जल क्या है जल के कार्य |शरीर के लिए जल प्राप्ति के साधन |शरीर के लिए जल का निष्कासन जल क्या है | Water Work Uses in Hindi
जल क्या है जल के कार्य , शरीर के लिए जल प्राप्ति के साधन , शरीर के लिए जल का निष्कासन
जल क्या है जल के कार्य
- ऑक्सीजन के बाद जीवित प्राणियों के लिए जल एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। सभी प्राणियों के शरीर में जल की कुछ न कुछ मात्रा अवश्य ही रहती है। मनुष्य भोजन के बिना अनेक दिनों तक जीवित रह सकता है किन्तु जल के बिना ये असम्भव है। जल की कमी (Dehydration) से मृत्यु हो जाती है। प्रौढ़ व्यक्ति के शरीर में शिशु की अपेक्षा कम जल रहता है। दुबले-पतले व्यक्ति के शरीर में जल का भाग अधिक होता है।
जल शरीर में निम्नलिखित कार्य करता है
(1) शरीर निर्माणक कार्य:
जल शरीर में विभिन्न अंगो और द्रवों की रचना में भाग लेता है। जल शरीर की प्रत्येक कोशिका के निर्माण में सहायता करता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका और ऊतकों में इसकी मात्रा अलग-अलग होती है। जो अंग अधिक क्रियाशील रहते हैं या उनमें चयापचय की क्रियायें अधिक तेजी से होती हैं उनमें जल की मात्रा अधिक होती है जैसे - यकृत और मस्तिष्क आदि। दाँत, वसायुक्त ऊतकों तथा अस्थियों जैसे अपेक्षाकृत निष्क्रिय अंगों में जल की मात्रा क्रमश: 10 प्रतिशत होती है। माँसपेशियों में जल की मात्रा 80 प्रतिशत तक होती है।
(2) वस्तुओं को घुलनशील बनाने में:
जल एक अच्छा घोलक है जिसमें प्रायः सभी वस्तुएँ घु जाती हैं। पोषक तत्वों को कोशिकाओं में पहुँचाने के योग्य बनाने के लिए पाचन क्रिया की जरुरत होती है। पाचन क्रिया में भी जल सहायक होता है। जल पाचक रसों को तरल रूप देता है तथा पाचक अंगों में भोजन को गतिशीलता प्रदान करता है। पाचन के बाद भोज्य तत्व द्रव रुप में ही आँतों से अवशोषित होते हैं। वहाँ से ये रक्त या लसिका द्वारा ग्रहण कर लिये जाते हैं। रक्त या लसिका इन पोषक तत्वों की कोशिकाओं में पहुँचाता है। कोशिकाओं में जल के माध्यम से अनेक रासायनि क्रियायें होती रहती हैं। कोशिकाओं में बने वर्ज्य पदार्थ रक्त के द्रव में अवशोषित होकर फेफड़े तथा वृक्क में पहुँचते हैं। जहाँ से वह निष्कासित हो जाते हैं। इस प्रकार जल घोलक के रुप में जैविकीय क्रियाओं में सहायक होता है।
(3) ताप नियन्त्रक के रुप में:
जल शरीर में ताप नियन्त्रक के रुप में भी कार्य करता है। जल द्वारा ही शरीर के विभिन्न भागों में सम्बन्ध रहता है। जल का संवहन एक अंग से दूसरे अंग में होता रहता है। इस तरह पूरे शरीर की त्वचा का तापक्रम नियामक रहता है। जब भी शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है। जो हमारी त्वचा व श्वास संस्थान से जल वाष्प या पसीने के रुप में उत्सर्जित होने लगता है। जब यह जल वाष्प या पसीना बनकर उड़ता है तो वाष्प बनने के लिए जल शरीर से अतिरिक्त गर्मी अवशोषित कर लेता है। इस तरह शरीर ठण्डा बना रहता है और तापक्रम बढ़ने नहीं पाता। यही कारण है कि अत्याधिक क्रियाशील रहने पर या गर्मी के मौसम में ज्यादा पसीना आता है जिससे शरीर से जल की अधिक हानि होती है।
(4) पोषक तत्वों का हस्तान्तरण:
जल शरीर के पोषक तत्वों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने का कार्य भी करता है। उदाहरणार्थ अवशोषण किये हुए ग्लूकोज का शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचाना।
(5) शरीर के वर्ज्य पदार्थो का बाहर निकालना :
जल शरीर में उत्पन्न हुए बेकार पदार्थों को अधिकांश मात्रा में अपने में घोल लेता है और उन्हें उत्सर्जन अंगों तक पहुँचा देता है जहाँ से ये शरीर से बाहर निकाल दिये जाते हैं। कुछ वर्ज्य पदार्थ पसीने के रुप में त्वचा से भी बाहर निकाल दिये जाते हैं।
