राजनीति विज्ञान का दर्शन समाजशास्त्र इतिहास अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान से सम्बन्ध |Relation of Political Science with other Social Sciences
राजनीति विज्ञान का दर्शन समाजशास्त्र इतिहास अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान से सम्बन्ध
राजनीति विज्ञान का अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध
- राजनीति विज्ञान के अध्ययन में अन्य विषयों का सहयोग लेने की परम्परा बहुत प्राचीन है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। प्लेटो की उन समस्याओं के समाधान में बहुत अधिक रूचि थी जिनका सम्बन्ध कुटुम्ब की संरचना तथा शिक्षा की प्रकृति से था। इसका कारण यह था उसकी दृष्टि में कुटुम्ब तथा शिक्षा का महत्व उस आदर्श राज्य के निर्माण में बहुत अधिक था जिसकी वह कल्पना कर रहा था। अरस्तू को समाज में धन तथा प्रतिष्ठा के विभाजन की उतनी ही चिन्ता थी जितनी कि इस बात की थी कि राज्य का संविधान किस प्रकार का हो। लॉक, हीगल तथा मण्टेस्क्यू जैसे विचारकों ने भी मात्र राजनीति विज्ञान तक ही अपने विचारों को सीमित नहीं रखा था वरन् नीतिशास्त्र से सम्बद्ध प्रश्नों पर भी गम्भीरता से विचार किया था। कार्ल मार्क्स ने यह प्रयास किया था कि राजनीतिक व्यवहार का मुख्य स्रोत तकनीकी विकास तथा वर्ग संरचना के स्तर में खोजा जाना चाहिए। इन समस्त प्रश्नों का समाजशास्त्र से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था।
- वस्तुतः उन्नीसवीं सदी के अन्त तक ज्ञान को पृथक-पृथक शास्त्रों में विभाजित नहीं किया गया था। वे एक-दूसरे में सम्पूर्ण रूप से समायोजित थे। इसका मूल कारण यह था कि अर्थशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, मानवशास्त्री तथा समाजशास्त्री भी राजनीति विज्ञान के विद्वानों के समान ही मानवीय समस्याओं के अध्ययन में रूचि ले रहे थे। यद्यपि उनके दृष्टिकोण परम्पर भिन्न थे। सन् 1890 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग की स्थापना के बाद भी विभिन्न विषयों के विद्वान राजनीति विज्ञान की गतिविधियों से जुड़े रहे। मैक्स वेबर, रॉबर्ट मिचेल्स, विल्फ्रेड पैरेटो और दुर्खीम जैसे समाजशास्त्री राजनीतिक विश्लेषण को भी अपने अध्ययन का अंग बनाये हुए सन् 1908 में ग्राहम वालास की पुस्तक 'Human Nature in Politics' एवं आर्थर बेन्टले की पुस्तक 'The Process of Government' के प्रकाशन ने इस विचारधारा को और अधिक पुष्ट किया कि राजनीति विज्ञान का अन्य सामाजिक विज्ञानों से घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि इन पुस्तकों में राजनीतिक प्रक्रियाओं का विवेचन मनोविज्ञान का आश्रय लेकर किया गया था। इन पुस्तकों ने इस विचारधारा की भी पुष्टि की कि मनुष्य का राजनीतिक व्यवहार उसके सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक व्यवहार से अनिवार्यतः प्रभावित होता है और उन्हें प्रभावित करता है। इसी प्रकार किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था उसकी सामाजिक, आर्थिक, नैतिक आदि व्यवस्थाओं से अनिवार्यतः प्रभावित होती है और उन्हें प्रभावित करती है। इसीलिए राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति के प्रणेताओं ने मानव व्यवहार के अध्ययन के लिए 'अन्तर अनुशासनात्मक' दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप राजनीति विज्ञान का अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध और अधिक घनिष्ठ हो गया है।
1 राजनीति विज्ञान और दर्शन
- मानवीय और सामाजिक जीवन में दर्शन का महत्व स्पष्ट है। जी0टी0 राजू ने सही कहा है कि 'दर्शन' जीवन का प्रकाश स्तम्भ है। यह जीवन और विचारों को गहराई से जोड़ता है। इसीलिए राजनीति विज्ञान को दर्शन से सचमुच बहुत लाभ मिलता है। यह राजनीतिक दर्शन ही है जिसमें राज्य और राजनीतिक जीवन के स्वरूप, राजनीतिक दायित्व के आधार और विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की गुणवत्ता की जाँच की जाती है और सार्वजनिक जीवन के लक्ष्य निर्धारित करने के लिए दर्शन और इतिहास की विधियों का प्रयोग किया जाता है। राजनीतिक दर्शन के कारण ही राजनीति विज्ञान को दृष्टि और संकल्पना का मूल ढाँचा प्रदान होता है। विचारधाराओं के मतभेद के बावजूद प्लेटो, अरस्तू, कौटिल्य, मनु, मैकियावेली, हॉब्स, लॉक रूसो, मिल, हीगल, ग्रीन, मार्क्स और गाँधी आदि महान विचारकों ने विभिन्न राष्ट्रीय समाजों के राज्यों और शासनों को आधार प्रदान किया है। असल में दर्शन द्वारा निर्धारित विचारों और मानदंडों के सन्दर्भ में ही विशेष मूलभूत संकल्पनात्मक राजनैतिक कार्यों को अच्छी तरह समझा जा सकता है। इस दृष्टि से दर्शन विज्ञान के साथ सकारात्मक रूप में जुड़ा हुआ है। दर्शन से विज्ञान का नाता टूटने पर विज्ञान माध्यम मात्र रह जाता है, तब विज्ञान अपनी प्रासंगिकता खो देता है। इसलिए, राजनीति दर्शन राजनीति विज्ञान के लिए जरूरी है। दर्शन के बिना राजनीति विज्ञान सत्ता का विज्ञान बन जाता है और एक ऐसा साधन बन जाता है, जिसकी सहायता से गलत और सही सभी प्रकार के उपायों से सत्ता को हथियाया जाए। यह मात्र सत्ता का राजनैतिक सिद्धान्त बनकर रह जाता है। इसलिए, यह जरूरी है कि इन दोनों के बीच संतुलन बनाये रखा जाए।
