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया था. इसके अलावा वह अंग्रेजों के सलाहकार भी रहे थे.
राधाविनोद पाल प्रमुख तथ्य
दूसरे विश्वयुद्ध के समय वर्ष 1945 में जापान को भारी तबाही का सामना करना पड़ा. इस युद्ध के खत्म होने के बाद, संयुक्त राष्ट्र अमरीका, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने जर्मनी और जापान के नेताओं और कुछ अन्य युद्ध अपराधियों को सजा देना चाहते थे. इसलिए इन देशों ने युद्ध की समाप्ति के बाद 'क्लास ए वार क्राइम्स' नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के विरुद्ध अपराधी माना गया.
इसे लागू करने के लिए जापान में 'इंटरनेशनल मिलिट्री ट्रिब्यूनल फॉर द फार ईस्ट' (आईएमएफटीई) ने संयुक्त राष्ट्रों से न्यायाधीशों की एक टीम बनाई, जिन्हें इन अपराधियों की सजा तय करने के लिए टोक्यो लाया गया और फिर शुरू हुआ 'टोक्यो ट्रायल्स'. वही जर्मनी में इसी तर्ज पर में 'नूर्नबर्ग ट्रायल्स' शुरू हुआ.
डॉ. पाल को इसमें बतौर न्यायाधीश नियुक्त किया गया. उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था. उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था और यहीं से राधाविनोद पाल को वैश्विक पहचान मिली.
कुल 11 जजों में वह इकलौते ऐसे जज थे, जिन्होंने ये फैसला किया था कि सभी युद्ध अपराधी निर्दोष हैं. इन युद्धबंदियों में जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो सहित 20 से ज्यादा अन्य नेता और सैन्य अधिकारी शामिल थे.
न्यायाधीश पाल ने अपने फैसले में लिखा था कि किसी घटना के घटित होने के बाद उसके बारे में कानून बनाना उचित नहीं है और इसीलिए उन्होंने युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाने को विश्वयुद्ध के विजेता देशों की जबर्दस्ती बताते हुए सभी को छोड़ने का फैसला सुनाया था. हालांकि, अन्य जजों ने उन्हें मृत्युदंड दिया था. यही वजह है कि जापान में उन्हें आज भी एक महान् व्यक्ति की तरह सम्मान दिया जाता है.
इस मुकदमे की शुरूआत से ही ट्रायल के बारे में न्यायाधीश पाल ने अपना कानूनी दृष्टिकोण रखा. मुकदमे में कई पहलुओं को देखने का उनका नजरिया बाकी न्यायाधीशों से अलग था, क्योंकि वे एक राष्ट्रवादी थे और भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का भी समर्थन करते थे.
उनका मानना था कि इस ट्रायल के जरिए अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक न्याय के नाम पर संयुक्त राष्ट्र खुद को सही और जापान को गलत साबित कर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन्होंने 'दुष्टों' पर धार्मिक विजय प्राप्त की है. साथ ही, कहीं न कहीं वे एशिया पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश में थे.
इस सबसे असन्तुष्ट पाल ने लिखा था कि मानवता और शांति के खिलाफ इन्हें आरोपी साबित करने की यह कानूनी प्रक्रिया मात्र एक दिखावा है. इसके साथ ही उन्होंने जापान की क्रूरता को भी नहीं नकारा, बल्कि उन्होंने युद्ध के दौरान जापान के अत्याचारों (जैसे नानजिंग नरसंहार) को अमानवीय बताते हुए कहा कि इन सभी आरोपियों को क्लास-बी (युद्ध अपराध) और क्लास-सी (मानवता के विरुद्ध) के अन्तर्गत दोषी मानना चाहिए.
पाल ने संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु बम विस्फोटों की भी स्पष्ट रूप से आलोचना की और उनकी तुलना नाजी अपराधों से की.
न्यायाधीश पाल की असहमति जापान का साथ देने के लिए नहीं थी, बल्कि इसलिए थी कि वे मानते थे इस ट्रायल में कई कमियाँ हैं और इससे कभी भी उचित न्याय नहीं हो पाएगा.
इस ट्रायल के बाद पाल को संयुक्त राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय कानून आयोग के लिए चुना गया, जहाँ उन्होंने 1952 से 1966 तक अपनी सेवा दी.
80 वर्ष की उम्र में 10 जनवरी, 1967 को उनका निधन हो गया.
इतना ही नहीं, वर्ष 1966 में उन्हें जापान के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया.
जापान में उनकी प्रशंसा और सम्मान में कई पुस्तकें प्रकाशित हुई. वर्ष 2007 में, एनएचके (जापानी पब्लिक ब्रॉडकास्टर) ने उनके जीवन पर आधारित 55 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री भी जारी की थी. उनका नाम हमेशा ही भारत और जापान के बीच रिश्ते की सबसे मजबूत कड़ी रहा है.
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