(6) शरीर के नाजुक अंगों की सुरक्षा:
विभिन्न नाजुक अंग एक थैली में बन्द रहते हैं। इस थैली में द्रव भरा रहता है। यह द्रव बाहरी झटकों और आघातों से अंगों की सुरक्षा करता है जैसे- हृदय और मस्तिष्क के चारों तरफ उपस्थित द्रव।
(7) स्नेहक (Lubricant) के रुप में कार्यः
जल सन्धियों और आन्तरिक अंगों के लिए स्नेहक का कार्य भी करता है। शरीर के आन्तरिक अंग जल से घिरे रहते हैं। जल इनको नम बनाये रखता है। इस कार्य के कारण रक्त वाहिनियों तथा कोशिकाओं के बीच के आवागमन में सुगमता रहती है। यह अंगों में क्रियाशीलता के समय घर्षण होने से भी रोकता है।
शरीर के लिए जल प्राप्ति के साधन
शरीर को जल तीन साधनों से प्राप्त होता है
पेय के रुप में जल-
पेय पदार्थ के रुप में जल की काफी मात्रा ली जाती है। यह पेयजल, चाय, कॉफी, शर्बत, जलजीरा, सूप आदि के रुप में लिया जाता है। एक व्यक्ति प्रतिदन लगभग 4 लीटर तक जल ग्रहण कर लेता है।
भोज्य पदार्थों में उपस्थित जल-
प्रत्येक भोज्य पदार्थ में भी कुछ न कुछ जल की मात्रा उपस्थित रहती है। वह भोज्य पदार्थ जो शुष्क कहलाते हैं वे भी जलयुक्त होते हैं। एक दिन के औसतन आहार, जिसमें दूध भी शामिल है, लगभग एक लीटर जल होता है।
ऑक्सीकरण द्वारा प्राप्त जल
ऊर्जा उत्पन्न करने वाले पोषक तत्वों (प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा) के चयापचय से भी जल उत्पन्न होता है जिसे "चयापचयी जल" (Metabolic water) कहा जाता है।
शरीर के लिए जल का निष्कासन
- शरीर से अधिकतर जल का निष्कासन गुर्दे (kidney) तथा त्वचा के माध्यम से होता है। कुछ मात्रा में जल फेफड़ों तथा अमाशय व आंत्र मार्ग से भी निष्कासित होता है। शरीर से जल के निष्कासन की मात्रा ग्रहण किये हुये जल की मात्रा, शरीर की अवस्था, वातावरण का तापक्रम और शरीर की क्रियाशीलता आदि से प्रभावित होती है। पेशाब की मात्रा लिये गये जल की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि शरीर से पसीना तेजी से निकल रहा हो, उस स्थिति में पेशाब की मात्रा कम जाती है।
- त्वचा से जल का निष्कासन मुख्य रुप से पसीने के रुप में होता है। जल की कुछ मात्रा त्वचा के द्वारा निरन्तर वाष्पीकृत होती रहती है। गर्मी के मौसम में अत्याधिक क्रियाशील व्यक्ति के शरीर से पसीना और वाष्पीकरण के द्वारा निकली जल की मात्रा अधिकतम 2 लीटर प्रति घण्टा के हिसाब से रिकार्ड की जा चुकी है। लीटर प्रति घण्टा जल की हानि त्वचा के द्वारा साधारण रुप से हो पाती है। यह हानि वातावरण की ताप क्रियाशीलता तथा शरीर के आकार पर निर्भर करती है।
- श्वास के द्वारा बाहर निकाली वायु में भी वाष्प की उपस्थिति होती है। सामान्य परिस्थिति में लगभग 300 मिली जल प्रतिदिन इस विधि से निष्कासित होता है। यह निष्कासन वातावरण की वायु की शुष्कता या आर्द्रता तथा व्यक्ति की क्रियाशीलता से प्रभावित होता है।
- आमाशय और आंत्र मार्ग द्वारा निष्कासित जल की मात्रा सामान्य रुप से बहुत कम होती है। लार, आमाशयिक रस, पित्त रस, पक्वाशयिक रस तथा छोटी आँत की ग्रन्थियों से लगभग 8 लीटर द्रव पाचन संस्थान में रहता है। पाचन क्रिया पूर्ण होने पर यह द्रव फिर से अवशोषित हो जाता है। अतिसार तथा वमन आदि की स्थिति में मल के द्वारा काफी मात्रा में जल निष्कासित होता है। सामान्य रुप से आमाशय आंत्र मार्ग द्वारा निष्कासित जल की मात्रा 100 मिली लीटर होती है।
संक्षेप में शरीर से जल की निरन्तर हानि निम्नलिखित माध्यमों से होती रहती है-
मूत्र के रुप में।
त्वचा से पसीने और श्वसन के रुप में।
फेफड़ों द्वारा निश्वास के रुप में।
