राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त | सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना |Social contract theory of origin of the state

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त | सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना |Social contract theory of origin of the state
 

राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौता सिद्धान्त

  • राज्य की उत्पत्ति का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त सामाजिक समझौता सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त की मूल मान्यता यह है कि राज्य ईश्वरीय संस्था न होकर एक मानव निर्मित कृत्रीम संस्था है। इस सिद्ध के अनुसार राज्य का निर्माण व्यक्तियों के पारस्परिक समझौते द्वारा हुई । उसके पूर्व भी एक अवस्था थी जो प्राकृतिक अवस्था नाम से जानी जाती है। अपनी आवश्यकता के लिए व्यक्ति ने प्राकृतिक अवस्था का त्यागकर समझौते द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना की। इस समझौते से व्यक्तियों को सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए।

 

  • यह विचार काफी पुराना है कि शासक की शक्ति उसके तथा उसकी प्रजा के मध्य सम्पन्न किसी समझौते पर आधारित है। इसका वर्णन भारतीय ग्रंथों महाभारत के 'शान्तिपर्वतथा कौटिल्य की पुस्तक अर्थशास्त्र में मिलता है जिसमें कहा गया है कि अराजकता की स्थिति से दुखी होकर मनुष्यों ने परस्पर समझौते द्वारा राज्य की स्थापना की। यूनान में सोफिस्ट विचारको के द्वारा भी इस सिद्ध का समर्थन किया गया। इसी प्रकार इपीक्यूरियन तथा रोम के विचारको एंव विधि शात्रियो ने भी इ सिद्धान्त का समर्थन किया था। रोम के विचारक तथा विधिशास्त्री (जैसे पालिबियस एंव सिसरो) जनता को राज्य की शक्ति का स्रोत मानते है। इस सिद्धान्त के अन्य समर्थकमें हम बुकाननएल्यूसियस ग्रोशियसप्यूपेनडार्फ तथा स्पेनोजा के नाम का उल्लेख कर सकते है.

 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त की रूपरेखा 

  • सामाजिक समझौता सिद्धान्त की स्पष्ट अभिव्यक्ति सत्रहवी शताब्दी में इंग्लैड के हाब्स एंव लॉक तथा अठारहवी शताब्दी में फ्रांस के रूसो की त्रिमूर्ति ने प्रस्तुत की है। इन विचारको ने एक ऐसे युग की कल्पना की है जिसमें किसी प्रकार की कोई सत्ता नहीं थी तथा उस काल को उन्होने प्राकृतिक अवस्था का नाम दिया था जिसका अन्त एक सामाजिक समझौते द्वारा हुआ । इस समझौते के अर्न्तगत लोगों ने अपने प्राकृतिक अधिकार समर्पित कर दिये ताकि स्थापित राजनीतिक सत्ता द्वारा उन्हें सामाजिक अधिकारों का रुप दिया जा सके। यद्यपि विभिन्न मुद्दों पर तीनों विचारकों के दृष्टिकोण भिन्न है परन्तु ये सभी मानव जाति की राज्य से पूर्व की अवस्था की कल्पना करते हैं। यहाँ पर हम हम तीनों ही विचारकों के विचारों का बारी-बारी से अध्ययन करेंगे।


1 थामस हाब्स सिद्धान्त

 

थामस हाब्स इंग्लैड के निवासी थे। उनके समय में राजतंत्र तथा प्रजातंत्र के समर्थको के मध्य गृह युद्ध चल रहा था। राजवशं से निकट सम्पर्क होने के नाते उनकी विचारधारा राजतंत्रवादी थी। अतएव उनका यह विश्वास था कि शक्तिशाली राजतंत्र के बिना देश में शान्ति तथा सुव्यवस्था नही स्थापित हो सकती। हाब्स ने 1651 में प्रकाशित अपनी पुस्तक लेवियाथन (Leviathan) ने समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन करके निरंकुश राजतंत्र का समर्थन किया। हाब्स ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है-

 

1. मानव स्वभाव 

हास ने मनुष्य के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि मनुष्य की मनुष्य का शत्रु है। वह बर्बरस्वार्थीअहंकारीआक्रामक एंव आत्माभिमानीहोता है। वह सदैव शन्ति से ही प्रेम करता है तथा शान्ति प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास करता रहता है। यही कारण है कि मानव जीवन एकाकीपूर्णगंदानिर्धनतापूर्ण तथा अल्पकालीन होता है।

