राज्य के कार्यों के समाजवादी सिद्धान्त | समाजवाद की आलोचना उपयोगिता | Socialist theory of state functions

राज्य के कार्यों के समाजवादी सिद्धान्त

राज्य के कार्यों के समाजवादी सिद्धान्त | समाजवाद की आलोचना उपयोगिता | Socialist theory of state functions


 

राज्य के कार्यों के समाजवादी सिद्धान्त

 

  • 18वीं सदी के उत्तरार्ध तथा 19वीं सदी के प्रारम्भ में व्यक्तिवादी विचारधारा अत्यन्त लोकप्रिय थीपरन्तु इस विचारधारा को अपनाने का सामाजिकआर्थिक एवं औद्योगिक जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। इसके परिणामस्वरूप समाजवाद का जन्म हुआ। आधुनिक समय में समाजवाद बहुत अधिक लोकप्रिय है तथा प्रत्येक देश द्वारा किसी न किसी रूप में इसे ग्रहण करने का प्रयास किया जा रहा है। यही कारण है कि उसका रूप बहुत अस्पष्ट हो गया है। सी0 ई0 एम0 जोड के अनुसार, समाजवाद एक ऐसे टोप के समान है जिसका आकार बिगड़ गया है क्योंकि हर कोई उसे धारण करने का प्रयत्न करता है। "

 

  • समाजवाद का अंग्रेजी पयार्यवाची शब्द Socialism से लिया गया है जिसका अर्थ है समाज । वास्तव में समाजवाद व्यक्तिवाद के विरूद्ध समाज को केन्द्रीय मानने वाली विचारधारा है। समाजवाद का उद्देश्य समानता की स्थापना करना है। समाजवाद के अनुसार समानता की स्थापना के लिए स्वतंत्र प्रतियोगिता का अन्त किया जाना चाहिये। राज्य द्वारा आर्थिक क्षेत्र में अधिक से अधिक कार्य किये जान चाहिएउत्पादन के साधनों पर सम्पूर्ण समाज का अधिकार होना चाहिये तथा उत्पादन व्यवस्था का संचालन भी वर्गों के सामूहिक हितों को दृष्टि में रखकर किया जाना चाहिये। यद्यपि समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है फिर भी विद्वानों द्वारा निम्न प्रकार से समाजवाद को परिभाषित किया गया है

 

एनसाइक्लोपीडिया बिटेनिका के अनुसार 

“समाजवाद वह नीति या सिद्धान्त है जिसका उद्देश्य केन्द्रीय लोकतंत्रात्मक सत्ता के आधार पर उत्पादन तथा वितरण की वर्तमान व्यवस्था के स्थान पर एक श्रेष्ठ व्यवस्था स्थापित करना.

 

मैक्डोनाल्ड के शब्दों में

 “सामान्य शब्दों में समाजवाद की इससे अच्छी परिभाषा नहीं दी जा सकती है कि वह समाज की भौतिक तथा आर्थिक शक्तियों को संगठित एवं उन पर मानवीय शक्ति का नियंत्रण स्थापित करना चाहता है। "

 

भारतीय समाजवादी विचारक जय प्रकाश नारायण के अनुसार

 “समाजवादी समाज एक ऐसा वर्गविहीन समाज होगा जिसमें सब श्रमजीवी होंगे। इस समाज में सारी सम्पत्ति सच्चे अर्थों में सार्वजनिक अथवा राष्ट्रीय सम्पत्ति होगी। ऐसे समाज में मानव जीवन तथा उनकी प्रगति योग्यतानुकूल होगी तथा सभी लोग सबके हित के लिए जीवित रहेंगे। "

 

समाजवादी धारणा के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र

 

