सम्प्रभुता का अधिवास |Sovereign Domicile in Hindi

सम्प्रभुता का अधिवास

सम्प्रभुता का अधिवास |Sovereign Domicile in Hindi


 

सम्प्रभुता का अधिवास

सम्प्रभुता के अधिवास की खोज राजनीति विज्ञान का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और जटिल प्रश्न है। सम्प्रभुता के अधिवास का अर्थ है कि यह राज्य में कहा निवास करती है अर्थात राज्य में कौन व्यक्ति या समूह राज्य की इच्छा को अभिव्यक्त करता है। इस सन्दर्भ में विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किये है अर्थात अलग-अलग केन्द्र विन्दु बतलाये है जिनका उल्लेख प्रमुख रूप से निम्न रूपों में किया जा सकता है:

 

1 सम्प्रभुता का अधिवास राज्य में है 

सम्प्रभुता के सिद्धान्त का उदय सोलहवी शताब्दी में हुआ तब यह कहा गया कि सम्प्रभुता राजा का गुण है। इसलिए उस समय तक उसके निवास स्थान के सम्बन्ध में कोई भी सन्देह नही था। उस समय फ्रांस के न्यायविदों ने फ्रांस के राजा को ही फ्रांस का सम्प्रभु कहा। सम्प्रभुता को राजा का गुण समझना उचित भी था क्योंकि उस समय राजा ही समस्त शक्तियों का स्रोत था। फ्रांस का शासक लुई चौदहवां कहता था कि मैं ही राज्य हूँ मै ही शासक हूँ। इसी कारण उस समय कहा गया कि राजा नागरिक तथा प्रजाजनों के ऊपर परम शक्ति है जो विधि द्वारा मर्यादित नही है।

 

2 सम्प्रभुता का अधिवास जनता मे है 

लोकतन्त्रवादी विचारको का मानना है कि सम्प्रभुता का निवास जनता में होता है। सर्वप्रथम इस विचार का पक्षपोषण रोमन विचारक सिसरों के द्वारा किया गया किन्तु तत्कालीन प्रवृतियों के अनुकूल न होने के कारण उसके विचार को अस्वीकार कर दिया गया । तदुपरान्त इस विचार का प्रतिपादन लॉक एंव रूसों ने किया कि शासन जनसहमति पर आधारित होता है तथा सम्प्रभुता जनता में निहित होती है। वर्तमान में यह धारणा अत्यन्त लोकप्रिय है किन्तु यह कहने में कि जनता सम्प्रभु है सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि स्वंय जनता शब्द का अर्थ ही अस्पष्ट है। कुछ लोग का अर्थ समस्त जनसमूह अर्थात बच्चेबूढ़े और नौजवान से लगाते है तो निर्वाचको या मतदाताओं को इसमें शामिल करने की वकालत करते है। लोग केवल

 

3 सविधान बनाने तथा उसमें संशोधन करने वाली संस्था में है 

इस धारणा के प्रतिपादको का मानना है कि सम्प्रभुता संविधान निर्मात्री संस्था में निहित होती है अर्थात संविधान का निर्माण और उसका संसोधन करने वाली सभा को ही सम्प्रभु कहा जा सकता है। कुछ राज्यों में तो व्यवस्थापिका सामान्य विधि वनाने की प्रक्रिया से ही संविधान में सशोधन कर सकती है जैसे- इग्लैण्ड,। लेकिन कुछ राज्यो में सविधान संशोधन हेतु विशेष प्रक्रिया अपनायी जाती है जैसे- अमेरिका । परन्तु इस सिद्धान्त की दो प्रमुख कठिनाइयां है। प्रथम संशो धनकारी सत्ता प्रायः सुषुप्तावस्था में रहती है अर्थात यह केवल कभी-कभी क्रियासही ल होती है। जबकि सम्प्रभु के सुषप्त मानना राज्य हित में नही है। द्वितीयतः यह विचार सम्प्रभुता की एक प्रमुख विशेषता निरकुंशता को भी ठेस पहुचाता है। क्योंकि संसोधनकारी शक्ति व्यवहारतः सरकार के नियन्त्रण में रहती है।

 

4 सम्प्रभुता का निवास विधि निर्माण करने वाली समस्त संस्थाओं के योग में है

 