 

2. प्राकृतिक अवस्था 

प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य का जीवन किसी भी प्रकार के नियंत्रण से मुक्त था जिमसें प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य को न्यायअन्यायउचित-अनुचितअच्छे-बुरे अथवा सत्य-असत्य का कोई ज्ञान न था प्राकृतिक अवस्था 'शक्ति ही सत्य हैकी धारणा पर आधारित थी। इसलिए प्राकृतिक अवस्था में शांतिव्यवस्थासम्पत्तिन्यायउद्योग व्यापार आदि जैसी कोई व्यवस्था न थी । स्वयं हाब्स के शब्दों में जहाँ कोई व्यवसाय न थाकोई संस्कृति न थीकोई विद्या न थीकोई भवन निर्माण कला न थी तथा न कोई समाज था।

 

समझौते के कारण प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों का जीवन तथा उनकी सम्पत्त् सुरक्षित न थी। जीवन तथा सम्पत्ति की इस असुरक्षा तथा मृत्यु एवं संहार के भय ने व्यक्तियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे असहनीय प्राकृतिक अवस्था का अन्त करने के उद्देश्य से एक राजनीतिक समाज का निर्माण करें।

 

3. समझौते का स्वरूप

 

नवीन समाज का निर्माण करने के लिए सभी व्यक्तियों ने मिलकर एक समझौता किया। हाब्स के मतानुसार यह समझौता प्रत्येक व्यक्ति ने शेष व्यक्ति समूह से किया जिसमें प्रत्येक किसी व्यक्ति को अथवा सभा को अपने अधिकार एवं शान्ति का समर्पण करता हूँ जिससे कि वह हम पर शासन करेपरन्तु इसी शर्त पर कि तुम भी अपने अधिकार एवं शक्ति का समर्पण इसी रूप में करो और इसकी आज्ञाओं को मानो इस समझौते में शासक कोई पक्ष नहीं है। तथा यह समझौता सामाजिक हैराजनीतिक नहीं। वह सत्ता इस समझौते का परिणाम है।

 

ऐसे समझौते के माध्यम से समाजराज्य तथा शासन अस्तित्व में आ गया जो सभी के जीवन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा से सम्बन्धित है।

 

4. राज्य का स्वरूप 

हाब्स के समझौते के द्वारा एक ऐसे निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की गई जिसका शासक सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न है तथा जिसका प्रजा के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है। शासित वर्ग अथवा सामान्य जनता को शासक के विरूद्ध विद्रोह करने का कोई अधिकार नहीं है।

 

2 लॉक के सामाजिक समझौते 

 

मानव स्वभाव

 

लोक के अनुसार मुनष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसमें प्रेम सहानुभूतिसहयोग एवं करुणा की भावनायें विद्यमान थी। अतएव प्रत्येक मनुष्य अपने सद्गुणों का प्रदर्शन करके दूसरे व्यक्ति से अपना सम्पर्क बनाने के लिए कृत संकल्प था।

 

प्राकृतिक अवस्था

 

चूँकि मनुष्य एक सामाजिक एवं विचारशील प्राणी थाइसलिए लोक की प्राकृतिक अवस्थाहास की भाँति संघर्ष - पूर्ण न होकर सदिच्छासहयोग एवं सुरक्षा की व्यवस्था थी। लोक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था नियत विहीन न थी । प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त थे तथा प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का आदर करता था । ये प्राकृतिक अधिकार थे - (1) जीवन का अधिकार (2) स्वतंत्रता का अधिकार ( 3 ) सम्पत्ति का अधिकार |

 

समझौते का कारण

 

लॉक का मानना है कि समय बीतने के साथ इस आदर्श प्राकृतिक अवस्था में कुछ ऐसी कमियाँ उभर कर सामने आई कि व्यक्तियों के समक्ष असुविधायें आने लगी। इन असुविधाओं को दूर करने के लिए व्यक्तियों ने प्राकृतिक अवस्था का त्याग करना उचित समझा। ये असुविधायें निम्नलिखित थीं-


  • नियमों का निर्माण करने की कोई स्पष्ट व्यवस्था न थी ।  
  • नियमों का पालन करवाने की कोई शक्ति नहीं थी। 
  • इन नियमों की व्याख्या करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी

 

