लोकतंत्र सम्बन्धी विभिन्न सिद्धांत :उदारतावादी दृष्टिकोण विशिष्टवर्गवादी बहुलवादी मार्क्सवादी सिद्धान्त | Theories of democracy in Hindi
लोकतंत्र सम्बन्धी विभिन्न सिद्धांत :उदारतावादी दृष्टिकोण विशिष्टवर्गवादी बहुलवादी मार्क्सवादी सिद्धान्त
लोकतंत्र सम्बन्धी विभिन्न सिद्धांत
आधुनिक विश्व के अधिकांश राज्य लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं। यहां तक कि एक बार हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की बात करते हुए अपने शासन को 'जर्मन लोकतंत्र कहना पसंद किया था। कहीं पर लोकतंत्र को राज्य का रूप माना गया है तो कहीं पर इसे समाज और जीवन का ढंग कहा गया है। ऐसी स्थिति में स्वीकार करना होगा कि लोकतंत्र सम्बन्धी विचारों में आजकल बहुत अन्तर आ गया है। अतः यह वैचारिक अन्तर लोकतंत्र के सिद्वान्तों, आदर्शों एवं मूल्यों में भी दृष्टव्य है। इस कारण लोकतंत्र के अनेक दृष्टिकोण सामने आए हैं जो इस प्रकार है- (1) लोकतंत्र का पारम्परिक उदारवादी दृष्टिकोण (2) लोकतंत्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त ( 3 ) लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्वान्त (4) ) लोकतंत्र का मार्क्सवादी दृष्टिकोण (5) लोकतंत्र का समाजवादी दृष्टिकोण |
लोकतंत्र का परम्परिक उदारतावादी दृष्टिकोण -
- पारम्परिक उदारतावादी सिद्वान्त को प्रतिष्ठित, लोकप्रिय सिद्वान्त भी कहा जाता है। यह सिद्वान्त पिछली करीब तीन शताब्दियों में विकसित हुआ और यह किसी एक दर्शन, लेखन आन्दोलन का परिणाम न होकर अमेरिका, इग्लैण्ड तथा अन्य पश्च्चिमी देशों के राजनीतिक आन्दोलन व्यवहार तथा चिंतन का परिणाम है। आधुनिक युग के आरम्भ के साथ ही इस सिद्वान्त का विकास देखा जा सकता है। 'पुर्न जागरण' तथा धर्मसुधार के सांस्कृतिक ताकि धार्मिक आन्दोलनों ने व्यक्ति के मूल्य को सर्वोच्च मानते हुए व्यक्ति को ही अपने चिंतन का केन्द्र-बिन्दु स्वीकार किया। हॉब्स (1588-1679) ने इसी आधार पर 17वी शताब्दी में लोकतंत्र के महत्वपूर्ण नियम को स्पष्अ किया। हॉब्स ने कहा कि राज्य सरकार तथा अन्य संस्थाएं व्यक्तियों के आपसी समझौते के परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई है। इस समय अंग्रेज विचारक जान लाक (1632-1704) ने इग्लैण्ड की गौरव क्रांति (1688) के अवसर पर यह विचार व्यक्त किया कि मनुष्य के कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं जिनहे उनसे कोई नहीं छीन सकता; इनमें 'जीवन' स्वतंत्रता और सम्पत्ति के अधिकारों के सिद्वान्त के आधार पर सरकार के खिलाफ बगावत को उचित ठहरा कर सीमित सरकार के लोकतांत्रिक सिद्धान्त को स्थापित किया ।
- अठारहवीं शताब्दी में व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रताओं को संरक्षण रखने के लिए तथा सरकार को निरंकुश होने से बचाने के लिए मांटेस्क्यूय ने शक्तियों के पृथकरण का सिद्वान्त दिया। रूसों ने लोकतंत्र की आत्मा के स्वरूप में 'सामान्य इच्छा' का सिद्वान्त प्रतिपादित किया। रूसों ने जनता द्वारा राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा लेने को लोकतंत्र की मुख्य विशेषता माना । मैबले, दिद 1, हैलविशियस, होलबैक विद्वानों ने व्यक्तियों की 'जन्मसिद्ध समानता' के विचार को प्रतिपादित करके लोकतंत्र को एक ओर नवीन आधार स्तम्भ प्रदान किया। अमेरिका ( 1776) तथा फ्रांस (1789) की क्रान्तियों ने राजनीतिक क्षेत्र में क्रान्ति के माध्यम से लोकतंत्र को व्यवाहारिक रूप देने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया । अमेरिका के क्रान्तिकारियों जेकरसन, मेडीसन के प्रयासों से अमेरिकी संविधान उदारवादी लोकतंत्र के राजनीतिक घोषणापत्र के रूप में उभरकार सामने आया। आर्थिक स्तर पर एडम स्मिथ, रिकार्डो, माल्थस जैसे अर्थशास्त्रियों ने राज्य के हस्तक्षेप को अस्वीकार करते हुए सीमित सरकार के विचार को आर्थिक आधार प्रदान किया। सबके साथ ही धार्मिक क्षेत्रों में राज्य की दखलंदाजी को भी उदारवादी लेखकों ने विरोध किया और इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा विकसित हुई ।