2 राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्रः
समाजशास्त्र अन्य सामाजिक
विज्ञानों का जनक कहलाता है। यह एक सामाजिक विज्ञान है, जिसमें सामाजिक जीवन के
सभी मूलभूत विषयों का अध्ययन होता है, जो मानव के क्रमिक विकास से सम्बनिधत होताहै। यह समाज की
उत्पत्ति, उसके विकास, सामाजिक रीति-रिवाजों आदि
का अध्ययन करता है। इसके अन्तर्गत राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक इत्यादि सभी पहलू आ जाते हैं। अतएव कहा जा सकता है
कि समाजशास्त्र सभी समाज विज्ञानों का जनक है। राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र
एक-दूसरे के पूरक हैं। यह निम्न प्रकार स्पष्ट होता है:
1.राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्रीय तत्वों से बँधा हुआ है:-
समाजशास्त्र मानव जीवन के वंशीय, जातिगत, धार्मिक और राजनीतिक पहलुओं की विवेचना करता है इसीलिए राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र की उपेक्षा नहीं कर सकता। राज्य अथवा सरकार का समाजशास्त्र से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है। समाजशास्त्र यह बताता है कि राज्य संस्था का विकास मानव की कुछ नैसर्गिक प्रवृत्तियों का परिणाम है। इन प्रवृत्तियों को बल मुख्यतः इन तत्वों से मिला है- रक्त सम्बन्ध, धार्मिक विश्वासों की एकता, आर्थिक आवश्यकतएं तथा युद्ध और विजय। समाजशास्त्र के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि प्रारम्भ में राज्यों का स्वरूप अत्यन्त सरल था किन्तु धीरे-धीरे उनके स्वरूप और कार्य क्षेत्र में वृद्धि होती चली गयी। एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स ने सामाजिक संरचना को अपने अध्ययन का आधार बनाया था। आधुनिक युग में रिचर्ड टॉनी, मैक्स वेबर (1864-1920), राबर्टो मिशेल्स(1876-1936), विल्फ्रेडो पैरेटो (1848-1923) और इमील दुर्खीम ( 1858 - 1919),मोस्का, कार्लमैनहाइम लासवैल और डेविड ईस्टन ने राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन के लिए समाजशास्त्र की विषय-वस्तु का सफलता पूर्वक उपयोग किया है। उन्होंने विस्तारपूर्वक यह समझाया है कि ‘धर्म” का पूँजीवाद से क्या सम्बन्ध है, मजदूर वर्ग राजनीति को किस प्रकार प्रभावित करता है, शक्ति का राजनीति से क्या सम्बन्ध है तथा समाज की संरचना मतदान को किस प्रकार प्रभावित करती है। उदाहरणार्थ, शहरी मतदाताओं के आचरण को समझने के लिए हमें मुख्य रूप से इन बातों को जानना होगा- शहरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ, शिक्षित बेरोजगारी, श्रमिक संख्या में हो रही वृद्धि तथा पानी, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ। इसी प्रकार ग्रामीण राजनीति को जातीय और धार्मिक विभिन्नताओं तथा कृषि भूमि के स्वामित्व के सन्दर्भ में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है।
2.सामाजिक सन्तुलन एवं सामंजस्य लाने में समाजशास्त्र की भूमिका:-
समाजशास्त्र के आधार पर सामाजिक
संघर्षों को समझने में सहायता मिलती है। फलस्वरूप राज्य इस तरह की नीतियाँ
निर्धारित कर सकता है जिससे सामाजिक न्याय लाने में सहायता मिले और समाज में
सन्तुलन व सामंजस्य स्थापित हो सके। सभी देशों और विशेषकर भारत में जहाँ
भिन्न-भिन्न धर्मों और जातियों के लोग निवास करते हैं, राजनीतिज्ञों के सामने एक
बड़ा प्रश्न राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करने का उठता है। इस दृष्टि से
समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत आँकड़े हमारा पर्याप्त मार्गदर्शन कर सकते हैं।
3. सार्वजनिक निर्णयों को प्रभावी बनाने में समाजशास्त्र की भूमिका :-
राजनीति विज्ञान का एक कृत्य
सार्वजनिक निर्णयों तक पहुँचना है। ये निर्णय तभी प्रभावशाली हो सकते हैं जब
सम्बन्धित समूहों की सामाजिक प्रेरणाओं को ध्यान में रखा जाए। किसी भी सामाजिक
कार्यवाही का सम्भावित प्रत्युत्तर क्या होगा और उसकी सफलता की कितनी सम्भावनाएँ
हैं- यह निश्चित करने के लिए लोगों की मूल्य-परम्पराओं, अभिवृत्तियों, स्वभाव, मान्यताओं और
पूर्वाग्रहों की जानकारी जरूरी होती है। इस प्रयत्न में समाज विज्ञान विशेष रूप से
सहायक सिद्ध होता हैं। देखा जाए तो आज का राजनीति विज्ञान औपचारिक प्रक्रियाओं और
संस्थाओं के अध्ययन से आगे बढ़कर अनौपचारिक संगठनों और प्रक्रियाओं को समझने के लिए
तत्पर है और इसके लिए समाज विज्ञान का सहारा लेना जरूरी हो जाता है।
4. राजनीतिक विश्लेषण और राजनीतिक संस्थाओं का समाजशास्त्र पर प्रभावः-
राजनीतिक विश्लेषण और विभिन्न
राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन से समाजशास्त्र को काफी मदद मिली है। जैसे समाज के
सन्दर्भ में राज्य ने निरन्तर समाज वैज्ञानिक विश्लेषण की विधियों को नियंत्रित
किया है। समाज विज्ञानी शासन को उच्चतम सामाजिक संस्था के रूप में मान्यता देते
हैं, क्योंकि शासन