समझौते का स्वरूप 

  • हाब्स के सिद्धान्त के अनुसार राज्य का निर्माण करने के लिए केवल एक ही समझौता किया गया थापरन्तु लोक के समझौते की स्थिति विवादास्पद है। कुछ विद्वानों के अनुसार लोक ने दो समझौतों का वर्णन किया था जबकि अन्य विद्वान समझौता एक ही स्वीकार करते हैं जिसका स्वरूप द्विपक्षीय था। पहले समझौते द्वारा प्राकृतिक अवस्था का अन्त करके समाज की स्थापना की गयी। इस समझौते का लक्ष्य व्यक्तियों के जीवन स्वतंत्रता तथा सम्पत्ति की रक्षा करना था। पहले समझौते के उपरांत शासक एवं शासित के मध्य दूसरा समझौता सम्पन्न हुआजिसमें शासित वर्ग के द्वारा शासक को कानून बनानेउनको लागू करने तथा उसकी व्याख्या करने का अधिकार दिया गया। परन्तु शासक के लिए यह अनिवार्य शर्त थी कि उसके द्वारा निर्मित कानून अनिवार्य रूप से प्राकृतिक नियमों के अनुकूल एवं अनुरूप होंगे तथा वे जनता के हित में निर्मित होंगे।

 

राज्य का स्वरूप

 

  • लॉक के सामाजिक समझौता सिद्धान्त के अन्तर्गत शासक एवं शासित के मध्य जो समझौता सम्पन्न हा हैउससे यह स्पष्ट है कि सरकार स्वयं एक लक्ष्य नहीं वरन् एक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन मात्र है तथा यह लक्ष्य है शांति तथा व्यवस्था स्थापित करना तथा जन कल्याण। लोक ने इस विचार का प्रतिपादन किया है कि यदि सरकार अपना उद्देश्य प्राप्त करनेमें अफल 'जाती है तो समाज को ऐसी सरकार के स्थान पर दूसरी सरकार स्थापित करने का पूर्ण अधिकार है। इस प्रकार लॉक ऐसी शासन व्यवस्था का समर्थन करता है जिसमें वास्तविक एवं अन्तिम शक्ति जनता में निहित होती है तथा सरकार का अस्तित्व जनता की इच्छा पर निर्भर करता है।

 

3 जीन जैम्स रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धान्त

 

रूसो ने अपनी पुस्तक (The Social Contract 1762 ) में सामाजिक समझौता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। रूसो का सिद्धान्त हाब्स तथा लॉक के सिद्धान्त से एक तरफ अलग है दूसरी ओर उसमें दोनों के तत्व कहीं न कहीं विद्यमान दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त रूसो ने जिस प्रकार से अपने सिद्धान्त की व्याख्या की है वह लोकतंत्र का अग्रदूत बन जाता है। रूसों के द्वारा अपने सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की गई है

 

1. मानव स्वभाव

 

हाब्स ने मनुष्य को बुश एवं असभ्य तथा लोक ने उसे भला तथा सहयोग की भावना से प्रेरित बताया थावहीं रूसो मनुष्य को परिस्थितियों के अधीन अच्छा अथवा गुररा दोनों ही बताता है। रूसो का मत है कि ‘मनुष्य मानवीय अच्छाई में बाधक बनती है।यह बात उसकी इस धारणा स्वतः और स्पष्ट हो जाती है जब वह इस बात का प्रतिपादन करता है कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है परन्तु वह सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा हुआ है।

 

2. प्राकृतिक अवस्था

 

रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था आदर्श अवस्था थी जिसमें मनुष्य शान्ति एवं संतोषपूर्ण जीवन व्यतीत करता था। उसे न तो किसी साथी की आवश्यकता थी तथा न किसी का अहित करने की उसकी इच्छा थी। इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति एक भोले बालक की भाँति सादगी परमसुख का जीवन व्यतीत करता था। इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य छल कपट रहित जीवन व्यतीत करता थापरन्तु इस प्राकृतिक अवस्था में विवके का अभाव था। यही कारण है कि रूसो प्राकृतिक अवस्था के व्यक्ति को आदर्श बर्बर (Noble Savage) की संज्ञा देता है।

 

3. समझौते का कारण

 