- 19वीं शताब्दी में बेंथम, जेम्स मिल, जे०एस० मिल ने उपयोगितावादी दार्शनिकों ने 'अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख के आधार पर लोकतंत्र का समर्थन किया। इस परिपेक्ष्य में सर्वप्रथम बेथ ने प्रतिनिधी सरकार तथा वयस्क मताधिकार के चिारों को पेश किया। बेथम ने गुपत मतदान, संसद की अवधि एक साल प्रेस तथा विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मतदान को कारगर बनाने के लिए शिक्षा के महत्व पर जोर दिया। बेथम ने लोकतंत्र को एक उपयुक्त शासन व्यवस्था, कानून व्यवस्था, समाज में बनाये रखने के लिए एकमात्र शासन विधि बताया। मेकरसन के शब्दों में इन्होने रक्षात्मक लोकतंत्र की आधारशिला रखी।
- जे0एस0 मिल ने लोकतंत्र के नैतिक पहलू की ओर ध्यान केन्द्रित किया साथ ही लोकतंत्र को मानवीय विकास का एकमात्र साधन माना । मिल ने मतदान की शक्ति को केवल शासितों को नियन्त्रित करने की ही शक्ति नहीं माना। उनहोने इस शक्ति को जनता के राजनीति में हिस्सा लिए जाने का उचित माध्यम माना। उनका दृढ़ विश्वास था कि अधिकार एवं स्वतंत्रता के माध्यम से जनता दायितवों का अच्छी तरह अनुपालन करती है। मिल के विचारों के आधार पर ही टी. एच. ग्रीन तथा 20वीं शताब्दी में लिंजसे, हॉबहाउस, बार्कर, लास्की, मैकाइवर, डेवी पैनोक आदि ने लोकतंत्र के विकासवादी पक्ष को मजबूत किया तथा उक्त सिद्वान्त को नवीन दिशा प्रदान की। इनके प्रयासों से बीसवी सदी में वयस्क मताधिकार मिला तथा राजनीति में जनता की भागेदारी उभरकर सामने आया। बीसवीं शताब्दी में पूंजीवादी व्यवस्था की आवश्यकता यह थी कि राज्य आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे। इसके परिणाम स्वरूप पूंजवादी अर्थव्यवस्था उदारवादी कल्याणवादी लोकतंत्रीय सरकार में बदल गई।
- 20वीं शताब्दी में लोकतंत्र उदारवादी सिद्वान्त के विकास में लास्की का महत्वपूर्ण योगदान है। लास्की ने जनता को अधिक से अधिक शिक्षित तथा योग्य बनाये जाने पर जोर दिया और लोकतन्त्र के आदर्श एवं सस्ंथाओं की विस्तृत व्याख्या की। राज्य की निरंकुश प्रभुसत्ता के कानूनी सिद्वान्त पर प्रहार करते हुए उन्होंने सत्ता को विभिन्न समूहों एवं सस्थाओं में विभाजित करने का बहुलवादी दृष्टिकोण दिया । लास्की ने सम्पुर्ण समाज के आर्थिक, समाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों तक इसके विस्तार का सुझाव दिया। उसने लोकतन्त्रीय सरकार को जनता के आर्थिक हितो को संरक्षक बनाकर लोकतन्त्र को एक विस्तृत आकार प्रदान किया।
- इस सिद्धान्त के अनुसार लोकतंत्र से आशय मात्र शासन व्यवस्था से न होकर ऐसी शासन विधि से है जिसके द्वारा नागरिक राज्य कार्यों में अपनी भागेदारी को सुनिश्चित करते हैं अपनी योग्यताओं एवं सक्षमताओं का अधिकतम विकास करते हुए स्वस्थ समाज के निर्माण की आधारशिला बन सकने का प्रयास अपने हितों की पूर्ति के लिए करते हैं। लोकतंत्र का मुख्य ध्येय व्यक्ति का चहुमुखी विकास एवंम् सर्वकल्याण करना है। मिल ने इस अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है- "समाज की सभी जरूरतों को केवल वही सरकार पूर्णरूपेण संतुष्ट कर सकती है। जिसमें सभी लोग हिस्सा ले, छोटे-से छोटे कार्य में भी जनता का भाग लेना महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक स्थान में जनता का भाग इतना अधिक होना चाहिए जितना समाज का सामान्य कल्याण अनुमति दे, और इससे अधिक अच्छी बात कोई नहीं हो सकती कि सबको राज्य की सम्प्रभुत्ता में हिस्सा मिलें । अतः प्रजातन्त्र में राजनितिक निर्णय मे जनता का योगदान को आवश्यक माना गया चाहे वह प्रत्यक्ष हो अथवा अप्रत्यक्ष.
