वित्तीय प्रशासन के उद्देश्य एवं महत्त्व |आधुनिक युगों में वित्तीय प्रशासन की महत्ता के कारण | Objectives and Importance of Financial Administration
वित्तीय प्रशासन के उद्देश्य एवं महत्त्व
वित्तीय प्रशासन के उद्देश्य एवं महत्त्व
वित्तीय प्रशासन की सफलता सरकार की राजस्व नीति को इसकी सही भावना तथा निर्धारित अवधि एवं साधनों में पूर्ण करने में निहित है। इसे इन सीमाओं के अंदर रह कर किसी प्रकार की हानि से बचा कर दायित्व निश्चित कर लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। वित्तीय प्रशासन के इन कार्यों का विस्तृत वर्णन निम्नानुसार किया जा सकता है।
1. वित्तीय प्रशासन का प्रथम व मूलभूत राजस्व नीति को कार्यान्वित करना होता है। अन्य नीतियों की भांति राजस्व नीति का निर्धारण भी राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा किया जाता है किंतु साथ ही यह कार्यकारिणी का ही दायित्व है कि वह अपनी स्थिति तथा कार्यपालिका की विशिष्टता के कारण नीति निर्धारण में सहायता करे। जहाँ तक कार्यान्वयन का संबंध है, यह प्रशासन का मूलभूत कर्त्तव्य है तथापित कुछ लेखकों के अनुसार, राजस्व नीति का कार्य क्षेत्र वित्तीय प्रशासन के अधिकार क्षेत्र से बाहर है तथा इसमें एक प्रकार के प्रश्न जुड़े हैं जोकि अर्थशास्त्रियों की वित्त से संबंधित है।
2. वित्तीय प्रशासन का एक और आधारभूत कार्य वित्तीय नियंत्रण से संबंधित है। इस मामलें में वित्तीय प्रशासन वित्तीय रखवाले का कार्य निभाता है। यह इस बात को सुनिश्चित बनाता है कि उन वित्तीय साधनों का सही उपयोग हो जो कि समस्त प्रशासनिक अभिकरणों को निर्धारित किए गए हैं।
3. वित्तीय प्रशासन में जिम्मेदारी को बड़ा महत्त्व प्राप्त है क्योंकि प्रथम तो वह जिसके पास वित्त का नियंत्रण होता है, उसी का बोलबाला होता है तथा दूसरे लोकतंत्र की यह आवश्यकता है कि उसके अफसर न केवल ईमानदारी से कार्य करें अपितु ऐसा दिखाई दे कि उन्होंने ईमानदारी से अपना दायित्व पूर्ण किया है। प्राचीन भारत के विख्यात राजनेता कौटिल्य का कथन है, "जैसा कि यदि किसी की जिह्वा की नोक पर मधु पड़ा हो तो यह असंभव है कि वह उसका स्वाद न ले वैसे ही सरकारी कर्मचारियों के लिए यह असंभव है कि जो धन उनके हाथों से होकर जाता है उसका आनन्द वे न भोगें । लोकतन्त्र में सब प्रकार के यान्त्रिक तथा मानवीय साधनों का उपयोग करना होता है ताकि इसे अपने कर्मचारियों की इस अतिसंवेदनशीलता से लोक सम्पत्ति (धन) की रक्षा की जा सके।
4. वित्तीय जिम्मेवारी न केवल संविधि के तथा अन्य कार्यकारिणी तथा विभागीय नियमों तथा कार्यप्रणाली के अनुरूप होनी चाहिए अपितु अन्य सामान्य बुद्धिमता' स्वामीभक्ति तथा आर्थिकता के सिद्धांतों के अनुरूप भी होनी चाहिए। अतः लोक प्रशासन में जिम्मेदारी केवल पारस्परिक उपकरणों जैसे बंधक (bonding), हिसाब-किताब (Bookkeeping), लेखा विधि, लेखा विधि (accounting) तथा प्रतिवेदन ( reporting) से ही नहीं लाई जा सकती। यह परिरक्षा तथा प्रबंधनकर्त्ता