समाजवादी विचारधारा के अनुसार राज्य का कार्यक्षेत्र व्यापकतम होना चाहिये। इस विचारधारा के अनुसार राज्य के द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए जो व्यक्ति तथा समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हो क्योंकि व्यक्ति व समाज की उन्नति के लिए किये जाने वाले कार्यों की सीमा नहीं हैअतः सामाजिक जीवन के प्रायः सभी कार्य राज्य के अन्तर्गत आ जाते है। मार्नर के शब्दों में “इस सिद्धान्त के समर्थक व्यक्तिवादियों की भांति राज्य पर अविश्वास करके एवं उसे बुराई मानकर उसके कार्यक्षेत्र को कम से कम करने के विपरीत राज्य को सर्वोच्च एवं निश्चित रूप से लाभप्रद मानते हैं तथा चाहते हैं कि राज्य के कार्य जनता के सामान्य आर्थिकबौद्धिक एवं नैतिक हितों की अभिवृद्धि करें।” इस संबंध में निम्न बातें महत्वपूर्ण है

 

1. उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण

 

व्यक्तिवादी व्यवस्था में पूँजीवादी द्वारा लाभ की दृष्टि से ही सम्पूर्ण औद्योगिक व्यवस्था का संचालन किया जाता है। लाभ का बहुत बड़ा अंश पूंजीपति द्वारा अपने ही पास रख लिया जाता है तथा श्रमिक को कम से कम वेतन दिया जाता है। व्यक्तिवादी या पूंजीवादी व्यवस्था की इन बुराइयों को दूर करने का एक ही मार्ग है कि उत्पादनों के साधनों पर सामूहिक नियंत्रण स्थापित किया जाये तथा समाजवाद इसी बात का प्रतिपादन करता है।

 

2. समाजवादी व्यवस्था न्याय पर आधारित

 

न्याय की यह मांग है कि भूमि तथा उत्पादन के अन्य प्राकृतिक साधनों पर किसी एक वर्ग का आधिपत्य न होकर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण होना चाहिए और इन साधनों का उपयोग सभी व्यक्तियों के लाभ की दृष्टि से किया जाना चाहिए। वास्तव में समाजवादी व्यवस्था सभी व्यक्तियों की आधारभूत समानता तथा न्याय के सिद्धान्तों पर आधारित है।

 

3. आंगिक एकता पर बल 

व्यक्तिवाद व्यक्ति तथा समाज का चित्रण दो ऐसी पृथक इकाईयों के रूप में करता है जिनके हित परस्पर विरोधी होपरन्तु समाजवादियों की धारणा है कि व्यक्ति तथा समाज के मध्य उसी प्रकार का सम्बन्ध होता है जिस प्रकार का शरीर तथा शरीर के अंगों में पाया जाता है। अतएव व्यक्ति तथा समाज के संबंध परस्पर विरोधी नहीं हो सकते हैं।

 

4. संघर्ष के स्थान पर सहयोग की स्थापना: 

व्यक्तिवाद आन्तरिक क्षेत्र के संघर्ष तथा बाहरी क्षेत्र में युद्ध को जन्म देता है परन्तु समाजवाद दोनों ही क्षेत्रों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग के सिद्धान्त को बढ़ावा देता है।

 

5. लोकतंत्र के अनुरूप 

लोकतंत्रीय व्यवस्था समानता के सिद्धान्त पर आधारित है परन्तु उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व तथा गंभीर आर्थिक विषमता के अन्त के बिना यह समानता मात्र एक दिखावा बन कर रह जाती है। आर्थिक क्षेत्र में समाजवादी मार्ग को अपनाकर ही समानता स्थापित की जा सकती है।

 

6. स्वाभाविक सोच 

समाजवाद पूंजीवाद की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक है। प्रकृति जल तथा वायु प्रदान करने में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती अतएव यह सर्वथा उचित है कि भूमि तथा खनिज पदार्थों पर भी सबका समान नियंत्रण हो ।

 

समाजवाद की आलोचना 

पूँजीवाद के अन्त के लिए समाजवाद ने एक उचित मार्ग दिखाया है। इसके बावजूद समाजवाद दोषमुक्त नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि उसकी निम्न आधारों पर आलोचना की जाती है।

 