उदार लोकतन्त्र सिद्धांत के लक्षण
- उदार लोकतन्त्र के सिद्वान्त को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न तरह से स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए उदार लोकतन्त्र के कुछ विशिष्ट लक्षणों पर प्रकाश डाला राबर्ट सी) बोन ने उदार लोकतन्त्र के, लिए निम्नाकित लक्षणों को आवश्यक माना - (1) नीति - निर्माताओं के निर्वाचन में सहभागिता, (2) भावीनीति-निर्माताओं के दो या दो से अधिक प्रतियोगी समूहो में से पसन्द के विकल्प (3) मताधिकार की पूर्ण समानताः ( 4 ) प्रतिनिधित्व की अधिकतम एकरूपता (5 ) मतदाताओं को पसन्द तथा वैद्य राजनीतिक समूहों को राजनीतिक गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता; (6) निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा लम्बे विचार-विमर्श के बाद बहुमत से नीति निर्णयों का निर्धारण; ( 7 ) समय-समय पर नियमित सुझावों के माध्यम से निवाचित प्रतिनिधियों का मतदाताओं के प्रति उत्तरादायित्व.
एलेन बाल ने उदारवादी लोकतंत्र के निम्नलिखित लक्षण बताये हैं
(1) एक से अधिक राजनीतिक दल होते हैं। दल राजनीतिक सत्ता के लिए एक-दूसरे से खुलकर प्रतियोगिता कर सकते हैं
(2) सत्ता के लिए प्रतियोगिता छिपाव दुराव नही बल्कि खुलकर होती है। यह प्रतियोगिता स्थापित स्वीकृत प्रतियोगिता के आधार पर होती है।
(3) राजनीतिक सत्ता से जुड़े हुए पदों पर चुनाव या नियुक्तियाँ अपेक्षाकृत खुले रूप में होती हैं।
(4) व्यापक मताधिकार पर आधारित चुनाव समय समय पर होते रहते हैं।
(5) सरकारी निर्णयों को प्रभावित करने के लिए प्रभावक गुटों को कार्य करने का अवसर मिलता है। ट्रेड यूनियनों तथा अन्य संघों पर सरकार का कड़ा नियंत्रण नहीं होता है।
(6) अभिव्यक्ति तथा धर्म की स्वतंत्रता और स्वेच्छाचारी ढंग से बन्दी न बनाए जाने, आदि की नागरिक स्वतंत्रताएं सरकार द्वारा मान्य होती हैं और सरकार उनकी रक्षा करती है।
(7) स्वाधीन न्यायपालिका होती है
(8) टेलीविजन, रेडियो, अखबार जेसे जनसमपर्क माध्यमों पर सरकार का एकाधिकार नहीं होता है। इन्हे कुछ सीमाओं में रहकर सरकार की आलोचना करने की भी स्वतंत्रता होती है।
पीटर एच0 मर्कल ने अपनी पुस्तक 'पॉलिटिकल कण्टीन्यूटी एण्ड चेन्ज' में उदार लोकतंत्र के चार लक्षणों को आधारभूत माना है (1) विचार-विमर्श द्वारा शासन ( 2 ) बहुमत का शासन (3) अल्पसंख्याकों के अधिकारों को मान्यता (4) संविधानिक सरकार ।
लोकतंत्र विशेषताएं
लोकतंत्र के परमपरागत उदारवादी दृष्टिकोण की विशेषताएं निम्नांकित हैं
(1) व्यक्ति एक राजनीतिक प्राणी है। उसमें विवेक होता है जिससे वह अपना हित-अहित में सोचने की क्षमता को रखता है। इस आधार से सब व्यक्ति समान है।
(2) शासन का संचालन जनता द्वारा होना चाहिए। शासन कार्यों में जनता अवश्य भागेदारी ले | इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है।
(3) जनता निर्वाचन प्रणाली के द्वारा चुनाव में अपने प्रतिनिधियों को चुनकर उनको नियंत्रित करते हुए शासन के कार्यों ने हिस्सा ले सकती है। सरकार का निर्माण बहुमत द्वारा ही होना चाएि तथा जनता की इच्छा सरकार की शक्ति का आधार हो ।
(4) प्रतिनिधियों को सदेव इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक सत्ता जनता की अमानत है अतः उसे हमेशा जनहित तथा सामान्य कल्याण सम्बन्धी निर्णय लेने चाहिए।
(5) लोकतंत्र का उद्देश्य सामान्यहित का संरक्षण करना एवं व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना होना चाहिए।
(6) लोकतंत्रीय सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी रहे। जनता का सरकार पर नियंत्रण अवश्य स्थापित हो।
(7) सरकार सीमित होनी चाहिए।
(8) सरकार का मुख्य कर्त्तव्य जनता के अधिकारों की रक्षा करना है जनता को अधिक से अधिक शिक्षित होना चाहिए तभी वह जागृत रखकर अपने अधिकारों की रक्षा करने में समर्थ हो सकती है।