से आगे जाता है तथा व्यवस्था के सक्रिय नीति निर्धारण गुणों की सहायता प्राप्त करना है।" इसलिए इसकी प्रभाविकता इस बात में नहीं है कि कुछ बाह्य तथा आन्तरिक नियंत्रणों का विकास किए जाएं अपितु एक एकीकृत तन्त्र का आविष्कार किया जाए जोकि सामान्य तंत्र के सहयोग से कार्य की योजना को इस प्रकार तैयार करे ताकि वित्त का इस प्रकार नियंत्रण किया जा सके कि निर्धारित समय की सीमा के अंतर्गत कम धन तथा शक्ति का व्यय किए बिना योजना के लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके। इस प्रकार वित्तीय प्रशासन के मूल में एक सुदृढ वित्तीय व्यवस्था कार्यरत होती है। एक कल्याणकारी राज्य में यह केवल एक प्रशासन के नियंत्रण के उपकरण के रूप में ही कार्य नहीं करता अपितु आर्थिक तथा सामाजिक गतिविधि के सशक्त केन्द्रों को धन के बहाव में नियंत्रण का कार्य करता है। यह कार्यशील अभिकरणों की गतिविधियों में समन्वय करने तथा लोक गतिविधियों में प्राथमिकताओं के निर्धारण में भी साधन का कार्य करता है। राज्य को संतुलन में रखने के लिए सुगठित वित्तीय प्रणाली की आवश्यकता ही नहीं अपितु देश के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिए इसको गति, दिशा तथा ढांचे के निर्धारण की आवश्यकता भी है।
वित्तीय प्रशासन से संबंधित राजस्व व्यवस्था का एक अन्य कार्य भी है जोकि एक सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें क्रियाओं की अनवरत कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं जिनको कि इस प्रकार निर्दिष्ट किया जा सकता है-
(क) राजस्व तथा व्यय की आवश्यकताओं के अनुमानों के लिए तकनीकी रूप से कहे जाने वाले बजट की तैयारी की आवश्यकता है।
(ख) इन अनुमानों के लिए वैधानिक स्वीकृति प्राप्त करना जिन्हें तकनीकी रूप से बजट का वैधानीकरण
(ग) राजस्व तथा व्य क्रियाओं का कार्यान्वयन जिसे 'बजट का कार्यान्वयन कहा जाता है। इन प्रक्रियाओं की वैधानिक जिम्मेवारी जिसे अंकेक्षण कहा जाता है।
व्हाइट के अनुसार, "राजस्व व्यवस्था में इसके मुख्य उप-खण्डों के रूप में बजट का बनाना तथा इसके पश्चात् विनियोग की औपचारिक क्रिया व्यय का कार्यकारिणी द्वारा पर्यवेक्षण (बजट कार्यान्वयन), लेखा विधि तथा प्रतिवेदन प्रणाली पर नियंत्रण कोष की व्यवस्था, राजस्व एकत्रित करना तथा अंकेक्षण सम्मिलित हैं।" एक युक्तियुक्त वित्तीय प्रशासन की प्रणाली से तात्पर्य है कि संस्था की एकता सरकार की विभिन्न एजेंसियों में जितनी अधिक एकता होगी तथा कर्मचारियों के पदसोपान के दायित्व में जितना अधिक केन्द्रीकरण होगा. प्रशासन उतना ही कुशल होगा। इस केन्द्रीकरण का यह अर्थ नहीं है कि सब कुछ शीर्ष के कुछ लोगों द्वारा किया जाता है, विवरण अनस्थ अधिकारियों के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। किंतु इसका यह अर्थ अवश्य है कि विभिन्न अभिकरणों के कार्यों में समन्वय किया जाए तथा सरकार की किसी भी वित्तीय योजना में इसका सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए। संसदात्मक