1. उत्पादन क्षमता में कमी 

कोई भी मानव व्यक्तिगत लाभ की भावना से ही नियमित श्रम करता है। समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन कार्य राज्य के हाथ में आ जाने तथा सभी व्यक्तियों का पारश्रमिक निश्चित होने के कारण कार्य के लिए आधारभूत प्रेरणा का अभाव हो जाता है। इससे राज्य की उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है जिसका प्रभाव समाज की आर्थिक उन्नति पर पड़ता है।

 

2. नौकरशाही का विकास 

समाजवादी व्यवस्था में राजकीय नियंत्रण होने के कारण उसका प्रबंध सरकारी अधिकारियों द्वारा किया जायेगा। सरकारी अधिकारियों के हाथ में शक्ति आ जाने का स्वाभाविक परिणाम नौकरशाही का विकास होगा। काम की गति मंद हो जायेगीकार्य में विलम्ब होगा तथा धूसखोरी एवं भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलेगा।

 

3. राज्य की कुशलता में कमी

समाजवादी व्यवस्था में राज्य के अधिकतम व्यापक कार्यक्षेत्र के कारण राज्य की कार्य कुशलता में भी कमी आ जायेगी। समाजवादी व्यवस्था में सार्वजनिक निर्माण संबंधी उत्पादन वितरण तथा श्रमिक विधान संबंधी सभी कार्य राज्य द्वारा होंगे। ऐसी अवस्था में राज्य की कार्य क्षमता प्रभावित होगी तथा अन्ततः राज्य के अस्तित्व के लिए घातक होगी।

 

4. मनुष्य का नैतिक पतन 

समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत सभी कार्यों को करने की शक्ति राज्य के हाथ में आ जाने से आत्मनिर्भरताआत्मविश्वाससाहस तथा आरम्भक के नैतिक गुणों का अन्त हो जायेगा। यह एक स्वाभाविक सी बात है कि मनुष्य उसी सीमा तक विकास के लिए उन्मुख रहते हैं जिस सीमा तक उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास हेतु क्षेत्र प्राप्त रहता है। समाजवादी व्यवस्था में उसे अपने विकास की नवीन दिशायें प्राप्त न होने के कारण वह हतप्रभ हो जायेगा तथा उसका नैतिक पतन हो जायेगा।

 

5. व्यक्तिवादी स्वतंत्रता का अन्त 

समाजवाद में राज्य के कार्य एवं शक्तियों इतनी बढ़ जाती है कि उसे व्यक्ति के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अन्त हो जाता है।

 

6. खर्चीली व्यवस्था 

समाजवादी व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था की अपेक्षा अधिक खर्चीली होगी। सरकार द्वारा अधिक कार्य करने से कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि होगी परन्तु कार्यकुशलता में कमी बनी रहेगी।

 

7. समाजवाद लूट का प्रतीक

 

समाजवाद को अन्यायपूर्ण कहते हुए आलोचकों का मानना है कि धनिक वर्ग अपने विवके तथा परिश्रम के कारण ही धनवान बन सका तथा धनिकों से उनका धन छीनकर निर्धनों में वितरित करने की बात न्यायपूर्ण नहीं कही जा सकती है। डेविडसन "समाजवाद को एक संगठित व्यवस्थित लुटेरापन मानता है।'

 

समाजवाद की उपयोगिता 

यद्यपि समाजवाद की इस प्रकार की आलोचनायें की जाती है परन्तु वर्तमान समय में इस प्रकार की आलोचनाओं का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं रहा है। व्यवहार में राजकीय नियंत्रण से न तो उनकी उत्पादन क्षमता में ही कोई कमी हुई है और न ही व्यक्ति के नैतिक स्तर का पतन हुआ है। वास्तविकता यह है कि आधुनिक राज्यों के लिए समाजवादी व्यवस्था एक लोकप्रिय माडल के रूप में उभर कर आई है तथा अधिकांश राज्य इस दिशा में प्रयत्नशील है।

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