(9) जनता को वाद-विवाद, लिखने-बोलने अपने विचारों की अभिव्यक्ति तथा संगठित होकर काम करने के अधिकार की स्वतंत्रता अवश्य होनी चाहिए तथा समय-समय पर राज्य के कार्यो के बारे में जनता को सरकार द्वारा अधिक से अधिक अवगत कराया जाना चाहिए ।
10. सरकार को जनता की महत्ता को समझकर जनता को सरकार द्वारा पूरी इज्जत दी जानी चाहिए।
मूल्यांकन -
अन्य सिद्वान्तों की भांति लोकतन्त्र का यह परम्परावादी व प्रतिष्ठित सिद्वान्त भी आलोचनाओं से घिरा हुआ है। सुप्पीटर ने इस सिद्वान्त की आलोचना की। सुम्पीटर ने इस सन्दर्भ में कहा कि सामान्य हित या सामान्य इच्छा का पता लगा पाना असम्भव है।" इस सिद्वान्त के अन्य दोष निम्नवत है-
1. राजनीतिक समानता जैसी कोई वस्तु नही होती। प्रत्येक समाज में विशिष्ट वर्ग का अस्तित्व मुक्त बना रहता है।
2. राजनीति में जनता की भागेदारी लोकतन्त्र को सफल नहीं बनाती। बल्कि उसे असफल बना देती है जिससे लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में परिवर्तित हो जाता है।
3. यह सिद्वान्त लोकतन्त्र में व्यक्ति की भूमिका को महत्वपूर्ण मानता है तथा सम्पूर्ण व्यवस्था के सन्तुलन पर ध्यान नहीं देता।
4. इसे अव्यावहारिक एंव काल्पनिक कहा गया क्योंकि इस सिद्वान्त की मान्यता है कि व्यक्ति सरकार द्वारा नीति-निर्धारण की जटिल प्रकियाओं में सक्रिय योगदान कर सकता है जबकि साधारण व्यक्ति नीति निर्धारण जैसी जटिल प्रक्रिया को नहीं समझ सकता।
5. यह सिद्धान्त कोरा आर्दशवादी सिद्धान्त है क्योंकि यह जीवन की वास्तविकताओं पर ध्यान नहीं देता है।
इन दोषों के कारण ही लोकतन्त्र के इस सिद्धान्त को अनेक लेखकों ने संशोधित कर विशिष्टवर्गीय तथा बहुलवादी सिद्धान्तों का निरूपण किया है।
लोकतन्त्र का विशिष्टवर्गवादी सिद्धान्त
लोकतन्त्र का विशिष्ट वर्गवादी सिद्धान्त मूल रूप से समाजशास्त्र के क्षेत्र में व्याख्या विकसित किया गया है इसके द्धारा यह बोध होता है कि समाजिक सगंठन के अन्दर व्यक्ति किस तरह का व्यवहार करते है ? बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दौर में इटली के दो सुविख्यात समाज वैज्ञानिकों-विल्फ्रेड पैरेटो (1876-1923) और गीतनो मोस्का ( 1858-1941 ) ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि किसी भी समाज या संगठन का अन्तर्गत प्रमुख निर्णय सिर्फ गिने-चुने लोग ही करते है, चाहे उस संगठन का बाहरी रूप कैसा भी क्यों न हो। “इसी सन्दर्भ में एक ओर जर्मन समाजवैज्ञानिक राबर्ट मिशेल्स (1876-19369 ) ने 'अल्पतन्त्र का लौह नियम' का प्रतिपादन करते हुए यह विचार व्यक्त किया कि अधिकांश व्यक्ति स्वभाव से जड़, आलसी और दब्बू प्रवृति वाले होते है जो अपना शासन स्वयं चलाने में असमर्थ होते है। इसलिए नेतागढ़ अपनी वाकपटुता, अनुनय-विनय आदि के बल पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करके सत्ता पर आधिकार स्थापित कर लेते है। समाज में चाहे कोई भी शासन प्रणाली क्यों न अपनाई जाए, वह अवश्य ही अल्पतन्त्र या गिने-चुने लोगों के शासन का रूप धारण कर लेती है। इन समाज वैज्ञानिक सिद्धान्तों ने लोकतन्त्र की सम्भावनाओं को चुनौती दी तथा इस समस्या पर नये सिरे से विचार करने की प्रेरणा दी है। अनेक राजनीतिशास्त्रियों ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए उदार लोकतन्त्र की अभिनव व्याख्या पेश की जिसमें विशिष्टवर्गीय सिद्धान्त को उपयुक्त स्थान दिया गया। इन लेखकों के द्वारा जो विचार प्रस्तुत किये गये है, उन्हें सामूहिक रूप से 'लोकतन्त्र का विशिष्टवर्गवादी सिद्धान्त' कहकर सम्बोधित किया जाता है। इनमें जोसफ ए०शू०पीटर, आरो, सारटोरी, मैंन्हाइम के विचार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन सभी के मतों का पृथक-पृथक उल्लेख निम्नवत है।-