रूसो प्राकृतिक अवस्था का चित्रण आदर्श अवस्था के रूप में करता है परन्तु समय बीतने के उपरांत यही अवस्था कष्टमय होती चली गयी। कृषि के अविष्कार के कारण भूमि पर स्थायी अधिकार तथा इसके परिणामस्वरूप सम्पत्ति का उदय हुआ । यही से समाज में मेरे तेरे की भावना का विकास हुआ। जब व्यक्ति अधिक से अधिक भूमि पर अधिकार की इच्छा रखने लगा तो इस अवस्था में संघर्ष की भावना पैदा होने लगी तथा मानव जीवन कष्टमय तथा अशांतिपूर्ण होता गया। सम्पत्ति के बारे में उसकी मान्यता यह है कि "वह पहला व्यक्ति समाज का वास्तविक जन्मदाता था जिसने एक भू-भाग को घेरकर कहा था कि यह मेरी भूमि है” तथा जिसे अपने इस कथन के विश्वास करने वाले सरल व्यक्ति मिल गये। इस प्रकार प्राकृतिक अवस्था में युद्ध संघर्ष एवं विनाश का वातावरण उपस्थित हो गया। अतएव इस अवस्था का अन्त करने के लिए व्यक्तियों ने पारस्परिक समझौते द्वारा समाज की स्थापना का निश्चय किया।

 

4. समझौते का स्वरूप

 

प्राकृतिक अवस्था की असहनीय स्थिति का अन्त करनेके लिए सभी व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हुए तथा उनके द्वारा अपने सम्पूर्ण अधिकारों का समर्पण किया गया परन्तु यह समर्पण किसी विशेष व्यक्ति के लिए वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए किया गया। समझौते के परिणाम स्वरूप समाज की एक सामान्य इच्छा उत्पन्न हुई तथा सभी व्यक्ति इस सामान्य इच्छा के अधीन माने गये। रूसो के शब्दों में 'समझौते के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूर्ण शक्ति को सामान्य प्रयोग के लिए सामान्य इच्छा के सर्वोच्च निदेशक के अधीन समर्पित कर देता है तथा एक समूह के रूप में अपने व्यक्तित्व तथा अपनी पूर्ण शक्ति को प्राप्त कर लेता है।" यह अवस्था सभी पक्षों के लिए लाभपूर्ण सिद्ध हुई ।

 

5. राज्य का स्वरूप :

 

रूसो के समझौते के द्वारा एक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना होती है जिसके अन्तर्गत सम्प्रभुता सम्पूर्ण समाज में निहित होती है जिसका आधार सामान्य इच्छा है। यदि सरकार सामान्य इच्छा के विरूद्ध आचरण करती है तो जनता को ऐसी सरकार को पदच्युत करने का अधिकार प्राप्त होता है शासन का आधार लोकप्रिय सम्प्रभुता से जुड़ा होता है।

 

4 सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना

 

यद्यपि सामाजिक समझौता सिद्धान्त 17 वीं एवं 18 वीं सदी में काफी लोकप्रिय हुआ तथा हूकर ,मिल्टनग्रोशसब्लैकस्टोनस्पिनोजा जैसे अनेक विचारकों ने इसका समर्थन किया परन्तु 18 वीं सदी के अन्त तथा 19 वीं सदी के राजनीतिक विचारकों ने इसकी कड़ी आलोचना प्रस्तुत की । ह्यूम सर हेनरी मेनब्लंशलीबेंथम सर फ्रेडरिक पोलक तथा एडमण्ड वर्क जैसे विचारकों ने इस समझौते को 'सत्य से परे' 'कपोल कल्पितएवं 'तर्कहीनघोषित किया। इस सिद्धान्त की विभिन्न आधारों पर आलोचना की जाती है जो इस प्रकार है-

 

1. ऐतिहासिक आधार 

ऐतिहासिक आधार पर इस समझौते की आलोचना इस प्रकार की गई हैं

 

१. ऐतिहासिक दृष्टि से सामाजिक समझौता सिद्धान्त कल्पनिक प्रतीत होता है क्योंकि इतिहास में इस बात का कहीं भी उदाहरण नहीं मिलता कि आदिम मनुष्यों ने पारस्परिक समझौते के आधार पर राज्य की स्थापना की हो।

 

२.समाजिक समझौता सिद्धान्त मानव इतिहास को प्राकृतिक अवस्था तथा सामाजिक अवस्था प्रकार के दो कालों में बाँट देता है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह काल विभाजन नितान्त असत्य है। इतिहास में हमें कहीं भी ऐसी अवस्था का प्रमाण नहीं मिलता जब मानव संगठन विहीन अवस्था में रहता है।