समाज को दिशा देने और सामाजिक व्यवहार को नियमित करने की क्षमता होती है। आजकल तो
राज्य का कार्य-क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक हो गया है। विवाह, सम्पत्ति तथा पारिवारिक
व्यवस्था, जिनका
समाजशास्त्र से बहुत निकट का सम्बन्ध है, राज्य द्वारा नियमित होने लगे हैं। उदाहरणार्थ- परिवार
नियोजन और दहेज सम्बन्धी सरकारी नीतियों ने भारतीय परिवार और विवाह प्रथा को काफी
सीमा तक प्रभावित किया है।
निःसन्देह राजनीति
विज्ञान और समाजशास्त्र में राजनीतिक समाज विज्ञान का उद्भव हुआ है जिसने राजनीतिक
व्यवस्था, राजनीतिक विकास, राजनीतिक आधुनिकीकरण और
राजनीतिक संस्कृति के रूप में संकल्पनात्मक ढाँचों के तौर पर राजनीति विज्ञान के क्षेत्र
में अभूतपूर्व योगदान किया है।
राजनीति विज्ञान और समाज विज्ञान के बीच के कुछ महत्वपूर्ण अन्तर
परन्तु राजनीति विज्ञान
और समाज विज्ञान के बीच के कुछ महत्वपूर्ण अन्तर भी है, जिन्हे ध्यान में रखना
आवश्यक है।
1.समाजशास्त्र का क्षेत्र
राजनीति विज्ञान की अपेक्षा बहुत अधिक विस्तृत है। समाजशास्त्र सामाजिक जीवन के
विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है किन्तु राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध केवल राज्य, सरकार और राजनीतिक
संस्थाओं से ही है। सामाजिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का
समाजशास्त्र से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है किन्तु राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत हम इन
विषयों का विस्तृत अध्ययन नहीं करते।
2.राज्य-संस्था के उदय से
पूर्व भी समाज विद्यमान था और राज्य की स्थापना से पूर्व ही मनुष्यों ने अनेक
प्रकार के सामाजिक सम्बन्ध एवं सामाजिक बन्धन उत्पन्न कर लिये थे। समाजशास्त्र इन
सम्बन्धों तथा आदिम मनुष्यों के रीति-रिवाजों व परम्पराओं की विस्तार से विवेचना
करता है किन्तु राजनीति विज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र इनसे सर्वथा भिन्न है।
3 राजनीति विज्ञान और इतिहासः
- हिस्ट्री (इतिहास) मूलतः ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है जॉच पड़ताल से ज्ञान प्राप्त करना या सीखना । सरल शब्दों में इतिहास मानव और समाज के अतीत के अनुभवों का बौद्धिक विश्लेषण और निर्वचन है। यह क्रमिक विकास का विवरण प्रस्तुत करने वाला मानव समुदाय के विकास की कहानी है, यह मनुष्य के न केवल बौद्धिक, बल्कि आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक दशाओं के साथ ही उनके विकास, संगठन तथा पारस्पिरिक सम्बन्ध का भी वर्णन प्रस्तुत करता है, जहाँ तक राजनीति विज्ञान और इतिहास के सम्बन्ध का सवाल है, तो कहा जा सकता है कि इन शास्त्रों में काफी पुराना सम्बन्ध रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि एक के अभाव में दूसरे का अध्ययन सम्भव नहीं है। कुछ विद्वानों जैसे सीले, बर्गेस आदि ने राजनीति विज्ञान और इतिहास के बीच पारस्परिक निर्भरता के सम्बन्ध में चर्चा की है।
सी का कथन है कि,
“राजनीति को यदि इतिहास के अध्ययन से परिष्कृत न किया जाये तो वह अशिष्ट बन जाती हैं और यदि इतिहास राजनीति से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर ले तो वह कोरा साहित्य रह जाता है।"
लॉर्ड ब्राइस के कथनानुसार,
“राजनीतिशास्त्र 'इतिहास' और 'राजनीति' के मध्य स्थित है। इतिहास से हम जो शिक्षा ग्रहण करते है, उसका राजनीतिक संस्थाओं को सुधारने के लिए उपयोग किया जाता है।"
स्टर्ले ने ‘द स्टडी ऑफ
हिस्ट्री' नामक अपनी पुस्तक
में कहा है कि इतिहास की उपयोगिता इस बात में है कि मानवता और सभ्यताओं के पिछले
अनुभवों से सीख लेकर मनुष्य अपने मन को अनुशासित करें। इस प्रकार के अनुशासन से
मनुष्य अपने अस्तित्व को बेहतर ढंग से समझ सकता है और इसके फलस्वरूप अपने जीवन को
खुशियों से भरपूर बना सकता है।
राजनीति विज्ञान के लिए इतिहास की सामग्री अनेक प्रकार से उपयोगी है, जिसे निम्न रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-
1. राजनीतिक संस्थाओं के ऐतिहासिक विकास को जानना आवश्यक:-
सर्वप्रथम यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि राज्य एवं राजनीतिक संस्थाएँ इतिहास की देन है । प्राचीनकाल में राज्य का स्वरूप क्या था? वर्तमान समय में जो राज्य का स्वरूप है वह क्रमिक विकास का परिणाम कहा जा सकता है। प्राचीनकाल में सरकारों का स्वरूप क्या था और आज के दौर में क्या है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इतिहास के माध्यम से ही प्राप्त किया जाता है। गार्नर ने कहा है है कि, “इतिहास हमें ऐसी सामग्री प्रदान करता है जिसके द्वारा हम राजनीतिक संस्थाओं के विगत तथा वर्तमान स्वरूपों की 'तुलना' कर सकते हैं और इस तुलना के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाल सकते है। “
2. इतिहास राजनीति विज्ञान के भावी आदर्शों तथा सिद्धान्तों को निर्धारित करता है:-