इस दृष्टिकोण के समर्थको का मत है कि सम्प्रभुता का निवास विधि निर्मित करने वाली संस्थाओं में होता है। वुडरो विल्सन ने कहा है कि सम्प्रभुता विधि निर्मातृ संस्थाओं में निवास करती है। बात का समर्थन करते हुए गेटिल ने लिखा है कि वे सभी संस्थाये जो राज्य के इच्छा की अभिव्यक्ति करती है सम्प्रभुता का प्रयोग कर रही है। इन संस्थाओं में विधानमण्डलन्यायालयकार्यपालिका अधिकारीअधिवेशन व निर्वाचक शामिल किये जा सकते है। जहाँ अलिखित व लचीला संविधान होता है वहाँ विधानमण्डल निश्चित रूप से सम्प्रभु कहा जा सकता है जैसे ब्रिटेन में सम्राट संसद कानूनी सम्प्रभु है लेकिन उन देशों में जहाँ संविधान लिखित एंव कठोर है उनके सम्बन्ध में यह बात नही कही जा सकती है। इसके अलावा जहाँ संघात्मक व्यवस्था का प्रावधान है। वहाँ भी विधि निर्माण की शक्ति केन्द्रीय तथा राज्य विधानमण्डल के बीच विभाजित होती है तथा दोनो की शक्तियां एक-दूसरे को नियन्त्रित करतीं है। इसलिए ऐसे राज्यों में विधानमण्डल को सम्प्रभु जा सकता है। न्यायालयी आदेश भी विधि के रूप में प्रभाव रखते हैं। कार्यपालिका के अधिकारी अध्यादेष की घोषणा द्वारा विधि का निर्माण करते है। उदाहरण स्वरूप भारत में राष्ट्रपति को संज्ञ की सूची के विषयों तथा राज्यों के राज्यपालों को राज्य की सूची के विषय पर उस समय अध्यादेष के रूप में विधि की घोषणा करने का अधिकार दिया गया है। जबकि संसद या राज्य विधानमण्डल का अधिवेषन न चल रहा हो और राष्ट्र या राज्य हित में किसी कानून का बनाया जाना आवष्यक हो ये अध्यादेश छः महीने तक विधि के रूप में प्रभाव रखते है और यदि उसी अवधि में इन्हे संसद या विधानमण्डल के बहुमत की स्वीकृति प्राप्त हो जाय तो ये स्थायी विधि के रूप में स्थापित हो जाते है। निर्वाचक भी जब निर्वाचन या जनमत संग्रह द्वारा किसी विषय पर निर्णय करते है तो वे विधि निर्माण में सहायक होते है। इस प्रकार इस मत के समर्थको का कहना है कि सम्प्रभु शक्ति राज्य में होती है तथा इसका प्रयोग सरकार द्वारा किया जाता है किन्तु यह धारणा सतोषजनक नही है क्योकि सम्प्रभुता की धारणा की मूल मान्यता यह है कि इसकी इच्छा की अभिव्यक्ति ही विधि है । इसलिए वह विधि द्वारा अमर्यादित है।

 

इस प्रकार अन्ततः कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण राज्य की आज्ञा में सम्प्रभुता समाहित होती है अर्थात सम्पूर्ण राज्य ही इसका निवास स्थान है। यदि इस प्रश्न का जबाब इससे आगे ढूढ़ने का प्रयास किया जाय तो हम पायेगे कि हम एक ऐसे भूल भुलैया में प्रवेश कर लेगे जिसमें से बाहर निकलना असम्भव नही तो कठिन अवश्य होगा।

 

सम्प्रभुता सारांश 

सम्प्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति होने के साथ-साथ उसके अस्तित्व का आधार भी है। अपने इसी शक्ति के आधार पर वह राज्य के लोगो के लिए कानून का निर्माण तथा उनका पालन सुनिष्चित करती है और उल्लंघन करने वालो को कठोर से कठोर दण्ड देती है। सम्प्रभुता सम्बन्ध में एक ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से यह भले ही निरंकुषअमर्यादित व अदेय है लेकिन व्यवहार में उस पर अनेक नियन्त्रण व सीमाए होती है। इसके अतिरिक्त यह कुछ संघो के अलग-अलग व्यक्तित्व को भी स्वीकार करती है वर्तमान युग प्रजातन्त्र व अर्न्तराष्ट्रीयता का युग है जिसमें सम्प्रभुता के उस रूप को स्वीकार नही किया जा सकता है जिस रूप में इसके प्राचीन समर्थको बोदांहॉब्सहीगल व ऑस्टिन ने स्वीकार किया है।

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