लोकतंत्र के ढांचे में, वित्तीय प्रशासन की प्रणाली की व्यवस्था तथा क्रियान्वयन इस भांति किया जाए कि विधान सभा की इच्छा की पूर्ति की प्राप्ति की जा सके जैसा कि विनियोग एक्ट तथा वित्तीय एक्ट के माध्यम से उस द्वारा व्यक्त की गई है। कार्यकारी सरकार को उन उद्देश्यों के लिए राजस्व एकत्रित करना चाहिए धन ऋण रूप में प्राप्त करना चाहिए तथा व्यय करना चाहिए जिन्हें विधान सभा ने विशेष रूप से अभिव्यक्त किया है। कार्यकारी सरकार द्वारा इन वित्तीय कार्यों पर नियंत्रण करने के लिए विधान सभा इन गतिविधियों का मूल्यांकन एक संवैधानिक अंकेक्षण संस्था द्वारा करवाती है जोकि कार्यकारी सरकार के नियंत्रण में नहीं होती।
आधुनिक युगों में वित्तीय प्रशासन की महत्ता के कारण
(Reasons for the Significance of Financial Administration in Modern Age)
डॉ० व्हाइट के अनुसार, "प्रत्येक प्रशासनिक कृत्य अपनी वित्तीय विविक्षायें भी लिए होता है, या तो खजाने पर बोझ डालता है अथवा इसमें योगदान देता है। धन के व्यय के बिना कुछ भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता, कम से कम उस कर्मचारी का वेतन अथवा उस पदाधिकारी को पारीश्रमिक देना होता है जो कार्य करता है। उपलब्ध वित्तीय साधन समूचे रूप से अथवा इसके आंशिक भागों में प्रशासनिक गतिविधियों पर एक सीमा लगा देते हैं। इसलिए वित्तीय प्रबंध प्रशासकों का प्रथम तथा अपरिहार्य दायित्व है। आजकल वित्तीय प्रशासन बड़ा महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि इसका कारण मात्र है कि हमारी सरकार से मांगों की कोई सीमा नहीं है किन्तु उपलब्ध राशि की सीमा हाती है। शांतिकाल में प्राथमिकताओं का निर्धारण करना जिन पर व्यय किया जा सके तथा धन की प्राप्ति, दोनों ही कदाचित कठिन कार्य हैं, विशेष कर उस समय जबकि घरेलू युद्ध जैसा कि निर्धनता के विरूद्ध चलाया जा जा रहा हो। शीघ्रता से आवश्यक परियोजनाओं का संचय होना, लोगों की बढ़ रही आशाओं के कारण पड़ रहा दबाव, वृहदृ योजनाओं तथा तत्काल परिणामों की इच्छा, इन सबका दबाव प्रशासन पर पड़ रहा होता है।
आधुनिक काल में वित्तीय प्रशासन ने और अधिक महत्ता प्राप्त कर ली है। इसके मुख्य कारणों की व्याख्या निम्नलिखित अनुच्छेद में दी जा रही है।
प्रथम, एक कल्याणकारी राज की अवधारणा ने राज्य की सदा बढ़ रही गतिविधियों का श्रीगणेश कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप लोक व्यय में असाधारण रूप से वृद्धि हुई है तथा निष्कर्ष यह निकला कि राजस्व की भी आवश्यकता बढ़ गई प्राकृतिक रूप से इसके कारण राज्य की वित्तीय प्रबंध में जटिल प्रणाली आरंभ हुई। इसलिए लोक प्रशासन के इस भाग को उन विशेषज्ञों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए जोकि राज्यीय वित्त से संबंधित प्रशासकीय जटिलताओं, विवरणों के अम्बादों और पेचीदगियों से पार पा सकने में सक्षम हों।