इतिहास मानव की सफलताओं का संग्रह तो है ही, साथ ही उसकी विफलताओं की भी जानकारी देता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि इतिहास राजनीति विज्ञान का शिक्षक है। अतीत में शासकों द्वारा जो नीतियाँ अपनाई गई उसका क्या परिणाम रहा। कहीं अकबर की नीति की सफलता तो कहीं दूसरी ओर औरंगजेब की धार्मिक नीति की असफलता रानजीतिज्ञों को शिक्षा देती हैं कि लौकिक राज्य की सफलता निश्चित है। जबकि धार्मिक कट्टरता का दौर अधिक चलने वाला नहीं। यही कारण है कि इतिहास में जो अतीत की घटनाओं का जिक्र है उस पर राजनीतिज्ञ सतर्क रहते है। यही कारण है कि धार्मिक अत्याचारों से समाज में उत्पन्न संकटों को ध्यान में रखकर ही राजनीतिक विज्ञानियों द्वारा धर्म निरपेक्ष राज्य के सिद्धान्त को जोर सोर से वर्तमान में प्रसारित किया गया है। इसी प्रकार इतिहास ने बताया है कि जिन देशों में नागरिक सरकारें कुशल व सक्षम नहीं होतीं, जिन देशों में गरीबी मिटाने के प्रयास नहीं किये गये हैं, वहाँ बढ़ती हुई गरीबी और सामाजिक अत्याचार ने लोकतंत्रीय संस्थाओं का जीवन खतरे में डाल दिया है। इतिहास की इस शिक्षा की ओर यदि राजनीतिक नेताओं ने ध्यान नहीं दिया तो लोकतंत्र का ढाँचा लड़खड़ा कर टूट जायेगा ।
यहाँ
इतिहास की कुछ ऐसी शिक्षाओं का उल्लेख आवश्यक हो जाता है, जो राजनीति विज्ञान के
सिद्धान्तों को निरूपित करने में सजगता का संदेश देती है :
१. निरंकुश राजतंत्र एक अभिशाप है।
२. सुप्रसिद्ध विद्वान हरदयाल के शब्दों में, “साम्राज्यवाद के कारण जिन देशों की स्वतंत्रता छिन जाती है, उनका तो अधःपतन होता ही है, स्वयं साम्राज्यवादी देशों के लिए भी साम्राज्य नीति हितकर नहीं है।“ आधुनिक साम्राज्यवादी शक्तियों को एशिया व अफ्रीका के मुक्ति आन्दोलनों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, ताकि संसार को व्यर्थ के रक्तपात से बचाया जा सके।
३. जिन देशों में नागरिक सरकारें कुशल व सक्षम नहीं होतीं, उन देशों की राजनीति में सैनिक हस्तक्षेप की सम्भावना बढ़ जाती हैं।
४. यदि समाज के किन्ही वर्गों को यत्नपूर्वक 'राजनीतिक सत्ता' से वंचित रखा जाता है तो ये वर्ग हिंसक साधनों से सत्ता हथियाने का प्रयत्न करते हैं।
3.इतिहास भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों के बीच एक सूत्र स्थापित करता है :-
इतिहास भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीनों के बीच एक सूत्र
स्थापित करता है तथा राजनीतिक वैज्ञानिकों के विचार क्षितिज को विस्तृत बनाने का
काम करता है। राजनीतिक विचारों और राजनीतिक दर्शन को इतिहास की संरचना में छिपी
प्राचीन परम्पराओं के साथ बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। राजनीतिक विचारों का
इतिहास ही हमें रोजमर्रे की राजनीतिक गतिविधियों के 'मापदंड' या 'उपाय' प्रदान करता है। जब कभी
राजनीतिक सत्ता का प्रश्न आएगा, मैक्यिवेली को नहीं भुलाया जा सकेगा, य मानव और समाज के बीच
अन्योन्याश्रित 'सम्बन्ध' की बात उठेगी तो हॉब्स, लॉक और रूसो की उपेक्षा
नहीं की जा सकेगी; जब कभी समाज की
विषमताओं और भौतिक आवश्यकताओं का सवाल आएगा, कार्ल मार्क्स के योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा। आज की
वर्तमान व्यवस्था को निश्चित रूप से प्रभावित करने वाले ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तियों
के और भी बहुत से उदाहरण दिये सकते हैं। अमल रे और मोहित भट्टाचार्य के शब्दों में
कहा जा सकता है कि, . हमें इतिहास बोध
कराता है- ऐतिहासिक परिदृश्य प्रदान करता है। यह हमें सिखाता है कि घटनाएँ अपने आप
में मात्र घटनाएँ नहीं होतीं, बल्कि वे अनंत क्रम की कड़ियाँ होती है।" इतिहास कई
विकल्प प्रस्तुत करता है और राजनीति उनमें से सबसे सही विकल्प का चुनाव कर लेती
है। इसी अर्थ में, आनुभव विश्लेषण
के लिए भी, इतिहास एक भव्य
विश्लेषणात्मक पृष्ठभूमि प्रदान करता है। इसलिए वर्तमान प्रवृत्तियों और सम्बद्ध
विषयों के विवेचन के लिए विभिन्न समाजों का ऐतिहासिक लेखा-जोखा लिया जाता है। यही
भविष्य कालीन प्रवृत्तियों हेतु भी प्रयुक्त होता है।
इतिहास भी अपनी तरह से राजनीति और राजनीतिक विश्लेषण का ऋणी है। इतिहास लेखन में राजनीतिक विषय और संकल्पनात्मक ढाँचे इतिहासकार को काफी प्रभावित करते हैं। तभी सीले लिखता है कि, "इतिहास की शिक्षा के आधार पर राजनीतिक संस्थाओं के स्वरूप को सुधारने या परिष्कृत करने का प्रयास किया जाना चाहिए, वहीं वह यह भी कहता है कि इतिहास से यदि राजनीतिक घटनाओं को निकाल दिया जाये तो वह केवल साहित्य जगत की वस्तु बनकर रह जाता है? जैसे सामन्तवाद, राज्य के दैवी सिद्धान्त तथा राजा और धर्मसंघों के संघर्ष का अध्ययन किये बिना मध्ययुग के इतिहास का हमारा ज्ञान अपूर्ण रह जायेगा। इसी प्रकार यदि हम साम्राज्यवाद, राष्ट्रीयता, लोकतंत्रवाद और विभिन्न देशों के मुक्ति आन्दोलनों का अध्ययन न करें तो आधुनिक युग का इतिहास हमें निष्प्राण प्रतीत होगा। बीसवीं सदी के भारत के इतिहास का अध्ययन करने लिए यह आवश्यक है कि हम विश्व शासन तंत्र इण्डियन नेशनल कांग्रेस, मुस्लिम लीग, साम्प्रदायिक राजनीति तथा भारतीय साम्यवादी दल के कार्यों, सन् 1919 तथा सन् 1935 के भारत शासन अधिनियमों, राष्ट्रवादी नेताओं के चमत्कारी नेतृत्व, राजनीतिक आन्दोलनों, दल-बदल की राजनीति, क्षेत्रीय राजनीतिक गतिविधियों और अन्य अनेक राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन करें। इन राजनीतिक घटनाओं और राजनीतिक विचारधाओं ने इतिहास की गति को समय समय पर नया मोड़ दिया है।