 

३. इतिहास के अनुसार राज्य तथा इसी प्रकार की मानवीय संस्थाओं का विकास नहीं। ला-फर ने कहा हुआ कि परिवार की भाँति ही राज्य समाज के लिए आवश्यक समझौते का नहीं वरन् मानवीय प्रकृति का परिणाम है। हैनिर्माण और वह

 

2. दार्शनिक आधार 

इस समझौते की आलोचना के दार्शनिक आधार इस प्रकार हैं:

 

१. इस सिद्धान्त के अन्तर्गत राज्य को एक ऐसे संगठन के रूप में चिन्हित किया गया है जिसकी सदस्यता ऐच्छिक होपरन्तु राज्य की सदस्यता ऐच्छिक नहीं होती वरन् अनिवार्य होती है। व्यक्ति उसी प्रकार राज्य के सदस्य होते हैं जैसे परिवार के क्योंकि राज्य एक प्राकृतिक संस्था है।

 

२. मनुष्य तथा राज्य के सम्बन्धों की व्याख्या समझौते के आधार पर किया जाना अनुचित है क्योंकि मनुष्य एवं राज्य का सम्बन्ध मानव की प्रकृति पर आधारित है।

 

३.यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रीम तथा मानवीय कृति मानता है जबकि राज्य मानव स्वभाव पर आधारित प्राकृतिक संस्था है। यह मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति का परिणाम है।

 

४. समझौता सिद्धान्त राज्य को व्यक्तिगत सनक का परिणाम बताकर क्रांति एवं अराजकता को प्रोत्साहित करता है और नागरिकों के व्यवस्थित जीवन के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है।

 

५. जान लॉक के मतानुसार मनुष्य प्राकृतिक अवस्था में प्राकृतिक अधिकारों का उपभोग करता था। परन्तु यह धारणा नितान्त भ्रमपूर्ण है क्योंकि अधिकारों का उदय समाज में ही होता है तथा एक राज्य के अन्तर्गत रहकर ही अधिकरों का उपभोग किया जा सकता है।

 

3. तार्किक आधार

 

यह सिद्धान्त तर्क की कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता क्योंकि प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों में एकाएक ही राजनीतिक चेतना का उदय कैसे हो गया। वास्तविकता यह है ि राजनीतिक चेतना सामाजिक जीवन में उत्पन्न होती है। सामाजिक जीवन के अभाव में राजनीकि चेतना का उदय सम्भव नहीं है।

 

4. वैधानिक आधार 

वैधानिक आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना के आधार पर निम्नलिखित है

 

१.प्राकृतिक अवस्था में किये गये किसी भी समझौते का वैधानिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है क्योंकि किसी भी समझौते की स्वीकृति का आधार राज्य की शक्ति होती है । परन्तु प्राकृतिक अवस्था में राज्य का अस्तित्व न होने के कारण सामाजिक समझौते के पीछे इस प्रकार की शक्ति न थी ।

 

२. कोई भी समझौता जिन निश्चित लोगों के मध्य होता हैउन्हीं पर लागू होता है अतः किसी अज्ञात समय में अज्ञात व्यक्तियों द्वारा किया गाय समझौता उसके बाद के समय एवं वर्तमान लोगों पर लागू होयह कानूनी दृष्टि से अमान्य है।

 

सामाजिक समझौता सिद्धान्त सिद्धान्त की उपयोगिता

 

समस्त आलोचनाओं के बावजूद सामाजिक समझौता उपयोगी माना गया है और इसके प्रमुख कारण हैं-

 

१. इस सिद्धान्त के द्वारा राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का खण्डन किया गाय जिसके अन्तर्गत राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया था और जिसने राजा को निरंकुश बनाया था। 

२.इस सिद्धान्त ने यह प्रमाणित कर दिया कि राजा की शक्ति या व्यक्तिगत इच्छा नहीं बल्कि जनसहमति ही राज्य का आधार है। 

३.इस सिद्धान्त से सम्प्रभुता के सिद्धान्त का विकास हुआ। हाब्स ने 'वैधानिक सम्प्रभुतालोक ने ‘राजनीतिक प्रभुता’ तथा रूसो ने 'लोकप्रिय सम्प्रभुताके सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

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