बड़ी आँत से मल-त्याग के रुप में।
दुग्धस्रावी महिलाओं में दुग्धस्राव के रूप में।
जल ग्रहण और हानि के भारतीय अनुमानित आँकड़े निम्नलिखित तालिका के अन्तर्गत दिये गये हैं।
शरीर में जल का संतुलन
शरीर में जल का संतुलन रहना अति महत्वपूर्ण है। शरीर में ली गयी जल की मात्रा यदि निष्कासित की मात्रा के समान है तो शरीर में जल का संतुलन कहलायेगा। शरीर में सामान्य रूप से जल का संतुलन बना रहता है। यद्यपि ली गयी जल की मात्रा प्रतिदिन भिन्न-भिन्न होती है।
सामान्य जल का संतुलन
धनात्मक जल संतुलन (Positive water balance)
जल का निष्कासन कुछ हार्मोन्स के द्वारा नियन्त्रित होता है। यदि शरीर में ली गयी जल की मात्रा निष्कासित जल की मात्रा से अधिक होती है तो यह धनात्मक जल संतुलन (Positive water balance) कहलाता है। ऐसी स्थिति में जल ऊतकों में एकत्रित हो सकता है। यह रोग एडीमा (Oedema) कहलाता है। प्रोटीन की रक्त में अत्यधिक कमी होने के कारण रसाकर्षण दबाव सामान्य नहीं रहता जिससे ऊतकों में द्रव भर जाता है।
ऋणात्मक जल संतुलन (Negative water balance)
अत्यधिक वमन होना, अतिसार होना, रक्त स्राव होना, ज्वर रहना, अधिक पसीना निकलना तथा शरीर जल जाने की स्थिति में शरीर से जल निष्कासन बढ़ जाता है। इस तरह शरीर में जल की बहुत कमी हो जाती है। इस स्थिति को ऋणात्मक जल संतुलन (Negative water balance) कहते हैं। यदि शरीर से 10 प्रतिशत जल की हानि हो जाती है तो स्वास्थ्य की स्थिति गम्भीर हो जाती इस स्थिति में भोजन का अवशोषण ठीक तरह से नहीं हो पाता शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है, रक्त परिवहन ठीक नहीं रहता है तथा गुर्दे ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाते हैं।
जल की कमी का शरीर के जल-संतुलन पर प्रभाव
शरीर में मूत्र, पसीने, निश्वास और मल के रुप में जल की हानि निरन्तर चलती रहती है। यदि इसी मात्रा में जल ग्रहण नहीं किया जाये तो शरीर में जल की मात्रा कम हो जाती है और शरीर द्रवों (Body fluids) में परिवर्तन हो जाता है। मूत्र त्याग की मात्रा भी कम हो जाती है। शरीर के भार में शीघ्रता से कमी होने लगती है और कोषों का निर्जलीकरण (Dehydration) शुरु हो जाता है। यदि किसी वयस्क व्यक्ति के शरीर में जल हानि की मात्रा 5 से 10 लीटर तक पहुँच जाये तो उसे गम्भीर रुप से अस्वस्थ समझाना चाहिए। यदि शरीर में जल हानि की यह मात्रा 15 लीटर तक पहुँच व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
जल की कमी से होने वाली हानि
शरीर में अत्यधिक जल की कमी से वर्ज्य पदार्थों के निष्कासन में बाधा आती है, गुर्दे अपना कार्य सुचारु रुप से नहीं कर पाते, फलतः उनमें विका जाता है। मनुष्य का वजन लगातार गिरता जाता है। व्यक्ति को लगातार दस्त या उल्टी होने की अवस्था में निर्जलीकरण (Dehydration) की स्थिति आ जाती है। इस अवस्था में रोगी व्यक्ति उचित समय रहते उपचार न दिया जाये तो व्यक्ति की मृत्यु सम्भावित है।
जल की दैनिक प्रस्तावित मात्रा
सामान्य स्थिति में जितनी प्यास लगे उतना ही जल ग्रहण कर लिया जाता है। अतिरिक्त मात्रा में लिया गया जल गुर्दों द्वारा निष्कासित हो जाता है। सामान्य मनुष्य को प्रतिदिन 6-8 गिलास जल अवश्य पीना चाहिए। गर्म वातावरण तथा अधिक क्रियाशीलता इस आवश्यकता को बढ़ा सकते हैं।
वैज्ञानिक प्रमाण है कि एक कम क्रियाशील व्यक्ति को 1 मिली. जल प्रति आवश्यक कैलोरी की मात्रा के बराबर होता है अर्थात् यदि व्यक्ति की ऊर्जा की आवश्यकता 2500 कैलोरी है तो उसे 2500 मिली. जल आवश्यक होगा।
आहार एवं पोषण की अवधारणायें सम्पूर्ण अध्ययन के लिए यहाँ क्लिक करें
Post a Comment