निष्कर्ष स्वरूप कहा जा
सकता है कि राजनीति विज्ञान एवं इतिहास कभी-कभी दोनों एक-दूसरे के पूरक हो जाते
हैं, लेकिन ज्यादातर
ये दोनों दो स्वायत्त हैं। राजनीति विज्ञान और इतिहास के परस्पर घनिष्ठता को प्रकट
करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि वर्तमान और भविष्य की समस्याओं पर केवल भूतकाल
के परिणामों के आधार पर ही विचार न किया जाये। प्रत्येक समस्या पर विचार करते समय
नयी परिस्थितियों और जनता के बदले मनोभावों को भी दृष्टिगत रखा जाय। तभी इतिहास, राजनीति विज्ञान के विकास
में महत्वपूर्ण योगदान दे सकेगा। कार्ल फ्रेजरिक, डी0 ब्रोगन, आर्नोल्ड बैरण्ट और सारटोरी आदि विद्वानों ने राजनीति
विज्ञान के लिए इतिहास का समुचित ढंग से उपयोग किया है।
4 राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्रः
अर्थशास्त्र का मुख्य सरोकार उन तत्वों के विश्लेषण से है जो भौतिक उत्पादन, वितरण और विनिमय की प्रणाली के अन्तर्गत मनुष्यों के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इसमें उन तत्वों का पता भी लगाया जाता है जो निवेश अथवा आर्थिक संसाधनों के उपयोग से सम्बन्धित निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जैसे कि ये तत्व पूँजी, श्रम और माल के उपयोग से सम्बन्धित निर्णयों को प्रभावित करते हैं। विस्तृत विश्लेषण करने पर पता चलता है कि ये निर्णय अनेक गैर-आर्थिक तत्वों से प्रभावित होते हैं, जैसे कि ये निर्णय सांस्कृतिक मूल्यों, इनसे जुड़े हुए व्यक्तियों के व्यक्तित्व, राजनीतिक आवश्यकताओं और सामाजिक स्थिति के विचार से भी बहुत प्रभावित होते हैं। किसी समुदाय का राजनीतिक परिवेश भी आर्थिक निर्णयों को दूर-दूर तक प्रभावित करता है।
प्राचीन समय में
अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के बीच के अंतरंग सम्बन्ध बहुत गहरे थे। इसी कारण
प्लेटो ने न्याय के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए न्याय को एक ऐसे समन्वयवादी
उत्कृष्ट तत्व के रूप में देखा, जो आर्थिक विषय सहित समाज के सभी महत्वपूर्ण हितों की रक्षा
कर सके। अरस्तू ने अर्थशास्त्र को गृह प्रबन्ध की कला के रूप में देखा और राजनीति
को अनिवार्यतः अर्थशास्त्र से अभिन्न और अविभाज्य अंग के रूप में देखा। भारत में
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र और राजनीति के श्रेष्ठतम तत्वों को मिलाकर अर्थशास्त्र की
परिकल्पना की थी। अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में उसने व्यापार, वाणिज्य, कृषि, मुद्रा तथा कर व्यवस्था
आदि आर्थिक विषयों के साथ शासन, न्याय, युद्ध, शान्ति, कूटनीति जैसे राजनीतिक विषयों का भी विस्तार से विवेचन किया
है। अर्थशास्त्र और राजनीति को एक साथ देखने की परम्परा ने आदम स्मिथ को, जो कि आधुनिक अर्थशास्त्र
के प्रणेता थे, बराबर प्रभावित
किया। उनका 'वैल्थ ऑफ नेशन' जितनी अर्थशास्त्र की बात
करता है, उतनी ही राजनीति
विज्ञान की भी ।
अर्थशास्त्र और राजनीति
विज्ञान के बीच अत्यधिक निर्भरता के कारण उन्नीसवीं सदी में राजनीतिक अर्थशास्त्र
नाम से एक नये शास्त्र का जन्म हुआ। राजनीतिक अर्थशास्त्र को एक शास्त्र के रूप
में विकसित करने में आदम स्मिथ, रिकार्डों, कार्ल मार्क्स और अन्य विद्वानों की भूमिका सबसे ज्य
महत्वपूर्ण रही। परन्तु, दोनों शास्त्रों
की परस्पर निर्भरता के बावजूद अर्थशास्त्र और राजनीति के परस्पर संघर्षों को
छिपाना सम्भव नहीं रहा। इसी चरण में अर्थशास्त्र को राजनीतिक विचारों और दर्शन के
जबदस्त प्रभाव से मुक्त करने का निश्चय किया गया। फलतः 19वीं शताब्दी के
उत्तरार्द्ध में इसने धीरे-धीरे राजनीति विज्ञान से अपना सम्बन्ध तोड़ दिया और
अहस्तक्षेप के सिद्धान्त की प्रेरणा से वस्तुओं की कीमतों और बाजार की
प्रवृत्तियों पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। इसमें संदेह नहीं कि आज के युग
में विकासशील राष्ट्रों को विशेष रूप से गरीबी की विकट और विस्तृत समस्या का सामना
करना पड़ रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि अर्थशास्त्र ने इस क्षेत्र में बहुत उन्नति
की और मांग, पूर्ति, प्रतिस्पर्धा, निवेश, उपयोगिता, लागत, लाभ, आयोजन, विकास इत्यादि के बारे
में महत्वपूर्ण नियम और सिद्धान्त स्थापित किए। परन्तु बाद के दशकों में यह भी
अनुभव बहुत किया गया कि आर्थिक प्रणाली को केवल बाजार की शक्तियों और खुली स्पर्धा
के सहारे छोड़ देने पर सामाजिक दृष्टि से विनाशकारी परिणाम निकलते है; आर्थिक विषमताएं बेतहाशा
बढ़ जाती हैं, निर्धन और
दीन-हीन वर्गों का बेहिसाब शोषण होने लगता हैं, सामजिक अन्याय का बोलबाला हो जाता है और समाज में तनाव और
संघर्ष का वातावरण बन जाता है। इससे आर्थिक गतिविधियों के नियमन की आवश्यकता
अनुभवन की गई और अर्थव्यवस्था को सार्वजनिक नियंत्रण में रखने के विचार को महत्व