1. मैंनहाइम के विचार
कार्ल मैं हाइम ने अपनी विख्यात कृति 'आइडियोलोजी एंड यूटेपियाः इन इंटोडक्शन टू द सोश्योलाजी ऑफ नॉलिज" विचारधारा और कल्पनालोक ज्ञान के समाज विज्ञान का परिचय 1929 में यह लिखाः लोकतन्त्रीय व्यवस्था में जब समाज नीति-निर्माणका कार्य विशिष्ट वर्ग को सौप देता है तो इस प्रकार का लोकतन्त्रशून्य हो जाता है। जनसाधारण एक निश्चित अन्तराल के पश्चात वोट डालकर अपनी आकाक्षाओं को प्रकट कर देते है। अपने मताधिकार के बल पर वे नेताओं को बहुमत के हित में निर्णय करने के लिए बाहय कर सकते है। विशिष्टवर्ग के शासन और लोकतन्त्रीय शासन के मध्य सामंजस्य स्थापित के करने के लिए मैन्हाइम ने सुझाव दिया है कि नेताओं का चुनाव योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए तथा विशिष्टवर्ग और जनसाधारण के मध्य दूरी कम की जानी चाहिए।
2. जोसेफ ए0 शूग्पीटर के विचार
जोसेफ ए0 शूग्पीटर ने अपनी प्रसिद्ध कृति "कैपिटलिज्म सोशलिज्म एण्ड डेमोक्रेसी पूंजीवाद, समाजवाद और लोकतन्त्र 1942 के अन्तर्गत यह तर्क प्रस्तुत किया कि किसी भी शासन पद्धति पहचान उसकी संस्थाओं से होती है जिसमें यह देखा जाता है तथा उन्हें अपने पद से कैसे हटाया जाता है। इस दृष्टि से लोकतन्त्रीय प्रणाली अन्य शासन प्रणालियों से अपनी अलग पहचान बनाती है। इस बात एक कटु सत्य है कि लोकतन्त्र में राजनीतिक निर्णय 'नेताओं के द्धारा किये जाते है, जनसाधारण के द्वारा नहीं किए जाते है परन्तु जनसाधारण से वोट प्राप्त करने के लिए वहां नेताओं में खुली प्रतियोगिता होती है। अतः अन्य शासन प्रणालियों की अप्रेक्षा लोकतन्त्र की विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिकनेता असीम सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकते । इसके विपरीत, यहां नेता राजनीतिक बाजार में अधिकाधिक ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए अधिक से अधिक आकर्षक नीतियों एंव कार्यक्रमों को पेश करने की चेष्टा करते है। इस तरह लोकतन्त्र में जनसाधारण को अपनी पसन्द की नीतिया एवंम कार्यक्रम को चुनने का अवसर प्राप्त हो जाता है। अन्य शासन प्रणालियों में यह सम्भव नहीं है।
3. रेमंद आरों का विचार
रेमोंद आरो ने अपनी पुस्तक "सोशल स्टक्चर एंड द रूलिंग क्लास" समाजिक संरचना और अन्य शासक वर्ग 1950 के अन्तर्गत यह तर्क प्रस्तुत किया कि लोकतन्त्र और शासन पद्धतिओ के विशिष्ट वर्गों के मूलभुत अन्तर देखने को मिलता है । सोवियत प्रणाली और लोकतन्त्र मैं अन्तर कर हुए आरों ने लिखा है कि जहां सोवियत तरह के समाज मे एक ही विशिष्ट वर्ग को शासन में एकाधिकार प्राप्त होता है' उदार लोकतन्त्रमे इस प्रकार का नहीं होता यहा विशिष्ट वर्ग की बहुलता तथा शासन में नियन्त्रण एवं संन्तुलन की ऐसी व्यवस्था पाई जाती है जिसमें यहाँ अ प्रयोग सभव नहीं होता । उदार लोकतन्त्र में सम्पूर्ण शासन लोगों के सुलह-समझौते के आधार पर चलता है और शासक सदैव यह महसूस करते रहते है जब तक वे जनमत का आदर करते रहेगे कि जब तक वे जनमत के प्रति संवेदनशील रहेंगे, और जब तक वे जनता के दिल से जगह बना सकेंगे। तभी तक वे सत्ता में रह सकेगे। अन्यथा कोई दूसरा विशिष्ट वर्ग उनका स्थान सभालने के लिए निरन्तर तत्पर रहता है।
4. सारटोरी के विचार