दूसरे, भारत जैसे लोकतन्त्रीय ढांचे में, जिसमें राज्य के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा राज्य के कार्यों को चलाना होता है, वित्तीय प्रशासन का इस प्रकार अनुकूलन किया जाना चाहिए कि वह लोकतन्त्रीय संस्थाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके। इसलिए इस प्रकार की लोकतंत्रीय संस्थाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए
वित्तीय प्रशासन की कार्य प्रणाली सरल तथा सुव्यवस्थित होनी चाहिए ताकि यह सुगमतापूर्वक साधारण बुद्धि के नागरिक की समझ में आ सके तथा बोधगम्य हो। कम से कम इतना तो हो कि विषय का जहाँ तक संबंध है उसकी रूप-रेखा समझ में आ जाए। एक वित्तीय प्रणाली को किस प्रकार से प्रतिपादित किया जा सके कि एक ओर तो कार्यक्षमता तथा इष्टसिद्धि को बनाया रखा जा सके तथा दूसरी ओर विभिन्न लोक तांत्रिक संस्थाओं पर लोक नियंत्रण को बनाए रखा जा सके। कार्य का समन्वय किस प्रकार से किया जाए कि कार्य को सामान्य रूप से बोधगम्य बनाया जा सके तथा इसकी आवश्यक तकनीकियों की बलि भी न दी जाए ताकि राज्य के राजस्व का अत्यंत कुशलतापूर्वक तथा उपयोग किया जा सके। हाल ही में यह लोक प्रशासन की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण समस्या बन गई है।
तीसरे, प्रबंध कौशल में विस्मयकारी प्रगति के प्रभाव ने प्राकृतिक रूप से वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र तक अपना विस्तार कर लिया है। "विज्ञान व्यवस्था तथा सरलता को जन्म देता है, इसलिए वित्त में भी अधिक सरल तथा यौक्तिक कार्य प्रणाली की खोज जारी है। यह भी शंका उत्पन्न होती है कि लोग, जो कि उत्तरोतर बड़ी तीव्र गति से यंत्रों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, इस प्रकार की वस्तु की इच्छा करते हैं जो स्वमेव कार्य करें। कोई भी सामाजिक विज्ञापन, यान्त्रिक विज्ञान के सटीकपन को प्राप्त नहीं कर सकता, अभिज्ञ तथा कुशल हो।" लोग जितना अधिक राज्य की जटिल क्रियाओं के तन्त्र को समझने का प्रयत्न करेंगे, राज्य के प्रशासन में उनकी उतनी ही अधिक रूचि उत्पन्न होगी तथा लोकतान्त्रिक संस्थाओं के विकास के लिए यह उतनी ही लाभदायक होगी।
इस प्रकार यह सरकारी गतिविधि की प्रकृति तथा कार्य क्षेत्र में परिवर्तन, विज्ञान तथा तकनॉलजी का प्रभाव, प्रशासन की विधियों तथा तकनीकों में प्रगति बढ़ रहा लोकतान्त्रिक नियन्त्रण, बढ़ रही आशाएं तथा साधनों की कल्पना, ये कुछ मुख्य कारण है जिनसे वित्तीय प्रशासन ने आधुनिक समय में इतने महत्त्व को प्राप्त कर लिया है। ये महत्वपूर्ण समितियाँ ग्रेट ब्रिटेन, भारत तथा अधिकांश राष्ट्रमण्डलीय देशों में पाई जाती हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका में नहीं।
उपर्युक्त सभी साधनों अथवा उपकरणों द्वारा सार्वजनिक धन के व्यय पर आवश्यक नियन्त्रण रखा जाता है। वित्तीय नियन्त्रण का अन्तिम उद्देश्य शासन को जागरूकता, ईमानदारी और मितव्ययिता के साथ संचालित करना होता है ताकि सरकार को जो जन धन कर दाताओं से प्राप्त हुआ है, उसका दुरूपयोग न हो सके।
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