दिया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की परस्पर
अभिरूचि को नया जीवन मिल गया । इस प्रवृत्ति ने वर्तमान युग में राजनीतिक
अर्थशास्त्र को एक नए रूप में विकसित किया है।
इधर राजनीति सिद्धान्त के
दृष्टिकोण में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। आज के राजनीति- सिद्धान्त का मुख्य
सरोकार परस्पर विरोधी मांगों के समाधान से है। ये मांगें एक ही समुदाय के भीतर
विभिन्न समूहों तथा वर्गों की ओर से रखी जा सकती हैं, या अन्तर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रों की ओर से रखी जा सकती है। ये मांगे तरह-तरह की होती
है परन्तु दुर्लभ संसाधनों के बँटवारे की मांगें इनमें सबसे प्रमुख होती हैं।
दूसरे शब्दों में, ये मांगें
मुख्यतः आर्थिक मांगें होती हैं। कोई भी राजनीतिक प्रणाली तब तक अपने आपको नहीं
सम्भाल सकती जब तक वह परस्पर विरोधी मांगों में सामंजस्य स्थापित करने की क्षमता
स्थापित करने की क्षमता का परिचय न दे सके। इसके लिए आर्थिक शक्तियों और तत्वों की
गहरी समझ जरूरी होती है। चाहे विदेश व्यापार का क्षेत्र हो, या देश के भीतर आर्थिक
जीवन के नियमन का मामला हो- राज्य की कोई भी नीति या निर्णय तब तक सार्थक नहीं हो
सकता जब तक उसके साथ जुड़े हुए आर्थिक प्रश्नों को भली-भांति समझकर सुलझान लिया
जाए। राज्य जब योजना निर्माण के क्षेत्र में कदम रखता है, या 'कल्याणकारी राज्य' 'सेवाधर्मी राज्य' या ‘समाजवादी राज्य' के रूप में नागरिकों की
आर्थिक सुरक्षा का दायित्व सम्भालता है और पूर्ण रोजगार रहन-सहन के उपयुक्त स्तर, उचित पोषण, स्वास्थ्य रक्षा, सार्वजनिक शिक्षा इत्यादि
के कार्यक्रम बनाता है, तब अर्थशास्त्र
की सहायता लेना अनिवार्य हो जाता है। आज के युग में विकासशील राष्ट्रों को विशेष
रूप से गरीबी की विकट और विस्तृत समस्या का सामना करना पड़ रहा है। यहाँ यह सिद्ध
हो जाता है कि राजनीति तक तक कृतकार्य नहीं हो सकती जब तक वह आर्थिक समस्या को
प्रभावशाली ढंग से सुलझा नहीं सकती। मार्क्सवादी सिद्धान्त के अनुसार भी सम्पूर्ण
राजनीति आर्थिक शक्तियों से नियमित होती है। अतः चाहे हम उदारवादी दृष्टि से सोचें, मार्क्सवादी दृष्टि से
अर्थशास्त्र का ज्ञान राजनीति के ज्ञान तथा व्यवहार के लिए आवश्यक सिद्ध होता है।
1. आर्थिक परिस्थितियाँ सरकार के स्वरूप को निर्धारित करती है:-
आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव सरकार के
स्वरूप पर अवश्य पड़ता है। प्राचीन और मध्ययुगीन सरकारों का स्वरूप 'कुलीनतंत्रीय' था। उन दिनों राजनीतिक
अधिकार सामन्ती वर्ग के हाथों में केन्द्रित थे। शासन का यह रूप जिसे हम 'कुलीनतंत्रीय' अथवा 'अभिजाततंत्र' कहते हैं, इसलिए विकसित हुआ था
क्योंकि उस समय मशीनों का प्रचलन नहीं था। आज जो कार्य मशीनें करती हैं, उस युग में वही कार्य
मनुष्य किया करते थे। अतः उस युग की अर्थव्यवस्था को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था
कि थोड़े से धनी-मानी जमींदार बहुसंख्यक लोगों को अपना दास बनाकर रखें और उन पर
राज्य करें किन्तु औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप सामन्ती प्रथा समाप्त हो
गयी। आधुनिक युग में लोकतंत्र के विकास का मुख्य कारण वह औद्योगिक क्रान्ति भी है
जिसने दास प्रथा का उन्मूलन किया है। इस प्रकार यह सत्य है कि आर्थिक परिस्थितियाँ
सरकार के स्वरूप पर अवश्य ही महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं।
2.राजनीतिक क्रान्तियाँ, आर्थिक शक्तियों से प्रभावितः -
प्रत्येक प्रमुख 'क्रान्ति' के पीछे आर्थिक शक्तियों का हाथ रहा है। अमेरिका के
स्वाधीनता संग्राम, फ्रांस की राज्य
क्रान्ति, रूस व चीन की
साम्यवादी क्रान्ति तथा राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का एक मुख्य कारण आर्थिक
असन्तोष ही था ।
3. भौतिक साधनों का श्रेष्ठतम बँटवारा:-
आजकल राजनीति विज्ञान में सामाजिक व आर्थिक न्याय, औद्योगिक लोकतंत्र, लाइसेंस प्रणाली, उद्योग-धन्धों का
राष्ट्रीयकरण, राष्ट्रीय बचत
तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों की विशेष चर्चा होने लगी है। इसी कारण राजनीतिक
विचारकों का मत है कि राज्य को अपनी नीति इस प्रकार निर्धारित करनी चाहिए जिसमें
सभी को जीविका के समान साधन उपलब्ध हो सकें, देश की भौतिक सम्पत्ति कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में
केन्द्रित न होने पाये तथा आर्थिक विवशता के कारण नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न
जाना पड़े जो उनकी आयु और शक्ति
4. आर्थिक नियोजन तथा बजट पद्धतिः-
राजनीति विज्ञान में अर्थशास्त्र की और बहुत सी तकनीकों का समावेश होता
चला जा रहा है। किन वस्तुओं का कितना उत्पादन किया जायेगा तथा वितरण का क्या ढंग
होगा, इसका निर्णय
राज्य द्वारा किया जाता है। 'नियोजन' एक ऐसी तकनीक है जो कम या अधिक मात्रा में अब सभी देशों में
प्रयुक्त होने लगी है। सरकार बजट पद्धति का भी उपयोग करती है अर्थात् शासन के सभी
विभाग आय व व्यय का ब्यौरा तैयार करके उसी के अनुरूप कार्य करते हैं। यह भी एक
