राज्य का क्षेत्र राज्य के तत्व |Territory of the state elements of the state
राज्य का क्षेत्र, राज्य के तत्व
राज्य का क्षेत्र
- राज्य की प्रकृति का निर्धारण करने के उपरांत राज्य के क्षेत्र पर ध्यान देना आवश्यक है। राज्य के क्षेत्र का निर्धारण करने के उपरांज ही हम व्यक्ति तथा राज्य के पारस्परिक सम्बन्धों की अनिवार्यता का निर्धारण करने में सक्षम हो सकेंगे। इस सन्दर्भ में दो बातों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। प्रथम, राज्य का अन्य समानार्थी शब्दों जैसे सरकार राष्ट्र, समाज, प्रान्त से कुछ अलग क्षेत्र एवं वैधानि स्तर है। द्वितीय, राज्य का कार्य क्षेत्र राज्य के ऐतिहासिक विकास के परिणाम स्वरूप क्रमशः विस्तृत होता गया है तथा इस दृष्टि से नगर राज्य से राष्ट्र राज्य की अवस्था तक राज्य के क्षेत्र में बहुआयामी परिवर्तन होते गये हैं। आधुनिक राज्य के क्षेत्र में निम्नलिखित बातें सम्मिलित हैं जिसमें सभी व्यक्तियों को रोजगार, अधिकतम आर्थिक समानता, विकलांग असक्षम तथा निर्बल वर्गों के जीवनयापन के लिए न्यूनतम् सुविधाओं की व्यवस्था करना सम्मिलित है।
- राज्य द्वारा व्यक्तियों के विकास के लिए उन समस्त सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है जो उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक समझी जाती हैं। इस दृष्टि से शिक्षा तथा स्वास्थ्य की सुविधा का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इस हेतु राज्य अपने संसाधनों को व्यवस्थित करते हुए क निश्चित स्तर तक निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करता है। इसके अतिरिक्त राज्य द्वारा स्वास्थ्य आवश्यकता को देखते हुए निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाओं तथा चिकित्सालयों की व्यवस्था की जाती है।
- राज्य द्वारा लोगों का न्यूनतम जीवन स्तर उठाने तथा सामान्य सुविधायें जुटाने का भी प्रयास किया जाता है। इसके अन्तर्गत कृषि व्यापार तथा विकास के कार्यों का नियमन एवं नियंत्रण किया जाता है। इसके अतिरिक्त राज्य के द्वारा परिवहन, संचार साधन बैंक, विद्युत कृषि के वैज्ञानिक साधनों, उद्योगों का संचालन सार्वजनिक उद्यानों, क्रीड़ा क्षेत्रों सिनेमा गृहों, रंगमंच, रेडियो, दूरदर्शन इत्यादि की व्यवस्था की जाती है।
- राज्य के द्वारा अपने नागरिकों की राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकारों की सुरक्षा का काय भी सम्पन्न किया जाता है। आज के लोकतांत्रिक युग में राज्य के अपने नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति सम्मेलन संगठन इत्यादि की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। राज्य का यह भी प्रयास रहता है कि उसके नागरिकों को पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा एवं समानता प्रदान की जाये तथा धर्म जाति, वंश, रंग तथा सम्पत्ति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न किया जाये।
- आज अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में राज्य का कार्य क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भी काफी बढ़ गया है। राज्यों के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग एवं सद्भावना का कार्य भी सम्पन्न किया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए यह एक आदर्श लक्ष्य माना गया है।
राज्य के तत्व
राज्य की परिभाषा प्रकृति एवं क्षेत्र की जानकारी के उपरांत हमारे समक्ष यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि राज्य के प्रमुख निर्माणकारी तत्व क्या हैं, इनका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है.
1 जनसंख्या
राज्य एक मानव संघ है। इस दृष्टि से राज्य का प्रथम निर्माणकारी तत्व जनसंख्या ही है। एक राज्य की जनसंख्या कितनी रखी जाये इसका कोई निश्चित उत्तर देना सम्भव नहीं है। प्लेटो ने अपनी पुस्तक 'दि लाज' में आदर्श राज्य के लिए जनसंख्या 5040 निर्धारित की थी जबकि रूसो ने यह संख्या १0,000 निर्धारित की थी। परन्तु वर्तमान समय में विश्व में जहाँ एक अरब की जनसंख्या से अधिक वाले भारत एवं चीन जैसे राज्य हैं तो दूसरी ओर सैन मैरिनो तथा मालदीव जैसे राज्य भी हैं जिनकी जनसंख्या कुछ हजार है। इस संदर्भ में अरस्तू का सुझाव ध्यान देने योग्य है कि राज्य की जनसंख्या न तो इतनी विशाल हो कि यह प्रशासनिक समस्या बन जाये तथा इतनी कम होनी चाहिए कि लोग शान्ति एवं सुरक्षा के साथ न रह सकें। राज्य की जनसंख्या इतनी अवश्य होनी चाहिये लोग सुखी एवं आत्मनिर्भर जीवन बिता सकें।
2 प्रदेश
राज्य का दूसरा आवश्यक तत्व प्रदेश है। निश्चित भू-भाग के बिना कोई राज्य नहीं बन सकता। घुमक्कड़ बाजारों या कबीलों के समूह को राज्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनका कोई निश्चित प्रदेश नहीं होता। जनसंख्या की ही भांति राज्य की कोई मानक सीमा या क्षेत्र निश्चित नहीं किया जा सकता। प्रादेशिक आकार की दृष्टि से रूस, कनाडा, चीन जैसे बड़े राज्य भी आधुनिक विश्व में जाते हैं तो किसी मालदीप, भूटान जैसे छोटे राज्य भी है। राज्य की जनसंख्या एवं क्षेत्रफल में पर्याप्त संतुलन का बने रहना परम आवश्यक है अन्यथा इससे राज्य की एकता अखण्डता एवं सामान्य व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।
3 शासन
शासन राज्य की आत्मा है। यह समाज की इच्छा को लागू करता है यदि राज्य को सभ्य जीवन की प्रथम शर्त माना गया है तो यह शासन के अस्तित्व के कारण ही है जो कानून एवं व्यवस्था की रक्षा करता है तथा उत्तम जीवन को सम्भव बनाता है। राज्य के शासन का गठन ऐसा होना चाहिए कि वह शांति तथा सुरक्षा की स्थितियों को बनाये रखने के लिए कानून लागू करे। यदि शासन नहीं होगा तो अराजकता उत्पन्न होगी तथा राज्य का अंत हो जायेगा
4 प्रभुसत्ता या संप्रभुता
संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च शक्ति होती है जो उसे अन्य समूहों की अपेक्षा अधिक उच्च स्थान प्रदान करती है। संप्रभुता के दो पक्ष हैं- आंतरिक एवं बाह्य । आंतरिक संप्रभुता का अर्थ यह है कि राज्य के भीतर कोई ऐसी संस्था या समूह नहीं हो सकता जो इसकी बराबरी का दावा करे। वाह्य संप्रभुता का अर्थ है कि राज्य किसी विदेशी नियंत्रण से सर्वथा मुक्त है। यह बात अलग है कि कोई किसी राष्ट्र मण्डल या संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता स्वीकार करके स्वेच्छापूर्वक कोई अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व स्वीकार कर ले। संप्रभुता का अस्तित्व कानून के रूप में प्रकट होता है। यही कारण है कि राज्य का कानून सभी सम्बन्धित पक्षों के लिए अनिवार्य माना जाता है तथा उसका उल्लंघन होने पर दण्ड दिया जाता है.
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