ज्योवानी सारटोरी ने अपनी चर्चित पुस्तक 'डेमोक्रेटिक थ्योरी लोकतन्त्रीय सिद्धान्त" 1958 अन्तर्गत यह तर्क दिया कि लोकतन्त्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत विशिष्ट वर्ग महत्वपूर्ण भूमि है। यह विशिष्ट वर्ग चुनाव के क्षे00ने उतरकर परस्पर संर्घष करते है। विशिष्ट वर्ग के अस्तित्व को लोकतन्त्र की अपूर्णता कदापि नहीं समझना चाहिए। चूंकि जनसाधारण अपने आप शासन चलाने में असमर्थ होते है इसलिए शासन सचमुच सुयोग्य नेताओं का कार्य है। अगर व्यक्तियों को सही नेतृत् नहीं मिलेगा तो लोकतंत्र विरोधी विशिष्ट वर्ग उन्हें पथभ्रष्ट कर देगा। सारटोरी ने लोकतंत्र के अन्तर्गत नेताओं की भूमिका को विशेष महत्व प्रदान किया। उसके शब्दों में नेताओं को जनसाधारण की शिक्षा की जिम्मेदारी भी संभालनी चाहिए, क्योंकि जनसाधारण स्वयं उतना प्रबुद्ध नहीं होते।
लोकतंत्र के विशिष्ट वर्गीय दृष्टिकोण के लक्षण निम्नलिखित है:
(1) सरकार 'जनता के द्वारा' नहीं हो सकती, 'जनता के लिए' हो सकती है।
(2)लोकतंत्र वह है जहां जनता केवल चुनाव के द्वारा अपने विशिष्ट वर्ग को चुनती है।
(3) बिना विशिष्ट वर्ग के प्रजातंत्र नहीं हो सकता, केवल भीड़तंत्र हो सकता है।
(4) राजनीतिक निर्णय लेने का कार्य केवल विशिष्ट वर्ग का है, आम जनता का नहीं।
विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त की विशेषताएं- लोकतंत्र की सफलता के लिए विशिष्ट वर्ग में निम्नांकित विशेषताएं होनी चाहिए:
1. लोकतात्रिक मूल्यों तथा लोकतंत्र के खेल में विशिष्ट वर्गों का विश्वास एवं आस्था।
2. विशिष्ट वर्ग की नियुक्ति समाज के विभिन्न वर्गों, में से होनी चाहिए।
3. जनता विशिष्ट वर्ग के मामलों में अधिक हस्तक्षेप न करें।
4. विशिष्ट वर्ग को योग्यता एवं अनुभव अच्छा होना चाहिए।
5. विशिष्ट वर्गों की जनता से अधिक पूरी न हो, बल्कि उनमें आपसी तालमेल तथा विचारों का आदन प्रदान बन रहे।
6. विशिष्ट वर्गों में सत्ता के लिए प्रतियोगिता हो जो चुनाव के द्वारा ही व्यक्त हो ।
7. विशिष्ट वर्ग को विस्तृत होना चाहिए ताकि योग्य एवं क्षमतावान, व्यक्ति इसमें प्रवेश पा सके।
विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त का मूल्यांकन
लोकतंत्र का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त व्यावहारिक रूप में सत्य के नजदीक होने के कारण महत्वपूर्ण है। किन्तु फिर भी इसके प्रमुख आलोचक हुए जिनमें डकंन तथा ल्यूक्स, डेविस, बाटॅमोर, गोल्ड स्मिथ, वाकट, बैकरेक, पैट्समेन, प्लामनाज आदि ने इस सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधार पर की-
(1) यह सिद्धान्त अपना विश्वास जनता में रखकर नेताओं के विशिष्ट वर्ग में रखता है। जिस कारण यह लोकतंत्र को जनसाधारण से दूर रखना चाहता है।
(2) यह सिद्धान्त रूढ़िवादी है। यह सिद्धान्त परिवर्तन का विरोधी है तथा मौजूदा व्यवस्था का समर्थक है .
(3) यह सिद्धान्त, लोकतंत्र का उद्देश्य मानव का विकास तथा कल्याण न मानकर मानव का उद्देश्य लोकतंत्र का स्थायित्व तथा कार्य कुशलता मान लेता है।
(4) यह सिद्धान्त लोकतंत्र को राजनीतिक व्यवस्था मात्र स्वीकार करता है तथा इसके महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक को नजर अंदाज कर देता है।
(5) यह सिद्धान्त विचारधारा एवं मूल्यों को महत्वपूर्ण नहीं मानता।
(6) यह सिद्धान्त नेताओं को विशेष महत्व देता है तथा सफल लोकतंत्र के लिए अच्छी जनता को इतना महत्वपूर्ण नहीं मानता जितना कि अच्छे नेताओं का।
(7) यह सिद्धान्त राजनीतिक समानता का विरोधी है तथा असमानताओं का मूलभूत मानना है।
(8) विशिष्ट वर्ग की उच्च योग्यता का आधार क्या होना चाहिए इस विषय ने यह सिद्धान्त पूर्णतः अस्पष्ट है।
(9) यह सिद्धान्त जनमत को नगण्य मानता है तथा इस बात से इनकार करता है कि जनमत सरकार को बनाता है। इसके विपरीत यह साबित करने की कोशिश करता है कि सरकार एवं शासक विशिष्ट वर्ग ही जनमत को तैयार करते हैं।
(10) यह सिद्धान्त जनता के प्रति सरकार के उत्तरादायित्व को स्वीकार करता है, क्योंकि सक्रिय, योग्य, क्षमतावान विशिष्ट वर्ग के लोग अयोग्य तथा निष्क्रिय मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी कैसे हो सकते हैं?
लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त
- लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त लोकतंत्र के विशिष्ट वर्गवादी सिद्धान्त के साथ निकटता से संलग्न है। जोसेफ शुम्पीटर और रेमोंद आरों जैसे विचारकों ने उदार समाज में विशिष्ट वर्गों की बहुलता की चर्चा की थी। इस दृष्टि से उनके चिंतन में लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धान्त की ओर रूझान का संकेत मिलता है।
- बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही यह स्वीकार किया जाने लगा था कि राजनीति में व्यक्ति अकेला नहीं, बल्कि समान हितों वाली संस्थाओं एवं समूहों के माध्यम से भाग लेता है। इसके साथ ही सरकारी निर्णयों में सम्पूर्ण समाज के विभिन्न दवाब समूहों की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना गया। एफ. ए. बेंटली ने 'द प्रॉसेस ऑफ गवर्नमेंट ( शासन प्रक्रिया ) 1908 में यह विचार व्यक्त किया कि लोकतंत्र एक प्रकार का राजनीतिक खेल है जिसमें भिन्न-भिन्न तरह के समूह भाग लेते हैं। इसके पश्चात् डेविड टूमैन ने 'द गवर्नमेंटल प्रासेस (शासकीय प्रक्रिया ) 1951 में यह व्याख्या प्रस्तुत की लोकतंत्रीय सरकार सार्वजनिक दवाब का केन्द्र-बिन्दु होती है, इसका मुख्य कार्य ऐसी नीतियों का निर्माण करना है जिनमे इन समूहों की सबसे प्रमुख सामान्य माँग की झलक मिलती है। टूमैन ने इस पुस्तक में बहुलवादी समाजों की राजनीति में विभिन्न गैर रानीतिक सामाजिक-आर्थिक समूहों की भूमिका को सराहा और इन्हें लोकतंत्र के स्वरूप को बनाए रखने में सहायक माना।
- समकालीन राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत रार्बट डॉल ने अपनी पुस्तक 'ए प्रिंफेस टू डेमोक्रेटिक थ्योरी' में लोकतंत्रीय प्रक्रिया के ऐसे प्रतिरूप को जन्म दिया है जिसे उसने बहुलतंत्र कहा है। इस सकंल्पना के अनुसार लोकतंत्रीय समाज में नीति निर्माण की प्रक्रिया वाह्य रूप से देखने में चाहे कितनी ही केन्द्रीकृत क्यों न प्रतीत हो वास्तव में यह अत्यन्त विकेन्द्रीकृत प्रक्रिया है। इसके अन्तर्गत अनेक स्वायत समूह आपस में परस्पर समझौता या सौदेबाजी करते हैं। अतः सार्वजनिक नीति उन सब समूहों की परस्पर क्रिया का परिणाम होती है जो उससे सम्बन्ध रखने वाले विषय में अभिरूचि का दावा करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार नीति-निर्माण में सरकार की भूमिका बहुत कम रह जाती है। क्योंकि वह विभिन्न स्वायत्त समूह को केवल सहमति की स्थिति तक पहुँचने में सहायता प्रदान करती है।
- लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धान्त की एक मुख्य विशेषता यह है कि इस सिद्धान्त के अनुसार राजनीति में विशिष्ट वर्ग की भूमिका का महत्व घट जाता है।
सिद्धान्त के आधार:- इस सिद्धानत के प्रमुख आधार निम्नवत हैं-
(1) इस सिद्धान्त का पहला आधार यही है कि व्यक्ति रानीति में हिस्सा संस्थाओं एवं सगठनों के माध्यम से लेता है।
(2) सरकार के विभिन्न अगों व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका में सत्ता का विभाजन होना चाहिए तथा सरकार के प्रत्येक अंग ऐसी स्थिति में होने चाहिए कि वह दूसरे पर अंकुश ला सकें।
(3) लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धान्त का एक आधार यह है कि जन साधारण को राज्य की अवज्ञा का अनुपालन करना चाहिए क्योंकि राजनीति निर्धारण में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
(4) सरकार व जनता के मध्य दूरी को कम करने के लिए विभिन्न जन सगठनों को महत्व दिया जा चाहिए।
सिद्धान्त का मूल्यांकन-
लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धान्त लोकतंत्र के परम्परावादी सिद्धान्त एवं लोकतंत्र के विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त का समिश्रण है। इन सिद्धान्तों की तुलना में यह सिद्धान्त अधिक प्रगतिशील एवं आशाजनक हैं। इस सिद्धान्त की आलोचना विभिन्न आधारों पर की गई है। इसमें मुख्य एवं पहला आधार यह है कि यह सिद्धान्त दवाब की राजनीति को बढ़ावा देता है जिसके फलस्वरूप सरकार कमजोर हो रही है क्योंकि सरकार दृढ़ नीतियो को बनाने तथा महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम नहीं रहती। अपनी खामियों को छिपाने के लिए सरकार को विभिन्न दवाब समूहों के प्रति समझोंतावादी रवैया अपनाना पड़ता है। दूसरा यह सिद्धान्त व्यक्ति के नैतिक मूल्यों और विवेकशील प्रकृति को मान्यता नही देता तथा व्यक्ति को सगठनों एवं समूहों के सदस्य के रूप में मान्यता देता है।
लोकतंत्र सम्बन्धी मार्क्सवादी दृष्टिकोण
- उदारवादी और मार्क्सवादी दृष्टिकोण दोनों ही 'लोकतंत्र का समर्थन करते हैं। दोनों ही लोकतंत्र को जनता का शासन मानते हैं और इस धारणा को स्वीकार करते हैं कि जनता को शासन चलाने का अधिकार मिलना चाहिए। किनतु जब व्यवहार के धरातल पर शासन चलाने की बात है दोनों में मतभेद पाया जाता है। मार्क्सवाद के समर्थक, लोकतंत्र के सिद्धान्त या लक्ष्य को प्रमुख ध्यान देते हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि शासन जनसाधारण के हित में कार्य करे उसमें जनता का शोषण न हो और यह तभी सम्भव हो सकता है जब समाज धनवान और निर्धन वर्गों में बटाँ न रहे।
- दूसरे शब्दों में, उदारवादी विचारक लोकतंत्र और पूंजीवाद की संस्थाओं में कोई विरोध नही देखते हैं। परन्तु मार्क्सवादी विचारक समाज की आर्थिक संरचना को सरे सामाजिक सम्बन्धों का आधार मानते हुए यह तर्क देते हैं कि जब तक समाज की संरचना लोकतंत्रीय नहीं होगी, तब तक राजनीतिक स्तर पर लोकतंत्र केवल आडंबर बना रहेगा। अतः वे लोकतंत्र की सार्थकता के लिए समाजवाद को अनिवार्य समझते हैं। वे उदार लोकतंत्र का बुर्जुवा लोकतंत्र की संज्ञा देते हैं.