विशुद्ध अर्थशास्त्रीय विधि है। आय कर, सम्पत्ति कर, उत्तराधिकार शुल्क तथा अन्य करों द्वारा आय की असमानता को
दूर करने का प्रयास किया जाता है।
‘राजनीति’ के लिए ‘अर्थशास्त्र' बहुत उपयोगी है परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक गतिविधियों पर भी राजनीति विज्ञान का व्यापक प्रभाव पड़ता है।
'अर्थव्यवस्था' पर 'राजनीति विज्ञान' के प्रभाव की चर्चा निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत की जा सकती है -
1. अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कानून:-
उन्नीसवीं शताब्दी में इस सिद्धान्त का बोलबाला रहा कि “वस्तुओं
को उनके हाल पर छोड़ दो" अर्थात् आर्थिक मामलों में राज्य किसी भी प्रकार
हस्तक्षेप न करे किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में इस सिद्धान्त का कोई मूल्य नहीं
रह गया है। खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने हेतु कठोर कानून बनाये गये हैं तथा सूदखोरों
पर भी सरकार विशेष नियंत्रण रखती है। यहाँ हम आर्थिक जीवन को नियंत्रित करने वाले
और भी बहुत से कानूनों की चर्चा करना चाहेंगे, जैसे- न्यूनतम मजदूरी विधेयक, कामगार मुआवजा एक्ट, अनिवार्य दुर्घटना बीमा
योजना तथा श्रमिकों के लिए अधिकतम कार्य-काल का निर्धारण । गत कुछ वर्षों से
राजनेताओं का सम्पूर्ण ध्यान इस बात पर केन्द्रित रहा है कि जनता के जीवन स्तर को
उठाने और मंहगाई को नियंत्रण में रखने के लिए किन नीतियों का अनुसरण किया जाये या
कैसे कानून बनाये जायें।
2. विदेश व्यापार और विदेशी निवेश पर राज्य का कठोर नियंत्रण देखने को मिलता है:-
जहाँ तक विदेश व्यापार और विदेशी निवेश का प्रश्न है, उन पर तो राज्य का कठोर नियंत्रण स्थापित हो गया है। यातायात और संचार के साधनों का विकास हो जाने के कारण विदेश व्यापार में भी बहुत वृद्धि हुई है परन्तु ऐसा कोई राज्य नहीं है जो विदेश व्यापार पर नियंत्रण न रखता हो । विभिन्न देशों के बीच पूँजी का संचलन यानी किसी एक देश द्वारा दूसरे देशों में पूँजी निवेश करना भी सरकार की नीति पर ही निर्भर हो गया है।
3.राजनीतिक अस्थिरता, हिंसा और युद्धों का अर्थव्यवस्था पर प्रभावः-
राजनीतिक हिंसा, आन्तरिक कलह और युद्धों का देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा
प्रभाव पड़ता है। आर्थिक प्रगति बहुत सीमा तक इस बात पर निर्भर करती है कि देश में
राजनीतिक स्थिरता है अथवा नहीं। संयुक् राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, नार्वे, स्वीडन और स्विट्जरलैण्ड
जैसे देश राजनीतिक हिंसा से मुक्त रहे हैं। इन देशों में सरकारें चुनावों के
माध्यम से बदलती रही हैं। इससे वहाँ की अर्थव्यवस्था को एक सुदृढ़ आधार प्राप्त हो
गया है। दूसरी ओर, एशिया अफ्रीका और
लेटिन अमेरिका के अधिकांश देश राजनीतिक अस्थिरता का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जिन
देशों में राजनीतिक स्थिरता है, वहाँ अपेक्षाकृत आर्थिक विकास अधिक हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन से यह
स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।
आधुनिक युग के जिन अर्थशास्त्रियों ने राजनीति विज्ञान पर गहरा प्रभाव डाला है, उनमें केनेथ ऐरो, ऐंथोनी डाउन्स, डन्कन ब्लैक और जी0 टूलोक के नाम विशेष रूप
से उल्लेखनीय हैं। राजनीति विज्ञान के विद्वान अर्थशास्त्र की विधियों का खुलकर
उपयोग करने लगे हैं।
5 राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान
मनोविज्ञान मानव के मन और
व्यवहार का विज्ञान है। मनोविज्ञान की सहायता से ही मानव की अभिप्रेरणाओं और खास
कामों का लेखा-जोखा लिया जाता है। इसलिए, मानव को समझने के लिए मनोविश्लेषणात्मक विधियों का प्रयोग
किया जाता है। यह माना जाता है कि मानव मन की खास कार्यशैली के कारण ही खास काम
सम्पन्न होते हैं। मनावैज्ञानिक रूप से किसी व्यक्ति को जानकर ही आप उसे सामाजिक
और सांस्कृतिक दृष्टि से बेहतर समझ सकते हैं।
राजनीति विज्ञान एक
सामाजिक विज्ञान होने के कारण मनुष्य के अध्ययन से सम्बन्धित है। राजनीतिक
संस्थाओं पर मानसिक गतिविधियों का प्रभाव पड़ना नितान्त स्वाभाविक है। यही कारण है
कि राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान में परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।
ज्ञातव्य है कि सबसे पहले
मैकियावली ने राजनीतिक गतिविधियों के आधार पर मनोविज्ञान का महत्व प्रतिपादित किया
और हॉब्स ने इसे वैज्ञानिक स्वरूप दिया। हॉब्स को राजनीति के मनोवैज्ञानिक उपागम
का जनक माना जाता है। मनोविज्ञानोन्मुखी राजनीतिक विश्लेषण पर सर्वाधिक बल देने
वाले फ्रांसीसी और अंग्रेज लेखकों में प्रमुख रहे टार्डे, डरखाइम, लेबोन, ग्राहम वैलास और मैकडोगल।
राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में मनोविज्ञान के बढ़ते प्रभाव को ग्राहम वैलास ने
अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ में व्यक्त किया है। उन्होंने
स्पष्ट किया है कि मनुष्य अपने राजनीतिक व्यवहार में केवल विवेक के द्वारा प्रेरित
नहीं होता, वह भावनाओं और
आवेगों द्वारा भी प्रभावित होता है।
फ्रायड और दूसरे
मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मानव व्यवहार का आध उसके
मन की अवचेतन प्रवृत्तियाँ हैं। इन प्रवृत्तियों का उद्गम उसकी दबी हुई इच्छाएं
हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य साधारणतः विवेक या बौद्धिक विश्लेषण के आधार पर
कार्य नहीं करता । बुद्धि अवचेतन आवेगों की दासी है। यदि यह सच है तो राजनीति के
विद्यार्थी को भी इन अवचेतन प्रेरणाओं और मनोवृत्तियों को समझना आवश्यक हो जाएगा।
इन्हें बिना समझे वह राजनीतिक जीवन का न तो यथार्थवादी विश्लेषण कर सकता है और न
उसके आदर्शों के सम्बन्ध में कोई निष्कर्ष निकाल सकता है। इसी प्रकार टोटर ने अपनी
पुस्तक (शान्ति और युद्ध के दौरान मानववृत्ति) में यह बताया है कि शान्ति एवं
युद्ध दोनों ही स्थितियों में किस प्रकार राष्ट्रीय नेता जनता के मनोभावों का
अध्ययन कर उससे लाभ उठा सकते हैं। लिप्पमैन ने अपने ग्रन्थ 'लोकमत' में सर्वसाधारण जनता के
मत, लोगों की हठधर्मी
और उनके विचारों का विश्लेषण किया है। गुन्नार मिर्डल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘अमेरिकी
दुविधा' अमेरिका के लोगों
की मनोवृत्ति को भली प्रकार स्पष्ट करती है।
राजनीति विज्ञान के लिए मनोविज्ञान की उपादेयता निम्न प्रकार स्पष्ट की जा सकती है:
1. यह उल्लेखनीय है कि भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न शासन प्रणालियों का आधार जन-समाज मनोवृत्ति ही है। प्रमुख फ्रांसीसी पत्रकार बौतमी ने अपने दो महान ग्रन्थों में इंग्लैण्ड और अमेरिका के लोगों की मनोवृत्ति का विवेचन करके यह बताने का प्रयत्न किया है कि इन दोनों देशों की राजनीतिक संस्थाओं में जो मुख्य भेद हैं, उनका प्रमुख कारण लोगों की मनोवृत्ति ही है। इंग्लैण्ड एक लोकतंत्रीय देश होते हुए भी आज तक सम्राट के अस्तित्व को बनाये हुए है। इसके मूल में अंग्रेजों की भावना व मनोवृत्ति है। सम्राट का पद वहाँ यद्यपि कुछ सीमा तक निरर्थक और सारहीन हो गया है, तथापि इंग्लैण्ड के लोगों की ऐसी धारणा बन गयी है कि “जब तक बकिंघम महल में राजा अथवा रानी विद्यमान हैं, तभी तक वे शान्ति की नींद ले सकते हैं।" इस प्रकार वहाँ राजपद की व्यावहारिक उपयोगिता उतनी नहीं है जितनी कि उसके पीछे जन-साधारण की भावना है।
2.राज्य को किसी नवीन नीति
का निर्धारण अथवा किसी नये कानून को बनाते समय समाज की मनोवृत्ति का भली प्रकार
अध्ययन कर लेना चाहिए अन्यथा जनता उस नीति या कानून का स्वागत नहीं करेगी। आधुनिक
युग में तो जनमत का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है। लोकतंत्र का आधार 'जनमत' है और जनमत बनाने के लिए
अब विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रचार-साधनों का उपयोग
किया जाने लगा है। प्रो0 गेटेल के शब्दों
में, “राजनीतिक दलों की
प्रकृति आजकल पर्याप्त सीमा तक मनोवैज्ञानिक बन गयी है। "
3. जन सामान्य के आचरण तथा
उत्तेजित भीड़ के मनोभावों को समझे बिना कोई व्यक्ति सफल राजनीतिज्ञ अथवा जननेता
नहीं बन सकता। उदाहरणार्थ- प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त जर्मनी की जनता में पराजय
के कारण घोर निराशा तथा असन्तोष उत्पन्न हो गया था। हिटलर ने उसे पहचाना और उससे
लाभ उठाया। जनता में उत्साह, साहस और सैनिक भावना का संचार करने के लिए हिटलर और उसके
साथी कहा करते थे कि, “मनुष्य को शेर की
तरह निर्भय और खूनी होना चाहिए। सच्चा जर्मन वह है जो अपनी बुद्धि से नहीं अपितु
अपने रक्त से सोचे।" इस प्रकार महात्मा गाँधी की सफलता का मुख्य कारण भी जनता
की मनोवृत्ति का अध्ययन कर उसी के अनुरूप कार्य करना था। महात्मा गाँधी जानते थे
कि भारत एक धर्म प्रधान देश है। इसीलिए उन्होंने धार्मिक प्रतीकों- प्रार्थना, उपवास, गौरक्षा, ब्रह्मचर्य, सत्याग्रह आदि का आश्रय
लिया। गाँधीजी ने एक साधारण किसान की वेश-भूषा ग्रहण की और अपने संदेश को
गाँव-गाँव तक पहुँचाया। इटली के महान देशभक्त जन की ही भाँति गाँधीजी ने भी
अध्यात्मवाद का सहारा लिया और देशभक्ति को 'धर्म' व 'उपासना' का स्वरूप प्रदान किया।
उपर्युक्त विवेचन से यह
स्पष्ट है कि कोई भी राजनीतिज्ञ मनोविज्ञान के अध्ययन की उपेक्षा नहीं कर सकता।
लॉर्ड ब्राइस ने तो यहाँ तक कह डाला है कि, “मनोविज्ञान ही राजनीति विज्ञान का आधार है।"
मनोविज्ञान राजनीति विज्ञान दोनों के बीच
में कुछ अन्तर भी है:
1. प्रकृतिः-
राजनीति विज्ञान एक आदर्शवादी विज्ञान है जो 'क्या था और क्या है?" के साथ ही ‘क्या होना चाहिए?' का भी अध्ययन करता है, जबकि मनोविज्ञान का आदर्श से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
2.विषयः-
राजनीति विज्ञान
मनुष्य के राजनीतिक संगठनों तथा कार्यों का अध्ययन करता है, जबकि मनोविज्ञान मनुष्य
की मानसिक अवस्थाओं का भी अध्ययन करता है।
3.व्यवहारिक जीवन में महत्व:-
मनोविज्ञान केवल मनुष्य की मनोवृत्तियों का अध्ययन करता है, जबकि राजनीति विज्ञान
व्यवहारिक कार्यों का भी अध्ययन करता है ।
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