लोकतंत्र की मार्क्सवादी आलोचना:-
(1) उदार लोकतंत्र केवल पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा करता है। क्योंकि उदार लोकतंत्र की राजनीतिक संस्थाएं पूंजीवाद की नींव पर टिकी होती है। पूंजीवादी व्यवस्था पूंजीपति वर्ग के हितों को बढ़ावा देती है और उसमें कामगारों की निरन्तर शोषण होता है अतः उदार लोकतंत्र की राजनीतिक संस्थाऐं भी पूंजीपति वर्ग के हितो को बढ़ावा देती है। उदार लोकतंत्र ’सबके हित का साधन का आडम्बर रचाकर केवल पूंजीपति वर्ग साधन करने वाली संस्थाओं, नियमों, कानूनों इत्यादि का वैधता प्रदान करता है। लोकतंत्र के अन्तर्गत आर्थिक शक्ति के साथ-साथ विचारधारात्मक शक्ति भी पूंजीपति वर्ग के हाथ में होती है। अतः कामगर वर्ग के शोषण को रोकने का कोई उपाय नहीं रह जाता।
(2) उदार लोकतंत्र समाज के वर्ग विभाजन को स्थायित्व प्रदान करता है क्योंकि जब समाज 'धनवान' और 'निर्धन' वर्गों में बटाँ रहता है तो उदार लोकतंत्र इस आर्थिक विभाजन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए तत्पर रहता है। वह बुजुर्वा समाज के उन मूल्यों को बढ़ावा देता है जो समाज के आर्थिक विभाजन को बैधता और मान्यता प्रदान करते है, लेनिन ने लिखा है "पूंजीवादी समाज का लोकतंत्र मुठ्ठी भर लोगों का लोकतंत्र है, यह धनवान लोगों का लोकतंत्र हैं, मार्क्स ने पूँजीवादी लोकतंत्र के सार तत्व को बहुत अच्छी तरह समझा है क्योंकि उसने लिखा है कि इसमें शोषित वर्गों को कुछ वर्षों के अतंराल से यह निर्णय करने की अनुमति दी जाती है कि शोषक वर्गों के कौन-कौ से प्रतिनिधि संसद में जाकर उनका प्रतिनिधित्व और दमन करेंगें।
अतः मार्क्सवाद के अनुसार उदार लोकतंत्र की संस्थाएं वर्ग- शोषण की परंम्परा को तोड़ने में है इसके विपरीत यह ऐसा साधन है जो शोषक वर्ग को निरन्तर सतारूढ़ रखने में सहायता देता है ताकि वह लगातार अपनी स्वार्थपूर्ति करता है।
विकासशील देशों में लोकतंत्र की समस्याएं
- दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात ऐशिया और अफ्रीका में अनेक देश औपनिवेशिक शासन की जकड़न से बाहर निकले। स्वतंत्र हुए देशों में अधिकतर ने लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाया। कई देशों को लोकतंत्र की स्थापना करने में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा और कुछ देश तो सैनिक शासन या तानाशाही की राह पर चल पड़े और कुछ देशों ने एकदलीक शासन अपनाया।
- विकासशील देशों के सामने कुद समस्याऐं समय-समय पर उत्पन्न होती रहती है जो विकासशील देशों के लोकतंत्र को प्रभावित करती है। इनमें से एक, जातीय समूहों का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास भिन्न-भिन्न स्तर तक हुआ है । जातीय विविधता की झलक रानीतिक संगठन में साफ दिखायी पड़ती है। एक बात तो स्पष्ट तौर पर देखी जाती है कि जातीय समूहों को प्रभावशाली समूह के हाथों जो भेदभाव, भले ही काल्पनिक हो या वास्तविक झेलना पड़ता है। और इससे लोकतंत्र में इनकी आस्था कमजोर हो जाती है।
- दूसरे अधिकांश देश आर्थिक रूप से बहुत पिछड़े हैं जिसके कारण सरकार से विकास की अपेक्षा ज्यादा रहती है। कई देशों में एक दलीय व्यवस्था है या कम से कम एक दल का प्रभुत्व है। प्रभावशाली दल, स्वाधीनता संघर्ष में कुर्बानियों या प्रभावशाली नेतृत्व के सहारे आधुनिकता और विकास के नाम पर अपना औचित्य सिद्ध करता है। तीसरे, इन देशों में उदारवादी लोकतंत्रों की तुलना में, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में शासन का हस्तक्षेप बहुत अधिक होता है। अर्थव्यवस्था के नियमन में शासन की अपेक्षाकृत अधिक दखलंदाजी आर्थिक विसंगतियों को दूर करने के लिए जरूरी है। ये विसंगतियां औपनिवेशिक शासन की देन है।
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